क्रान्तिकारी शहीद शिवराम हरि राजगुरु दिनू द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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क्रान्तिकारी शहीद शिवराम हरि राजगुरु

आज एचएसआरए के महान क्रान्तिकारी शहीद शिवराम हरि राजगुरु का जन्मदिवस है। पूना के खेड़ा में 24 अगस्त 1908 को जन्म लेने वाले राजगुरु घर छोड़कर पढ़ाई के लिए बनारस आये थे। यहीं उनका सम्पर्क गोरखपुर से निकलने वाली स्वदेश के सह-सम्पादक मुनीश्वर अवस्थी से हुआ और उसके बाद वे क्रान्तिकारी दल के सदस्य बने। बहुत ही गरीबी और कठिनाई में अपना जीवन बिताने वाले राजगुरु बहुत ही विनोदी और सौन्दर्यप्रिय स्वभाव के तो थे ही, साथ ही कुर्बानी के मामले में भी वो हमेशा सबसे आगे रहना चाहते थे। लाहौर षड्यंत्र केस में सांडर्स की हत्या में शामिल होने के बाद, भगतसिंह के साथ असेम्बली में बम फेंकने के लिए जाने हेतु भी राजगुरु ने बहुत ज़िद की थी।
शिववर्मा ने अपनी पुस्तक ‘संस्मृतियां’ में लिखा है – “कम्युनिज़्म या समाजवाद का रास्ता ही देश के भविष्य का रास्ता है इस पर उसे पूरा विश्वास था।..... राजगुरु भी अपने जीवन के अनुभवों से समाजवाद की ओर आकर्षित हुआ था। आगे चलकर इस आकर्षण ने गहरी निष्ठा एवं विश्वास का रूप ले लिया।”
सितम्बर 1929 में राजगुरु को पूना में गिरफ़्तार किया गया। सजा सुनाये जाने के बाद फाँसी की कोठरी में भी राजगुरु का विनोदी स्वभाव, हँसी-मज़ाक और गाना कम नहीं हुआ था। 23 मार्च 1931 को भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी दी गयी।
आज देश में सत्ताधारी फासिस्ट ताकतें अंग्रेज़ों से भी बर्बर लूट और अत्याचार करने में लगी हुई हैं। एचएसआरए के महान क्रान्तिकारियों ने धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के जिन आदर्शों का सपना लेकर शहीद हुए, आज उन सपनों और विचारों को रौंदा-कुचला जा रहा है। ऐसे में यह दौर राजगुरु जैसे ही बहादुर और ज़िन्दादिल नौजवानों को देशी-विदेशी पूँजी की लूट पर टिकी मौज़ूदा पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए ललकार रहा है। उनके सपनों के समाज के निर्माण के लिए संघर्ष करना ही सही मायने में उनको श्रद्धांजलि हो सकती है।

आज एचएसआरए के महान क्रान्तिकारी शहीद शिवराम हरि राजगुरु का जन्मदिवस है। पूना के खेड़ा में 24 अगस्त 1908 को जन्म लेने वाले राजगुरु घर छोड़कर पढ़ाई के लिए बनारस आये थे। यहीं उनका सम्पर्क गोरखपुर से निकलने वाली स्वदेश के सह-सम्पादक मुनीश्वर अवस्थी से हुआ और उसके बाद वे क्रान्तिकारी दल के सदस्य बने। बहुत ही गरीबी और कठिनाई में अपना जीवन बिताने वाले राजगुरु बहुत ही विनोदी और सौन्दर्यप्रिय स्वभाव के तो थे ही, साथ ही कुर्बानी के मामले में भी वो हमेशा सबसे आगे रहना चाहते थे। लाहौर षड्यंत्र केस में सांडर्स की हत्या में शामिल होने के बाद, भगतसिंह के साथ असेम्बली में बम फेंकने के लिए जाने हेतु भी राजगुरु ने बहुत ज़िद की थी।
शिववर्मा ने अपनी पुस्तक ‘संस्मृतियां’ में लिखा है – “कम्युनिज़्म या समाजवाद का रास्ता ही देश के भविष्य का रास्ता है इस पर उसे पूरा विश्वास था।..... राजगुरु भी अपने जीवन के अनुभवों से समाजवाद की ओर आकर्षित हुआ था। आगे चलकर इस आकर्षण ने गहरी निष्ठा एवं विश्वास का रूप ले लिया।”
सितम्बर 1929 में राजगुरु को पूना में गिरफ़्तार किया गया। सजा सुनाये जाने के बाद फाँसी की कोठरी में भी राजगुरु का विनोदी स्वभाव, हँसी-मज़ाक और गाना कम नहीं हुआ था। 23 मार्च 1931 को भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी दी गयी।
आज देश में सत्ताधारी फासिस्ट ताकतें अंग्रेज़ों से भी बर्बर लूट और अत्याचार करने में लगी हुई हैं। एचएसआरए के महान क्रान्तिकारियों ने धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के जिन आदर्शों का सपना लेकर शहीद हुए, आज उन सपनों और विचारों को रौंदा-कुचला जा रहा है। ऐसे में यह दौर राजगुरु जैसे ही बहादुर और ज़िन्दादिल नौजवानों को देशी-विदेशी पूँजी की लूट पर टिकी मौज़ूदा पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए ललकार रहा है। उनके सपनों के समाज के निर्माण के लिए संघर्ष करना ही सही मायने में उनको श्रद्धांजलि हो सकती है।