वजीर राम सिंह पठानिया महान सपूतों में गिने जाते हैं।ईस्वी 1846 में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ क्रांति का ध्वजारोहण करने वाले त्याग, तपस्या व अद्भुत साहस के प्रतीक इस 24 वर्षीय नवयुवक ने अपने मुट्ठी भर साथियों के बल पर अंग्रेजी साम्राज्य की नींव हिला दी थी।किन्तु दुर्भाग्य से देशवासी इस महान राजपूत यौद्धा के बारे में नही जानते।
जीवन परिचय :-
वजीर राम सिंह पठानिया के पिता नूरपुर रियासत के राजा वीर सिंह (1789-1846) के वजीर थे।इस वीर सपूत का जन्म नूरपुर रियासत के वजीर श्याम सिंह के घर 10 अप्रैल 1824 को हुआ था।
अंग्रेजो के विरुद्ध संघर्ष का कारण :-
इतिहास के अनुसार नौ मार्च 1846 में अंग्रेज-सिक्ख संधि के कारण वर्तमान हिमाचल प्रदेश की अधिकांश रियासतें सीधे अंग्रेजी साम्राज्य के आधीन आ गई थीं। राजा वीर सिंह अपने दस वर्षीय बेटे राज कुमार जसवंत सिंह को नूरपुर की राजगद्दी का उत्तराधिकारी छोड़कर स्वर्ग सिधार गए, अंग्रेजों ने राजकुमार जसवंत सिंह की अल्पावस्था का लाभ उठाते हुए उन्हें केवल पांच हजार रुपये वार्षिक देकर उनके सारे अधिकार ले लिए और इस रियासत को अपने शासन में मिलाने की घोषणा कर दी।वीर राम सिंह पठानिया बाल्यकाल से ही पराक्रमी थे, अंग्रेजों के इस षड्यंत्र को सहन नहीं कर सका और उसने गुप्त रूप से रियासत के पठानिया व कटोच राजपूत नवयुवकों की एक सेना तैयार कर ली।
रामसिंह पठानिया की वीरगाथा :-
1846 में जब दूसरा अंग्रेज-सिख युद्ध आरंभ हुआ, तो राम सिंह पठानिया ने अपने साथियों संग 14 अगस्त की रात्रि ममून कैंट लूटकर शाहपुरकंडी के दुर्ग पर धावा बोल दिया। इस आक्रमण से अंग्रेज बुरी तरह घबराकर भाग खड़े हुए। 15 अगस्त 1846 की सुबह राम सिंह पठानिया ने अपना केसरिया ध्वज यहां लहरा दिया और नूरपुर रियासत से अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने का ऐलान कर दिया। इसके साथ ही राजकुमार जसवंत सिंह को रियासत का राजा तथा खुद को उनका वजीर घोषित कर दिया।
इस घोषणा से पहाड़ी राजाओं में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई तथा जसरोटा के करीब पांच सौ राजपूत योद्धा मंगल सिंह मिन्हास के नेतृत्व में वीर पठानिया के झंडे तले आ गए। स्थिति को गंभीरता से लेते हुए जालंधर के कमिश्नर हेनरी लारेंस तथा कांगड़ा के डिप्टी कमिश्नर वनिस फैजी दल-बल के साथ शाहपुरकंडी पहुंचे और आक्रमण कर दिया। ये युद्ध कुछ दिनों तक चलता रहा, परंतु अंत में वीर राम सिंह पठानिया को खाद्य सामग्री के अभाव में दुर्ग को खाली करना पड़ा तथा रानीताल अपने साथियों सहित निकलकर वह माओफोर्ट के जंगलों में चले गए और गोरिल्ला युद्ध करते रहे।
अंग्रेजी सेना ने उनका बहुत पीछा किया, लेकिन वह उन्हें चकमा देकर गुजरात(पंजाब के)जा पहुंचे। वहां उन्होंने सिख सेना से फौजी दस्ते व गोला-बारूद लेकर अपनी ताकत को बढ़ाया।
राम सिंह ने अन्य राजाओं व सिखों के साथ मिलकर अंग्रेजों को मैदानों व पहाड़ी इलाकों में अलग-अलग उलझाए रखने की योजना बनाई।
इसी दौरान जसवान के राजा उमेद सिंह, दतारपुर के राजा जगत सिंह व ऊना के राजा संत सिंह बेदी ने भी अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। अंग्रेजों में खलबली मच गई और उसी साल उन्होंने पठानकोट पर आक्रमण कर दिया, लेकिन वीर राम सिंह ने साहस नहीं छोड़ा तथा अपना मोर्चा पठानकोट से उत्तर पश्चिम की ओर समुद्र तल से 2772 फुट की ऊंचाई पर स्थित डल्ले की धार पर लगाया।
कुछ दिनों तक यहां पर भीषण युद्ध चला, इसमें अंतत: अंग्रेजी सेना को पीछे हटना पड़ा। रानी विक्टोरिया के एक रिश्तेदार राबर्ट पील के भतीजे जान पील ने वाहवाही बटोरने के लिए वीर राम सिंह के समीप पहुंचने का दु:स्साहस किया,लेकिन राम सिंह ने लैफ्टिनेंट जॉन पील व उसके अंग रक्षकों को मौत के घाट उतार दिया। डल्ले की धार पर जान पील की कब्र पर स्थित शिलालेख आज भी उस घटना की ऐतिहासिकता को दर्शाता है।
रामसिंह पठानिया की गिरफ्तारी और दुखद अंत :-
कहा जाता है कि वीर राम सिंह को अंग्रेजों ने उस समय गिरफ्तार कर लिया, जब वह पूजा पाठ में व्यस्त थे।गिरफ्तार करके उन्हें कांगड़ा किले में रखा तथा घोर यातनाएं दी गईं। सशस्त्र क्रांति का अभियोग लगाकर उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाकर कालापानी भेज दिया गया, इस वीर की अंतिम इच्छा थी कि यदि अंग्रेजी सरकार उसे छोड़ दे तो भी वह आजादी के लिए तब तक लड़ता रहेगा, जब तक शरीर में प्राण बाकी हैं,
लेकिन अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें रंगून जेल भेज दिया तथा रंगून जेल की यातनाएं सहते हुए यह वीर सपूत 11 नवंबर, 1849 को मातृभूमि की रक्षा करते हुए मात्र 24 वर्ष की आयु में ही देश की खातिर वीरगति को प्राप्त हो गया।
"कोई किल्हा पठानिया जोर लडेया', 'कोई बेटा वजीर दा खूब लड़ेया' जैसी लोकगाथाओं के जरिये वीर शिरोमणी वजीर राम सिंह पठानिया को आज भी प्रथम सशस्त्र क्रांति के नायक के रूप में याद किया जाता है।1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से भी दस वर्ष पूर्व यह चिराग अंग्रेजी साम्राज्य के सामने चुनौती देकर बुझ गया,परंतु उस वीर योद्धा की राख में वे चिंगारियां थीं,जो आगे चलकर विस्फोटक बनकर तब तक फूटती रहीं, जब तक भारत आजाद नहीं हो गया।
उनकी वीरता और लोकप्रियता को देखते हुए उन्हें प्रथम स्वतंत्रता सेनानी घोषित कर पंजाब सरकार ने हर साल इस दिन को डल्ले की धार में वजीर राम सिंह पठानिया की याद में शहीदी दिवस मनाने की परंपरा शुरू की।
मातृभूमि के चरणों में अपने प्राणों की आहुति देने वाले इस शूरवीर की वीर गाथाएं आज तक पूरे क्षेत्र में बड़े आदर से गाई जाती है।