भूतिया हवेली... Saroj Verma द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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भूतिया हवेली...

शहर के सबसे अमीर और नौजवान उद्योगपति सुकेतु महाजन जो अभी तक अविवाहित हैं,वें विदेश से पढ़कर लौटें हैं और अब अपना पुश्तैनी कारोबार सम्भाल रहे हैं ,उन्होंने शहर के बाहर सुनसान इलाके में एक फार्महाउस खरीदा,जब वें उसे पहले बार देखने गए थे तो रास्ते में एक गाँव पड़ा उसका नाम था सोनपुर,वहाँ गाँव के बाहर ही उन्होंने एक पुरानी हवेली देखी,उस हवेली को देखते ही पता नहीं उनका मन कुछ बेचैन सा हो उठा,पहले उन्होंने सोचा कि अपने ड्राइवर से कार रोकने को कहें और उस हवेली के पास जाकर देखें कि वो कैसीं दिखती है लेकिन फिर उन्हें देर हो रही थी और वें उस दिन आगें बढ़ गए फिर लौटते समय ड्राइवर ने दूसरा रास्ता पकड़ लिया और फिर वें दोबारा उस ओर ना जा सके....
फिर जब सुकेतु महाजन की डील फाइनल हो गई तो वें अपने माता-पिता और अपने दोस्त जलज सिंघानिया के साथ उस फार्महाउस को देखने गए लेकिन जब वें दोबारा फिर से उसी हवेली के सामने से गुजरे तो इस बार उनके दोस्त जलज को भी उस हवेली को देखकर कुछ बेचैनी सी महसूस होने लगी,तब उसने अपने दोस्त से कहा....
यार!सुकेतु!चल ना हवेली के पास जाकर देखते हैं कि वो कैसीं है....
तब सुकेतु की माँ शैलजा बोली....
नहीं!जलज बेटा!ऐसी हवेलियों के पास नहीं जाना चाहिए,क्या पता वहाँ किस भूत और चुड़ैल का डेरा हो...
माँ!इस जमाने में रहकर भी आप कैसीं बातें करती हो?सुकेतु बोला।।
तुम्हारी माँ सही कहती है बेटा!सुकेतु के पिता शिवनन्दन महाजन बोलें....
अगर आण्टी अंकल मना कर रहें हैं तो उनकी बात तो माननी पड़ेगी,जलज बोला।।
और फिर उनकी कार आगें बढ़ गई,वें सब फार्महाउस पहुँचें और वहाँ एकाध दिन रुकने की योजना बनाकर ही आएं थे क्योंकि वहाँ का शांत वातावरण सुकेतु को भा गया था,वहाँ का बूढ़ा चौकीदार धनीराम और उसकी बूढ़ी मेहरारू चंपा ने सबके लिए भोजन का इन्तजाम किया और जब शाम हो गई तो जलज और सुकेतु ने योजना बनाई कि चल उस हवेली में होकर आते हैं,उनकी इन बातों को चौकीदार धनीराम ने सुन लिया और उनसे बोला.....
बाबूसाहब!उस हवेली की ओर जाने की भूल कभी मत करना....
तब जलज ने पूछा,ऐसा क्यों कह रहे हो धनीराम काका?
बस !बेटा!ये जान लो कि वो हवेली मनहूस है और जो भी वहाँ जाता है बचता नहीं है....,धनीराम काका बोले....
लेकिन क्यों काका?ऐसा क्या है वहाँ पर,सुकेतु ने पूछा....
तो आप दोनों सुनना चाहते हो उसकी कहानी,धनीराम काका बोलें....
किसकी कहानी,जलज ने पूछा....
रेशमीबाई की कहानी,धनीराम काका बोलें....
तो हमें भी सुनाइए ना रेशमीबाई की कहानी,सुकेतु बोला....
तब धनीराम ने कहानी सुनानी शुरू की....
कहानी की शुरुआत होती है एक दिन से, उस दिन सूरज धरती को आख़िरी सलाम पेश कर रहा था,शाम घिर आई थी कि तभी सोनपुर गांँव की उस हवेली में अचानक एक चीख़ गूंँजती है ,आवाज़ किसी लड़की की है...कहती है...मुझे हवेली से मत निकालो...ये मेरा घर है...वरना मैं तुम सबको बर्बाद कर दूंँगी, कोई कुछ समझे इससे पहले एक और चीख़ गूंँजती है,
मगर इस बार चीख़ में मौत की तकलीफ़ भी घुली हुई है, पानी..पानी... कराहने की आवाज़ के साथ कोई लड़की पानी मांँगती है...ये वाकया कहीं और होता...तो शायद कोई न कोई तो मदद के लिए आ भी जाता..मगर वो वाकया उस हवेली में हो रहा था,उस लड़की की आवाज सुनकर उस गांव में हर कोई डर से सहम सा जाता था...क्योंकि पिछले कई दशकों से ऐसी चीख़ें...इस हवेली से निकलती रहतीं थीं...और लोग कांपते हुए सुबह का इंतज़ार करते रहतें थे...
