थैंक गॉड फ़िल्म समीक्षा - थैंक गॉड Jitin Tyagi द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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थैंक गॉड फ़िल्म समीक्षा - थैंक गॉड

पुण्य करों और सुखी जीवन जियों या फिर पुण्य करना जीवन में कितना जरूरी हैं। ये फ़िल्म की मुख्य थीम हैं। पर डायरेक्टर एक बात भूल गया कि इस फ़िल्म को ना बनाना भी एक पुण्य का ही काम हैं। और इस काम को अगर वो करता तो भगवान की कृपा दर्शक और डायरेक्टर दोनों पर होती, लेकिन अफ़सोस निर्देशक के पाप में जनता भी भागीदार बन गयी। वैसे ये फ़िल्म क्यों बनाई ये बात मैंने फ़िल्म के शुरुआती दस मिनट में ही खुद से पूछ ली थी। लेकिन मैंने ये फ़िल्म फिर भी पूरी देखी ताकि आगे से इस तरह के पाप से बचा जा सकें

कहानी के नाम पर हिंदी सुविचारों के जखीरें को स्क्रीन पर गतिमान रूप दिया गया हैं। और दिक्कत ये हैं। कि इस ज़खीरे को देखकर मुझे सुविचार ज्यादा अच्छे लगने लगे हैं। अयान(सिद्धार्थ मल्होत्रा) जो लालची, भ्रष्ट, झूठा, धोकेबाज़, ईर्ष्यालू, हैं। वो एक एक्सीडेंट में मर जाता हैं। जब वो ऊप्पर पहुँचता हैं। तो वहाँ अजय देवगन(चित्रगुप्त) जिसे शॉर्टफ़ोर्म में CG भी कहा गया हैं। वो उसे kbc टाइप का एक गेम खिलाता हैं। जिसमें अगर अयान जीत गया तो उसे अपनी लाइफ वापस मिल जाएगी। और अंत में वो ही होता हैं। जिसे दर्शक फ़िल्म की अन्नोउसमेन्ट हुई थी तब से सोच रहा था कि ये एक कॉमेडी की हत्या करती हुई हैप्पी एंडिंग फ़िल्म होगी।

एक्टिंग के नाम पर फ़िल्म में करने के लिए कुछ नहीं था। जैसा व्यवहार ये लोग कपिल शर्मा शो पर करते हैं। बिल्कुल ऐसी ही पूरी फिल्म में एक्टिंग हैं।

मेरी इस पूरी फिल्म में एक बात समझ नहीं आयी कि ये फ़िल्म जबरदस्ती ज्ञान क्यों थोप रही थी। चलो ठीक हैं। निर्देशक पागल हो गया था। तो क्या जरूरी हैं। कि बाकी लोग भी हो, इस फ़िल्म में एक भी सीन ऐसा नहीं हैं। जो तुम्हें अच्छा लगेगा। पहले हर बात पर मज़ाक हैं। फिर उस मज़ाक के पीछे ज्ञान, और म्यूजिक पूरी फिल्म में दो tune इस्तेमाल की हैं। एक मजाक वाली और दूसरी ज्ञान वाली, लेकिन एक tune और हैं। दर्शकों की गाली जो वो खुद को देते हैं। या फ़िल्म को ये समझना थोड़ा मुश्किल हैं।

स्क्रीनप्ले के नाम पर तो निर्देशक ने जो दिखाया हैं। उस बात के लिए इस बन्दे को स्क्रीन का नाम लेने पर भी सज़ा होनी चाहिए। मतलब एक भी घटना ऐसी नहीं थी जिस से जुड़ाव महसूस हो, ऊप्पर से कहानी के अंदर कहानी दिखा रहे हैं। जबरदस्ती, जिस सीन में कॉमेडी की जरूरत भी नहीं हैं। उसमें सिद्धार्थ मल्होत्रा से कॉमेडी डला रहे हैं। अब जिस बन्दे ने अपने जीवन में जोक ना सुनाया हो, वो कॉमेडी कैसे करलेगा। लेकिन पता नहीं ऐसी कौन सी नज़र थी इस फ़िल्म के मेकर्स के पास जो ये सब उन्होंने स्क्रीन पर दिखाने का जिम्मा इन एक्टर्स के साथ लिया, रकुल प्रीत सिंह फ़िल्म में हैं। क्यों, क्योंकि जैसा इसका रोल हैं। वो कहानी में तो होगी नहीं, लेकिन पटकथा में डाल दी गयी होगी।


तो अंतिम बात ये हैं। कि गलती से भी मत चले जाना, और अगर किसी के घर के रास्ते मे थिएटर पड़ता हैं। और उस पर ये फ़िल्म लगी हैं। तो रास्ता बदल लो अपना जब तक ये लगी हैं। क्योंकि इसका पोस्टर भी आँखें और दिमाग दोनों खराब होने की वजह बन सकता हैं।