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कोट - ३०

कोट-३०
मेरे लिखे तीन पन्ने मेरी कोट से निकले और मैं उन्हें पढ़ने लगा।
"आज एक वरिष्ठ पेड़ देखा।तना उसका मोटा था।डालियां झुकी हुई। फूल उस पर आते हैं पर कम। फल भी पहले से कम ठहरते हैं। गर्मी, सर्दी और बर्षा का अनुभव उसे है।सांसें लेता है और सांसें छोड़ता है ,आक्सीजन
के रूप में।उसके बगल में एक छोटा पेड़ उग आया है।दोनों की दोस्ती हो गयी है।वरिष्ठ पेड़ उसे अपने अनुभव बताता है।कि कितनी बार वह कटा है और फिर उगता रहा है और कभी उसने फूल और फल देने नहीं छोड़े हैं।उसकी कोशिश रहती है कि वह छायादार बना रहे। लोग उसकी छाया की प्रशंसा न करें लेकिन वहाँ बैठ कर अपने स्नेह के कथानकों को पिरोते रहें।उसकी एक व्यथा है कि आमतौर पर लोग उसकी तरह पाक-साफ नहीं हैं।पक्षियों उसे अपना बसेरा बनाती हैं।उनका कलरव उसे जीवन्त रखता है।वह टूटना नहीं चाहता है अत:अनेक आन्दोलनों से जुड़ा हुआ है। आदमी से उसका सान्निध्य ज्ञान और प्रेम का है।कालिदास एक पेड़ पर चढ़े मिले थे। भगवान बुद्ध बोधि वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हुये।कदंब के पेड़ों से कृष्ण भगवान का संबंध रहा था।पेड़ साहित्य भी हैं।कविता और गीत उनसे निकलते हैं।जैसे फिल्म का गीत-
"पर्वतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है,
सुरमई उजाला है, चम्पई अंधेरा है...।" "
***
"एक राजा को एक सुन्दर सपना आता था।जैसे ही सपना पूरा होने को होता एक उल्लू उसे लेकर दूर पेड़ पर चला जाता।राजा को ऐसा लगता जैसे राजा परीक्षित के साथ हुआ था।कहा जाता है कि तक्षत सांप के डसने से पहले ही परीक्षित की आत्मा उनके शरीर से अलग हो जाती है और तक्षत केवल शरीर को विषमय करता है और मृत्यु का कारण बनता है।राजा परेशान हो जाता है। समय बीतते जाता है।राजा के समझ में कुछ नहीं आता है। एक दिन राजा अपनी दुविधा सभासदों को बताता है। सभी सभासद कहते हैं," महाराज, आप उस पेड़ को कटवा दीजिए।" राजा पेड़ कटवा देता है। फिर वह पक्षी दूसरे पेड़ पर बैठ जाता है।राजा पेड़ कटवाता जाता है।और उसका राज्य वृक्ष विहीन होने लगता है।एक दिन एक साधु राजा के दरबार में आता है और कहता है," राजन, ऐसे ही वृक्ष कटते रहे तो आपकी मृत्यु पर, आपके शव को जलाने के लिये भी लकड़ी नहीं मिलेगी और अकाल पूरे राज्य को निगल जायेगा।" राजा सोच में डूब जाता है। और आदेश देता है कि राज्य को हराभरा रहने दिया जाय।अब कोई वृक्ष नहीं कटेगा बिना कारण।"
***
"पेड़ के नीचे बैठा हूँ।मंदिर में हनुमान चालीसा चल रहा है।
"पवन तनय संकट हरण, मंगल मूरत रूप, राम लखन सिया सहित ह्रदय बसहुँ सुर भूप।"
इधर एक फिल्म के गाने की आवाज आ रही है-
" हर पल यहाँ जीभर जियो
जो है समा कल हो ना हो--।"
इतने में एक गिलहरी मेरे पैर से चढ़, पैन्ट में घुस गयी है।मैं घबरा कर खड़ा हो जाता हूँ। पैन्ट हिलाता हूँ और वह और ऊपर चढ़ गयी है, कमर के पास, जहाँ पैन्ट बँधी होती है।मैं घबराहट में पैन्ट खोलता हूँ। उसे झटकता हूँ।फिर पीठ पर इस आशंका से हाथ फेरता हूँ कि कहीं वह कमीज के नीचे न हो।उसने काटा नहीं क्योंकि वह बेचारी अपनी जान बचाने में लगी थी। फिर नीचे देखा तो पाया कि उसकी पूँछ का एक भाग नीचे गिरा है और वह कुछ दूरी पर फिर व्यस्त हो चुकी है। हो सकता है उसने मेरे पैर को पेड़ समझा हो।पार्क में बैठे लोगों को मेरा व्यवहार अजीब लग रहा होगा।अब मैंने पैंट के मुँह बंद कर दिये हैं,और गिलहरी कांड पर लिख रहा हूँ।हल्का सा पसीना माथे पर जो आया था वह अब सूख चुका है।गिलहरी की पूँछ बगल में पड़ी है।उसकी शोभा बिगड़ गयी है जैसे प्यार के बिना मनुष्य की शोभा कम हो जाती है। ---।"

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