ओह! शुरू शुरू में ये अविश्वसनीय सा लगा था।
बिल्कुल असंभव! नहीं, ऐसा हो ही कैसे सकता है? इसकी कल्पना करना भी कल्पनातीत है।
आख़िर नियम कायदे भी तो कुछ चीज़ होती है या नहीं! ऐसा हो ही कैसे सकता है? और क्यों होगा??
शहर से तीस किलोमीटर दूर स्थित एक सुरम्य मनोरम घाटी में घुमावदार पहाड़ी रास्ते पर स्थित वो खूबसूरत छोटी सी इमारत शान से खड़ी थी। इमारत बेशक छोटी सी हो, किंतु उसके इर्द गिर्द फ़ैला मैदान कोई छोटा नहीं था। मज़बूत चारदीवारी से घिरा यह हरा भरा नज़ारा शहर के नामी गिरामी राज परिवार का देश के युवाओं को एक अनमोल तोहफ़ा ही तो था।
राज परिवार ने अपनी यह मिल्कियत एक खेल अकादमी को सौंप दी थी। राजमाता के निधन के बाद जब उनके दोनों पुत्रों और एक पुत्री के बीच लंबी चौड़ी संपत्ति का बंटवारा हुआ तब एकांत में बना हुआ ये भवन और इसका लंबा चौड़ा अहाता ज़िला प्रशासन के माध्यम से उस स्पोर्ट्स अकादमी को दान में दे दिया गया जिसका गठन अपने निधन से कुछ समय पूर्व राजमाता ने निर्धन प्रतिभाशाली ग्रामीण युवकों को अंतरराष्ट्रीय खेलों के लिए तैयार करने के उद्देश्य से एक हॉस्टल बनाने के लिए दे दिया था।
इस खेल विद्यालय का विधिवत गठन हो चुका था। इसमें पांच वर्ष के लिए बीस लड़कों का चयन आदिवासी, भील, वनवासी, खानाबदोश और घुमंतू जनसंख्या के लोगों के बीच से किया गया था। यह पूरी तरह निशुल्क था और इसके संचालन का सारा खर्चा राजपरिवार की ओर से सुरक्षित रखे गए एक फंड से किया जाना था।
इस हॉस्टल में एक मुख्य प्रशिक्षक तथा दो अन्य शिक्षकों के साथ सभी बीस युवकों के रहने की निःशुल्क व्यवस्था थी।
सभी युवकों की आयु तेरह से उन्नीस वर्ष के बीच थी। कड़े अनुशासन के बीच सभी का नियमित प्रशिक्षण शिविर आरंभ हो गया।
यहां से कुछ ही दूरी पर एक पुराने महल के पिछवाड़े के हिस्से में खाली पड़े कुछ कमरों और बारादरी में इस हॉस्टल के कुछ कर्मचारियों के रहने की व्यवस्था थी जहां वो अपने परिवारों के साथ रहा करते थे। इनमें कुछ महिलाएं भी शामिल थीं। मुख्य हॉस्टल में किसी महिला या किसी अन्य परिवार जन को जाने की अनुमति नहीं थी। अधिकांश खिलाड़ी अविवाहित ही थे। दोनों कोच भी अविवाहित थे किंतु उनमें से एक का बाल विवाह हो चुका था और उसकी धर्मपत्नी समीप के गांव में अपने माता पिता के साथ ही रहती थी तथा खेती के काम में उनका हाथ बंटाती थी।
सुबह चार बजे पहाड़ों के पीछे से सूरज के उजाले के झांकते ही शिविर में हलचल शुरू हो जाती थी।
दिन भर कड़े अभ्यास के साथ गतिविधियों का आरंभ हो जाता था।
एक ओर लड़के पसीना बहाना शुरू कर देते तो दूसरी तरफ उनके लिए पौष्टिक व सेहतमंद आहार बनना शुरू हो जाता। तरह तरह की खुशबुओं से घाटी महकने लग जाती। उस पथरीली ज़मीन पर जितनी बूंदें आसमान के बादलों से गिरतीं उससे कहीं ज्यादा उन लड़कों के कसरती बदन के पसीने से गिरतीं। घाटी नम हुई रहती।
जैसे जैसे दिन चढ़ता वैसे वैसे युवकों का कोलाहल अच्छे भविष्य की उम्मीदें जगाता और दिवंगत राजरानी मां के ख़्वाब परवान चढ़ने लगते।
दरअसल राजमाता के इस महादान के पीछे भी एक बेहद मर्मस्पर्शी दास्तान छिपी थी।