लेकिन धीरे-धीरे ये दिक्कत बढ़ती ही गई, वहांँ घुंघरुओं की आवाज़ सुनाई देती थी..नाचने की आवाज़ें...आतीं थीं, कभी कभी तो गाँववालों को इतनी आवाज़ें सुनाईं देतीं ..कि उनका मन करता कि वें घर छोड़कर वहाँ से चले जाएं ......वो हमेशा यही कहती कि ये मेरा घर है,इस तरह से गाँव के लोगों को डर लगने लगा,
गाँव के लोंग ख़ौफ़ के साये में जीने लगे,लेकिन सवाल ये था कि आखिर कौन है ये लड़की?. .और इसका इस घर से क्या रिश्ता है...क्यों दिन ढलते ही...इस हवेली के पास से होकर गुज़रने वाले वहाँ से नहीं गुजरते और उन हवेली के रास्तों पर क़ब्रिस्तान सा सन्नाटा पसर जाता है...और एक अजीब अनमनी से लड़की इस हवेली में भटकती दिखाई देती है...कभी झरोख़े से झांँकती तो कभी हवेली की छत से टकटकी लगाए दूर किसी मुसाफ़िर का इंतज़ार करती...जिसने उसे ग़ौर से देखा है...
तो बताते हैं कि उसकी नज़रें बरछी की तरह कलेजे को चीरती सी लगती हैं,मगर कभी इन्हीं नज़रों के दीवाने थे लोग,वो जहांँ खड़ी होती थी उसी के आसपास खड़े होकर लोग उसका दीदार करना चाहते थे, जिस घर में वो रहती थी उसकी खिड़की पर लोगों की नजरें टकटकी लगाएं रहती थीं इंतज़ार करते थे लोग...कि कब खिड़की खुले और उसका दीदार हो...ऐसा जलवा था रेशमीबाई का...
उस हवेली के आसपास रहने वाले बुजुर्ग बताते हैं कि उस हवेली में से एक ख़ूबसूरत सी लड़की निकलती थी,जिसे वो जब पकड़ने की कोशिश करते थे..वो बिल्ली बन जाती थी,आज उस कोठी में ज़िंदगी और मौत दोनों का बसेरा है,दूसरी हवेलियों की तरह ये ख़ाली नहीं हैं.....
वहांँ गुज़रे दौर की तवायफ़ रेशमीबाई की रूह रहती है ,उस हवेली में आज भी एक ख़ूबसूरत मगर ख़ौफ़नाक चेहरा उन्हें लगातार नज़र आता है...एकटक घूरता हुआ...
रेशमीबाई...उसकी पायल जब छनकती थी...तो लोग दीवाने हो जाया करते थे...हर हवेली का मालिक ये सपना पाला करता था कि एक दिन ये घुंँघरु उनके सिर्फ़ उनके लिए ही खनकेंगे..बात क़रीब दो सौ साल पुरानी है जब रेशमीबाई उसी हवेली में मुजरा किया करती थी...रमिया के दीवानों की फ़ेहरिस्त में इसी इलाक़े के दो दोस्तों का नाम भी शुमार हुआ करता था...जो तक़रीबन हर शाम उसी के पास गुज़ारा करते थे...
मगर रेशमीबाई उस बला का नाम था जिसकी ख़ूबसूरती और हुनर के आगे क्या रिश्ते और क्या नाते...पल भर में बिखर जाते थे...औऱ यही हुआ उन दोनों दोस्तों के साथ भी...रेशमीबाई को लेकर दोनों इस क़दर ज़ज़्बाती हुए कि एक दूसरे की ही जान के दुश्मन बन गए...
और जब रेशमीबाई ने बेक़ाबू हालात क़ाबू में करने की कोशिश की...तो ग़ुस्से से लहराता एक ख़ंजर रेशमीबाई के ही शरीर में उतर गया..दरअसल, ये कहा जाता है कि दोनों दोस्तों की लड़ाई में रेशमी बीच-बचाव करने आ गई थी.....
