अपनी बात पर साधना दृढ़ नजर आ रही थी।
चौधरी श्यामलाल को उसकी हिमाकत भली नहीं लग रही थी लेकिन मौके की नजाकत से वो भलीभाँति परिचित थे सो प्यार से साधना को समझाते हुए बोले, "बिटिया, तुम सही कह रही हो कि तुम्हारे पापा ने कभी बेटी और बेटे में कोई फर्क नहीं किया और उनकी यही कुछ आदतें हैं जो उन्हें विशेष बनाती थीं और वो हमारे भी आदर्श थे। हम भी यही मानते हैं कि बेटी और बेटे में कोई फर्क नहीं होना चाहिए लेकिन सवाल यहाँ संस्कारों व उनसे जुड़े सरोकारों का है और हमारे संस्कार व हमारी संस्कृति यह इजाजत नहीं देती कि कोई महिला किसी स्मशान भूमि की रज को स्पर्श भी करे, फिर वह चाहे दिवंगत आत्मा की बेटी ही क्यों न हो ?"
कहने के बाद चौधरी श्यामलाल एक पल को रुके और साधना के चेहरे के भावों को सूक्ष्मता से पढ़ने का प्रयास करने लगे। आगे वह कुछ कहने ही वाले थे कि साधना धीरे से बोल पड़ी, "चाचा, संस्कार और संस्कृति का मुझे इतना ज्यादा ज्ञान तो नहीं है लेकिन आपकी बात से सहमत हूँ कि हमारी सभ्यता व संस्कृति में महिलाओं को स्मशान तक जाने की इजाजत नहीं है... लेकिन चाचा ! क्या मैं ये पूछ सकती हूँ कि जब हमारी सभ्यता में सूर्यास्त के बाद कोई दाहसंस्कार नहीं किया जाना चाहिए तो बाबूजी के दाहसंस्कार की इतनी जल्दी क्यों है ?"
कुछ पल की खामोशी के बाद साधना ने श्यामलाल पर नजरें गड़ाए हुए ही बोलना जारी रखा, "वो मैं बताती हूँ चाचा ! इंसान समय समय पर अपने अनुभवों व आवश्यकताओं के अनुसार इन रीति रिवाजों को तोड़ता रहा है और अपनी अपनी सुविधाओं के अनुसार सरल बनाने का प्रयास करता रहा है लेकिन ये रीति रिवाज चाहे जितने भी तोड़े जाएँ, हमारे संस्कार इनसे अछूते ही रहते हैं। रीति रिवाज और संस्कार दो अलग अलग चीजें हैं। इतिहास गवाह है कि हम सनातन धर्मियों ने समय समय पर अपनी गलतियों व कमियों को न सिर्फ महसूस किया है बल्कि उनमें बदलाव भी किया है। बाल विवाह व सती प्रथा का बंद होना हमारी इसी जागरूकता के सफलता की कहानी कहती हैं। इन प्रथाओं के बंद होने से तो हमारा संस्कार नहीं प्रभावित हुआ था। कुप्रथाओं व भेदभाव को बढ़ावा देने वाले रीति रिवाजों को संस्कार व सभ्यता की दुहाई देकर हम कब तक ढोते रहेंगे ?"
साधना एक पल साँस लेने के लिए रुकी। पूरी भीड़ शांति से उसकी बात सुन रही थी।
पंडित रामसनेही कुछ नाराज से नजर आ रहे थे और मन ही मन शायद अस्पष्ट लफ्जों में कुढ़ भी रहे थे।
वह साधना की बातों से बिल्कुल भी सहमत नहीं थे। उनका जी चाह रहा था कि अभी साधना को उसकी बातों का मुँहतोड़ जवाब दिया जाए, लेकिन उसपर टूट पड़े दुःखों के पहाड़ और उसकी अवस्था का ख्याल कर वह खामोश ही रहे।
पंडितजी की खामोशी के बाद अब मोर्चा सँभाल लिया था चौधरी श्यामलाल ने, "बिटिया ! कहा तो तुमने सब सही है। हम भी जानते हैं और इस बात को पंडितजी भी मानेंगे कि समय समय पर असुविधाजनक रीति रिवाजों को बदला जाता रहा है। सूर्यास्त के बाद हमारे धर्म में दाहकर्म नहीं किये जाते, मैं तुम्हारे इस कथन से पूरी तरह सहमत हूँ लेकिन तुमने ये जो पूछा है कि मास्टर जी के दाहसंस्कार की इतनी जल्दी क्या है ? तो मैं उसके बारे में तुम्हें कुछ बताना चाहता हूँ।
बिटिया, उन दिनों तुम शायद शहर गई हुई थीं पढ़ने के लिए जब पड़ोसी गाँव के ठाकुर भानुसिंह का स्वर्गवास हुआ था। आसपास के सारे गाँव के लोग उनकी ड्योढ़ी पर जमा हो गए थे। मास्टरजी के साथ मैं भी उनके अंतिम दर्शन को गया हुआ था। दिनभर लोगों का ताँता लगा रहा और शाम को उनकी अर्थी एक वाहन पर लादकर उनकी अंतिम इच्छा के मुताबिक यहाँ से सौ किलोमीटर दूर गंगा के किनारे ले जाया गया जहाँ विधिवत उनका अंतिम संस्कार किया गया था।
उसी समय तुम्हारे बाबूजी ने मुझसे वचन लिया था कि 'चौधरी ! बिटिया उस समय पता नहीं किस स्थिति में होगी जब मैं यह देहत्याग करुँगा और उससे कह भी नहीं सकता। मुझसे वादा करो कि जब मेरी मृत्यु हो तो मेरा पार्थिव शरीर जलाकर नष्ट कर दिए जाने की बजाय गंगा मैया में प्रवाहित कर दिया जाय।' अपने इस कथन व फैसले के तर्क में उन्होंने मुझसे बहुत बहस की थी और तब मुझे उनसे यह वादा करना पड़ा था कि उनकी अंतिम इच्छा अवश्य पूरी की जाएगी ..!"
