हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ - (भाग बाईस) Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ - (भाग बाईस)

जिंदगी मानो ठहर गई।अब न नौकरी पर जाने की जल्दी है, न सुबह चार बजे से ही उठकर घर का काम निपटाने की चिंता। न किसी के आने की खुशी ,न जाने का ग़म। अब उन पड़ोसिनों से मेल -जोल बढ़ गया है,जिन्हें पहले अपनी व्यस्त दिनचर्या के नाते समय नहीं दे पाती थी।पास-पड़ोस के बच्चों को पढ़ाती हूँ।उनके साथ खेलती हूँ।आराम से घर का काम निबटाती हूँ।जो जी चाहता है बनाती- खाती हूँ।कभी -कभार फ़िल्म देख आती हूँ।रोज कुछ न कुछ लिखती हूँ।कभी -कभी तबियत ठीक नहीं लगती,तो लगता है कि काश ! मेरा भी कोई अपना होता,पर जब अपनों की याद आती है तो सहम जाती हूँ।कभी- कभी यूँ ही आँसू बह निकलते हैं।दिल में दर्द -सा महसूस होता है।
सोचती हूँ कि मेरा अपराध क्या था? एक सीधी -साधारण सी जिंदगी तो चाही थी।जो मुझे सही रूप में जाने -समझे ,ऐसे किसी अपने की ही तो चाह की थी।क्या मेरी आकांक्षाएं बड़ी थीं?
मैं पढ़ना चाहती थी तो पढ़ने से रोक दिया गया।शादी के बंधन से बचना चाहती थी तो किशोरवय में ही बांध दिया गया।अपने सम्मान,अपनी अस्मिता के लिए विरोध किया तो महत्वाकांक्षी कहा गया।
मुझे इतना विवश न किया गया होता तो क्या मैंने पति का घर छोड़ा होता?पिता के घर ही तो आई थी फिर उसे 'भागना' नाम क्यों दिया गया?अगर पति मेरी वापसी दिल से चाहता था तो उसने मुझे 'भागी हुई स्त्री' के रूप में इतना प्रचारित क्यों किया ?मैं किस मुँह से दुबारा उसके उस घर- परिवार या समाज में लौटती ,जहाँ का हर सदस्य मुझे 'भागी औरत' के चश्मे से देख रहा था?क्या मेरे लौटने से मेरा पति बदल जाता?वहाँ के लोग बदल जाते?वे तानें बदल जाते?नहीं ,कभी नहीं।
इतने वर्षों बाद भी जस का तस है पति ,उसका परिवार और उसका समाज।कोई नहीं बदला ,कुछ नहीं बदला।शायद औरत के लिए कभी कुछ नहीं बदलता।औरत बदल जाती है पर समाज की उसके प्रति सोच नहीं बदलती।
औरत की बुद्धि पर किसी को भरोसा नहीं होता।उसके श्रम पर पूरा परिवार जश्न मनाता है पर उसको जश्न मनाने का अधिकार नहीं होता।दो दिन के लिए भी वो बीमार हो जाए तो घर में भूचाल- सा आ जाता है।
हालांकि नई पीढ़ी के युवकों में बदलाव दिख रहा है पर उसका दायरा सीमित है।उस बदलाव में माँ -बहन नहीं है।प्रेमिका, पत्नी और बेटी है।आज के बेटे एकल परिवार का कांसेप्ट लेकर चल रहे हैं।उनके परिवार में माता -पिता फिट नहीं होते।बढ़ते हुए वृद्धाश्रमों को देखिए,वे नई पीढ़ी की इसी सोच को बता रहे हैं ?