वो चाहती थी कि दोनों में खून-खराबा ना हो,लेकिन हुआ इसके ठीक उलट, खून तो हुआ लेकिन उन दोनों दोस्तों में से किसी एक का भी नहीं, बल्कि रेशमी का,जिसका कोई कसूर नहीं था,अगर कोई कसूर था तो वो उसकी ख़ूबसूरती का,कसूर था तो उसकी दीवानगी और कसूर था कि उसकी लचकती कमर और बलखाती चाल का,
जिस पर वहांँ से सात कोस दूर रहने वाले तक भी खींचे चले आते थे, लेकिन आज उसी ख़ूबसूरती पर दो दोस्त ऐसे टूटे कि आपस में ही भिड़ गए और ख़ंजर रेशमी के सीने में घुस गया,वो ख़ंजर बहुत गहरा ज़ख़्म छोड़ गया था...ज़िंदगी की सांँसें उसकी टूटी हुई पायल के घुंघरुओं की तरह बिखरती जा रही थीं...मौत दस्तक दे चुकी थी...
और फिर उस दिन के बाद रेशमी के साथ ही नाच गाना मस्ती ठिठोली सब कुछ उसकी मौत के साथ ही खतम हो गया और ये मौत इस हवेली पर बहुत भारी पड़ी..वक़्त बीतता गया मगर उसकी यादें कभी धुंँधली नहीं पड़ीं...पड़ती भी कैसे...क्योंकि रेशमी ने तो इस हवेली को छोड़ा ही नहीं था, वो आज भी लोगों को नज़र आती है...मगर पहले की तरह गाती गुनगुनाती नहीं...बदहवास घूमती हुई...याद करती हुई उन सुनहरे दिनों की,जब एक महफ़िल उठती नहीं कि दूसरी सजाने को बेताब लोग वहां पहुंच जाते...फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि दो सौ साल पहले इस हवेली की ड्योढ़ी से निकला हर क़दम मस्ती से झूमता हुआ निकलता और आज उस हवेली के सामने से खौफ में होकर गुजरता है....
रेशमी उन दोनों में से विक्रम सिंह को चाहती थी और विक्रम सिंह भी उसे चाहता था...लेकिन धीरज सिंह को ये नामंजूर था और उस दिन धीरज सिंह ने विक्रम सिंह को मारने के लिए खंजर निकाला लेकिन बीच में रेशमीबाई आ गई और उसे तोहफें में मौत मिल गई.....
धनीराम काका अब अपनी कहानी खतम कर चुके थे और उनकी कहानी सुनकर सुकेतु और विक्रम आश्चर्यचकित थे लेकिन बाद में उन्होंने सोचा कि वें उस हवेली में जरूर जाकर रहेगें और रात को सबके सो जाने के बाद दोनों ने कार निकाली और चल पड़े उस हवेली की ओर....
वें उस हवेली के दरवाजे तक पहुँचे ही थे कि उसके दरवाजे अपनेआप खुल गए दोनों भीतर गए तो काफी अँधेरा था लेकिन एकाएक वहाँ रौशनी जगमगाने लगीं,वहाँ कई सारी शम़ा रौशन थी और साजिन्दे भी अपना अपना साज़ लेकर बैठें थें,तभी एकाएक वहाँ सुर्ख लाल सरारा पहनकर एक खूबसूरत सी तवायफ़ आई,उसे देखकर दोनों के मुँह खुले के खुले रह गए तब उससे सुकेतु ने पूछा....
कौन हैं आप?
तब वो बोली....
विक्रम साहब !आप मुझे नहीं जानते ,मैं रेशमीबाई और ये जो आपके साथ हैं ये आपके दोस्त धीरजसिंह हैं इन्होंने ही तो उस रात मेरा कत्ल किया था,कितने सालों से मैं आप दोनों का इन्तजार कर रही हूँ,आज जाकर मेरी ख्वाहिश पूरी हुई है....
ये सुनकर दोनों के होश उड़ गए और जलज डरते हुए बोला......
हमें जाने दीजिए,बहुत बड़ी गलती हो गई हमसे जो हम यहाँ आएं!
तब रेशमीबाई बोली....
ऐसे कैसें जाने दूँ हुजूर!एक मेरा आश़िक है और एक मेरा कात़िल,जो कात़िल हैं वो मरेगा और जो आश़िक हैं वो मेरे साथ हमेशा रहेगा.....
और फिर दूसरे दिन सुबह दोनों की लाशें उस भूतिया हवेली के पास लोगों को दिखाईं दीं.....

समाप्त.....
सरोज वर्मा....