सेहरा में मैं और तू - 9 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • साथिया - 111

    दोनों घरों में शादी की तैयारी शुरू हो गई थी मनु को विदाई करत...

  • जिंदगी

     'जिंदगी '  कितना सुकून देता है यह शब्द ।मतलब कितना...

  • देखो फूल रूठ गए

    1.जिस राह पर अब हम हैं,घर तुम्हारा पीछे छूट गया,शीशे का महल...

  • मी आणि माझे अहसास - 98

    इच्छांचा सागर दूरवर पसरला आहे. एका इच्छेने पृथ्वी आणि स्वर्ग...

  • तिब्बत के देवता

     तिब्बत के देवतातंत्र,मंत्र,ध्यान,साधना   प्रस्तावनातिब्बत,...

श्रेणी
शेयर करे

सेहरा में मैं और तू - 9

दिन कोई आराम थोड़े ही करते हैं। जल्दी में तो रहते ही हैं। जल्दी से बीत गए।

वो दिन भी आ गया जब अकादमी के लड़कों को यहां से कुछ दूरी पर स्थित महानगर में चयन के लिए जाना था। कड़े अभ्यास और सलेक्शन के बाद आठ लड़कों को इस चयन की पात्रता मिली थी। दोनों प्रशिक्षक भी उनके साथ जा रहे थे। और उनके खाने पीने और दूसरी व्यवस्थाओं के लिए दो सहायक भी।

चमचमाती हुई लग्जरी बस गेट पर लगी थी और ऐसी ही चहल - पहल थी जैसे किसी घर के दरवाज़े से बारात जाने के वक्त होती है।

प्रतियोगिता के तनावों से दूर सभी लड़के इस समय तो यात्रा की खुशी से ही चहक रहे थे।

हाथ हिलाकर वहां मौजूद लोगों ने जाने वालों को विदा किया। शुभकामनाएं भी दीं।

किसी भी चयन की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि बाद में चाहे सफलता एक दो लोगों को ही मिले पर आरंभ में आशाएं सभी चेहरों पर दिपदिपाती हैं। उम्मीदों का मेला सा लग जाता है।

यहां से करीब चार- पांच घंटे का रास्ता था। शाम तक पहुंच कर सभी को वहां ठहरना था और अगले दिन सुबह से ही खेल शुरू होने वाला था।

बस रवाना हुई तो सभी लड़के जैसे बच्चे बन गए। किलकारियां सी गूंजने लगीं।

कुछ देर का घुमावदार रास्ता था। घाटी पार करके फिर सीधी सड़क थी। सभी को यात्रा में ख़ूब आनंद आया। अधिकांश लड़कों ने इतना बड़ा शहर पहले नहीं देखा था। सब अचंभित थे।

इमारतों के मेले और उनमें टंगे रोशनियों के जुगनू सभी के आकर्षण का केंद्र थे।

रात को वहां पहुंच कर सबने थोड़ा बहुत आसपास का इलाका घूम फ़िर कर देखा। खाना खाकर जल्दी ही सब सो गए। दिनभर की थकान तो थी ही। यद्यपि थकने के अभ्यस्त तो वो सभी थे।

मैदान पर भीड़ भाड़ थी। ऐसा लगता था जैसे जितने खिलाड़ी और कोच आदि थे उनसे कई गुणा ज्यादा दर्शक इकट्ठे हो गए थे। व्यवस्थाएं भी बेहतरीन थीं।

चयन स्पर्धा एक बार शुरू हुई तो बिजली की गति से समय बीतने लगा। एक से एक उम्दा निशाने बाज़। जब भी कोई खिलाड़ी बड़ी सफलता हासिल करता उसके साथ आया जनसमूह जोर से हर्षध्वनि करता।

दोपहर के भोजन से पहले ही स्पर्धा ख़त्म हुई।

दोनों प्रशिक्षक मानो फूले नहीं समा रहे थे। इस पहले ही अंतरराष्ट्रीय चयन में उनके दो खिलाड़ी चुन लिए गए थे। सबने एक दूसरे को बधाई दी। लड़कों में गज़ब का उत्साह था।

कबीर ने जब प्रफुल्लित होकर दोनों प्रशिक्षकों, अपने दोनों साहब के पैर छुए तो कई लड़कों ने सीटियां बजाईं। सभी ने बारी- बारी से उसे गले भी लगाया।

शैतान रोहन ने तो कबीर को गले लगाते हुए उसके गाल पर एक गहरा चुंबन भी जड़ दिया।

अब खाने के बाद यहां से वापस निकलना था।

रोहन और कबीर दोनों का ही चयन प्रतियोगिता के लिए हुआ था। रोहन जंगल के एक ठेकेदार परिवार से आया हुआ लड़का था जिसने यहां आने से पहले गांव में ही कुछ समय स्कूली पढ़ाई भी की थी। उसकी आयु लगभग सत्रह वर्ष थी और वह मेहनती लड़का था। कबीर अपने दूर के रिश्तेदारों के साथ रह कर पला बढ़ा गरीब लड़का था जिसकी आयु अब उन्नीस साल थी।

लेकिन अब ये सब अंतर मिट चुके थे। अब तो उस अकादमी के होनहार छात्र थे दोनों ही, जिन पर सबको गर्व था। कोई सोच भी नहीं सकता था कि ये दोनों प्रतिभाशाली लड़के जल्दी ही विदेश यात्रा करेंगे।

अब कुछ दिन बाद इन्हें एक ट्रेनिंग शिविर में भी शामिल होना था।

आशाओं और उमंगों का रेला सा साथ लिए देर रात तक बस अकादमी परिसर में वापस लौटी।