मेरे बेटे अपने आत्म -परिचय में माँ की जगह मेरा नहीं अपनी सौतेली माँ का नाम लिखते हैं।अपने बच्चों के परिचय में भी दादी के कालम में उसका ही नाम लिखाते हैं।हर तीज- त्योहार,मदर्स डे पर उसी का अभिवादन करते हैं।पहले वे ये सब वे अपने पिता के कहने पर करते थे,अब अपनी दुनिया, अपना परिवार बनाने के बाद अपनी मर्जी से करते हैं। ऊपर से कहते हैं कि मैं ही उनका ध्यान नहीं रखती।मेरे सामने सौतेली माँ और पिता की निंदा करते हैं पर सबके सामने उन्हें ही अपना आदर्श बताते हैं।बहुएं इस तरह सौतेली सास से चिपकती हैं,जैसे वह उनकी माँ ही हो।पिता दशरथ की तरह चार बेटों और उनके परिवार के साथ फोटों खिंचवाता है और बेटे उन तस्वीरों को सोशल मीडिया पर डालकर कैप्शन लिखते हैं-हमारी अमेजिंग फैमिली या हमारा आदर्श परिवार।
न बेटों को, न ही उनके समाज को इस बात से फ़र्क़ पड़ा कि उस व्यक्ति ने पत्नी से बिना तलाक लिए ,उसके जीते -जी दूसरा विवाह किया,बच्चे पैदा किए।कोई औरत ऐसा कर ले तो तूफान आ जाए।पति परम्परा,परिवार,समाज,धर्म जाने किस- किस चीज की दुहाई देता है।सभी ने उसका स्पोर्ट किया है ।उसका साथ दिया है।आज तक उस आदमी ने अपनी कमी, अपनी गलती स्वीकार नहीं की है ।वह एकमात्र मुझे ही दोषी ठहराता है ,जबकि पूरे जीवन मैं यह सोचती रही हूँ कि आखिर मुझसे चूक कहाँ हुई!
लोगों के घर- परिवार देखती हूं तो लगता है कि कमोवेश हर औरत की जिंदगी में संघर्ष है।ज्यादातर ने अपनी अस्मिता अपने अस्तित्व को ताक पर रखकर ही घर -परिवार बनाया और बचाया है।परिवार का सुख पाने के लिए औरत को बहुत त्याग करना पड़ा है बहुत -कुछ सहना पड़ा है।बेटा अपनी सौतेली माँ के लिए कहता है कि वे भी क्या कम झेलती हैं?पति तो वही है न,पहले जैसा ही।औरत को कुछ न समझने वाला पर उन्होंने एडजस्ट किया।तभी तो उन्हें सब कुछ मिला।जेवर,कपड़ा,महल,वाहन,बेटे -बहू,पोते- पोती,समाज में इज्जत -सम्मान।
मैं कैसे बताऊँ कि उसके सामने कोई विकल्प नहीं?वह एक कम पढ़ी -लिखी घरेलू स्त्री है ।ऐसी स्त्रियों के लिए अपनी अस्मिता से ज्यादा जेवर ,कपड़े चाहिए होता है।ऐसी औरतें पति से गाली -मार खाकर भी तीज और करवाचौथ जैसे सुहाग -व्रत करती हैं ।पूरी मांग सिंदूर भरती हैं पर साथ ही घर ही में महाभारत रचती हैं।
मैं ऐसी औरत नहीं बन सकती थी।
विवाह के सात फेरे,सात वचन,सिंदूर सुहाग -चिह्न ही नहीं अब तो विवाह- संस्कार से भी मेरा विश्वास उठ चुका है।मेरे पति ने भी तो ये सारी रस्में मेरे साथ की थी पर सात जन्म तो दूर एक जन्म भी साथ नहीं निभाया।फिर उसने दूसरी औरत के साथ भी ये रस्में कीं और उसके साथ भी सात जन्म का वादा किया ।अब सात जन्म वह किसके साथ रहेगा?
मैं उस औरत को सुहागन की तरह सजी हुई और खुश देखकर सोचती हूँ कि उसने वे सारे सुहाग- चिह्न धारण किए हैं,जो मैंने पति के जीते -जी उतार दिए थे।क्या सच ही वह सात जन्म तक ऐसे ही पति को चाहती है?मैं तो ऐसे क्या किसी भी तरह के पति के लिए सात जन्म का बंधन नहीं चाहूंगी।चाहूँ भी क्यों,मैं कोई सामान्य स्त्री तो हूँ नहीं ।
मैं एक भागी हुई स्त्री हूँ।