तभी भीड़ को चीरता हुआ एक युवक आया और चौधरी श्यामलाल से मुखातिब होते हुए बोला, "चौधरी काका ! मन्नुआ अपनी जीप लेकर आ गया है। नुक्कड़ पर खड़ी है। अब और देर न कीजिये। बहुत दूर जाना है।"
लेकिन उसकी बात को अनसुना करते हुए चौधरी श्यामलाल ने साधना को समझाना जारी रखा, "बिटिया ! इसीलिये सब सोच समझकर मैंने मास्टर जी की अंतिम इच्छा को ध्यान में रखकर इसी समय निकलने की योजना बनाई है। अभी रात के लगभग दस बज रहे हैं। अब से भी पिंडदान वगैरह की विधियाँ पूरी करते करते एकाध घंटे लग ही जायेंगे। गंगा का किनारा यहीं नहीं है। अब से भी निकलेंगे तो वहाँ तक पहुँचते पहुँचते भोर हो ही जाएगी।"
अब साधना निःशब्द थी।
पंडित रामसनेही अभी भी परेशान नजर आ रहे थे। इशारे से श्यामलाल को करीब बुलाया और बोले, "चौधरी जी, माना कि मास्टर जी का दाहकर्म नहीं किया जाना है सो अब मुखाग्नि कौन देगा यह सवाल ही नहीं पैदा होता, लेकिन पिंडदान ? पिंडदान कौन देगा ? पिंडदान देने का हक भी तो पुरुष उत्तराधिकारी को ही है।"
अब साधना से रहा नहीं गया। वह कुछ कहने ही वाली थी कि तभी श्यामलाल जी बोले, "गुरुजी ! अब इस धर्मसंकट से तो आप ही बाहर निकाल सकते हैं। आप जानते ही हैं कि मास्टर जी की इकलौती बिटिया है साधना बिटिया ! आप जो कहें ....किया जाएगा।"
"तो फिर ठीक है। मैं रास्ता बताता हूँ। सदियों से चली आ रही परंपरा के अनुसार कुलदीपक ही पिंडदान जैसे पवित्र व विशेष कार्य को अंजाम देकर अपने पित्तरों को तृप्त करता है। इसके पीछे मंशा होती है कि अनंत में विलीन हमारे पुरखों की आत्मा तृप्ति महसूस करे और खुश होकर अपने वंशजों को आशीर्वाद प्रदान करे, लेकिन जिनके वंशवेल की ही वृद्धि नहीं हुई हो ऐसे लोगों के लिए यही प्रावधान किया गया है कि उनके ही कुल का निकटम पुरुष जातक यह कर्मकांड कर सकता है।" समझाने के बाद पंडित राम सनेही साँस लेने के लिए रुके ही थे कि श्यामलाल अधीरता से बोले, "गुरुजी, इतना ज्ञान तो हम सबको है। आप कृपा करके ये बताइये कि आगे अब हमें क्या करना चाहिए जब निकटतम पुरुष जातक कोई नहीं है।"
पंडितजी बोले, "हमारा धर्म बहुत ही व्यापक है, विस्तृत है लेकिन साथ ही बहुत उदार भी है। ऐसी स्थिति में जब कोई उत्तराधिकारी न हो तो कोई भी पुरुष जातक श्रद्धा पूर्वक स्वेच्छा से संकल्प लेकर यह कर्मकांड कर सकता है। मैं साधना बिटिया के भावना की कद्र करता हूँ नारी सशक्तिकरण व महिलाओं के समान अधिकार का भी पक्षधर हूँ लेकिन चूँकि यह धर्म व आस्था का विषय है, मैं चाहूँगा कि ये सारे कर्मकांड साधना बिटिया अपने नन्हें बेटे को गोद में लेकर उसके हाथों सम्पन्न कराए। आगे आप लोग जैसा कहें।" कहकर पंडित रामसनेही खामोश हो गए और समीप ही रखी थाली में चावल के आटे और काली तिल को मिलाकर गोल गोल लड्डू नुमा पिंड बनाने लगे।
क्रमशः