ममता की परीक्षा - 91 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 91



सिलसिलेवार वृत्तांत बताते हुए चौधरी रामलाल भावुक हो उठे थे। आँखों से आँसुओं की बूंदें बस छलकने ही वाली थीं। माहौल गमगीन हो गया था। पूरा वृत्तांत सुनने की उत्सुकता वश अमर भी पास ही पड़े खटिये पर बैठ गया था। अपनी माँ साधना के विचार जानकर उसे बड़ी खुशी हुई थी। सेठ जमनादास भी भावुक नजर आ रहे थे, लेकिन उन्हें शायद सब कुछ जान लेने की जल्दी थी अतः रामलाल के कंधे पर हाथ रखकर उन्हें अपनेपन का अहसास कराते हुए पूछा, "अब आगे ? क्या हुआ साधना का ?"
रामलाल उनकी निगाहों में झाँकते हुए बोले, "होना क्या था ? मास्टर जी की मृत्यु के बाद साधना बिल्कुल टूट सी गई थी। उस पर तो दुःखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था। सिर से पिता का साया छिनने के साथ ही नवजात बच्चे के पालनपोषण व देखभाल की जिम्मेदारी उसके नाजुक कंधों पर आ गई थी। पड़ोस में हमारे घर के अलावा वह और किसी से बात भी करना नहीं पसंद करती थी। कई दिन तक वह अपने कमरे में ही बंद गुमसुम सी पड़ी रही, बेसुध, बदहवास सी।
कई बार नन्हे बच्चे के रोने की आवाज सुनकर जब बिरजू की माँ उसके पास जाकर देखती तो वह उसे बदहवास सी शून्य में निहारते हुए पाती। इस सदमे से उबरने में उसे कई महीने लग गए। अब तक उसके पास की जमापूँजी लगभग समाप्त हो चुकी थी। स्कूलों की छुट्टियाँ समाप्त हो रही थीं। नन्हा अमर धीरे धीरे बड़ा हो रहा था। अब वह इतना बड़ा हो चुका था कि साधना उसे कुछ देर के लिए अकेले छोड़ कर रह सकती थी। बाबूजी की सिफारिश पर साधना को स्कूल में मास्टर जी की जगह पढ़ाने की नौकरी मिल गई। ऐसा लगा कि अब सब कुछ सही हो गया है।
साधना भी अब अपने बाबूजी के गम को आत्मसात करके अपनी जिंदगी के जद्दोजहद में मशगूल हो गई लेकिन कहते हैं न कि जिंदगी हमेशा एक सी नहीं रहती ....वैसा ही कुछ साधना के साथ भी हुआ। देखते ही देखते पाँच वर्ष बीत गए थे मास्टर जी को गुजरे हुए कि अचानक एक दिन साधना की शांत जिंदगी में एक बार फिर काले डरावने बादल घिर आए थे। उस दिन ....." कहते हुए रामलाल शून्य में देखता हुआ फिर कहीं खो सा गया और उसके जुबान चलते रहे...

"....शाम का धुँधलका गहरा गया था। साधना स्कूल से आकर भोजन वगैरह की तैयारी में व्यस्त हो गई। पाँच वर्षीय नन्हा अमर बाहर बच्चों के साथ खेल रहा था। सिरदर्द से परेशान परबतिया काकी को बच्चों का शोरगुल काफी अखर रहा था लेकिन वह अमर से बड़ा स्नेह करती थी इसलिए जैसे ही उसका मन बच्चों को डपटने व शांत रहने के लिए कहने का होता अमर का ख्याल कर के वह चुप रह जाती।
पर बच्चे तो बच्चे ही ठहरे, उन्हें किसी की परेशानी या सिरदर्द से भला क्या लेना देना। उनका भागमभाग व चीखपुकार बदस्तूर जारी रहा। अँधेरा घना हो गया था उसपर बिजली भी नहीं आई थी अभी तक। परबतिया से नहीं रहा गया। अमर की शिकायत करने की गरज से वह हाथ में डंडा लेकर खटखटाते हुए साधना के घर में घुसने जा ही रही थी कि अस्तव्यस्त कपड़ों में साधना बदहवास सी भागती हुई दरवाजे से बाहर निकली और उसे देखते ही उससे लिपटकर फूटफूटकर रो पड़ी। परबतिया कुछ समझ भी नहीं पाई थी कि तभी उसकी नजर एक साये पर पड़ी जो दरवाजे से निकलकर बाहर अँधेरे में कहीं गुम हो गया। उसने गमछे से अपना चेहरा अच्छी तरह ढँक रखा था सो परबतिया उसे पहचान नहीं सकी लेकिन उसकी अनुभवी आँखों ने सारी हकीकत समझ लिया था सो उसने साधना को गले से लगाकर कसकर अपने सीने से भींच लिया और उसकी पीठ पर हाथ फेरकर उसे सांत्वना देने लगी।

उसके रोने की आवाज सुनकर पड़ोस की कुछ महिलाएं भी जमा हो गईं। कुछ देर तक सिसकने के बाद साधना थोड़ी संयत हुई। अपने अस्तव्यस्त कपड़े सँभालते हुए उसने बताया कि ऑंगन में चुल्हे पर खाना बनाते हुए वह कुछ लेने के लिए जैसे ही पीछे वाले कमरे में घुसी, किसी ने एक दम से उसके ऊपर झपट्टा मार कर उसे नीचे गिरा दिया। उसका मजबूत पंजा उसके मुँह पर कसकर भिंचा हुआ था। वह पुरजोर कोशिश करके भी चीख नहीं सकी।

उसके भारीभरकम जिस्म के बोझ तले दबी वह उसके चंगुल से छूटने के लिए अभी प्रयास कर ही रही थी कि लाठी की ठकठक की आवाज सुनकर उसके कान खड़े हो गए। आवाज प्रतिक्षण उन्हीं की तरफ बढ़ती हुई प्रतीत हो रही थी। आवाज पर ध्यान देने के क्रम में उस साये की पकड़ साधना के जिस्म पर थोड़ी ढीली पड़ गई और इसी मौके का लाभ उठाकर वह उसे अपने ऊपर से धकेलकर बाहर की तरफ दौड़ पड़ी और सामने ही परबतिया काकी उसे दिख गई।

उसके मुँह से सारी बात सुनकर महिलाओं में खुसर फुसर शुरू हो गई और सभी आपस में बातें करते हुए चली गईं जबकि परबतिया उसे कंधे से पकड़कर उसके सहारे चलते हुए उसे हौसला देते हुए अपने घर पर आ गई।

परबतिया ने पूछा, "कौन था वो ? क्या तू उसे पहचान पाई ?"
साधना ने ना में सिर हिला दिया और बोली, "वह कुछ बोला भी तो नहीं ! अगर उसकी आवाज निकली होती तो मैं उसी के सहारे उसे पहचानने की कोशिश भी करती। छीनाझपटी में एकबार गमछा उसके मुख से हट भी गया था लेकिन एक तो घना अँधेरा और उसपर मेरा सारा ध्यान खुद को बचाने में लगा था सो उसके चेहरे की तरफ ध्यान नहीं दे पाई। लेकिन काकी ईश्वर बड़ा दयालु है जो उसने समय रहते तुम्हें मेरे पास भेज दिया। यकीन मानो अगर तुम समय पर न आ जाती तो आज मैं किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं बचती।"
कहने के बाद साधना एक बार फिर बिलख पड़ी।

अमर अभी भी बच्चों के साथ खेलने में व्यस्त था। साधना के रोने की आवाज सुनकर नन्हा अमर भागता हुआ आया ,"मम्मी ! क्या हुआ है ? तुम रो क्यों रही हो ?"
बोलने के बाद एक पल वह कुछ सोचता रहा और फिर बोला, "किसी ने मारा क्या ?"
और फिर स्वतः ही बड़बड़ाने लगा, "अच्छा, समझ गया ! मैं शोर मचाकर खेल रहा था न, लगता है नानी ने मेरी शिकायत मम्मी से कर दी है इसलिए वह रो रही है।"
फिर कान पकड़ते हुए धीरे से बोला, "मम्मी ! मैं प्रॉमिस करता हूँ, अब आगे से आपको और नानी को भी परेशान नहीं करूँगा। पक्का प्रॉमिस !"

उसकी बालसुलभ हरकत देखकर और बातें सुनकर साधना रोते हुए भी हँस पड़ी और उसे खींचकर अपने सीने से लगाते हुए बोली, "अरे नहीं मेरे राजा बेटा ! नानी ने आपकी कोई शिकायत नहीं की है। आप तो राजा बेटा हो, सबके दुलारे हो, सब आपसे कितना खुश रहते हैं,आपसे कितना प्यार करते हैं। फिर आपकी शिकायत कोई क्यों करेगा ?"

"अच्छा !.. तो फिर आप रो क्यों रही थीं ?" अमर ने बड़ी मासूमियत से पूछा।

साधना उसे कैसे बताती, उस पर क्या बीती थी लेकिन अमर की बालसुलभ जिज्ञासा भी तो उसे शांत करनी थी। उसे पता था कि बिना संतुष्ट हुए अमर खामोश नहीं रहेगा।

प्यार से उसके बालों में उँगली फेरते हुए उसपर ममता लुटाती हुई वह बोली, "बेटा ! वो क्या है न कि आज मेरी तबियत कुछ सही नहीं थी। बड़े जोरों का सिरदर्द था इसलिए आँखों में आँसू आ गए, लेकिन अब तुम सामने आ गए हो न बेटा , देखो ! मेरा सिरदर्द अचानक गायब हो गया है। देखो ,अब मैं रो भी नहीं रही हूँ।"

उसके सीने में दुबकते हुए अमर बोल पड़ा, "फिर ठीक है।"
अमर को साथ लेकर साधना अपने घर की चल दी।

क्रमशः