ममता की परीक्षा - 89 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 89



आगे पूरे रास्तेभर भोला खामोशी से डॉक्टर बलराम सिंह के साथ चलता रहा। आगे आगे चल रहा ग्रामीण कुछ तेज कदमों से चल रहा था जबकि भोला डॉक्टर के साथ बने रहने के लिए अपेक्षाकृत धीमी गति से चल रहा था।

डिस्पेंसरी पर पहुँच कर डॉक्टर साहब ने शहर के अस्पताल के नाम एक सिफारिशी पत्र लिख दिया जिसमें मास्टर जी की तबियत के बारे में अपना मंतव्य भी व्यक्त करके आगे के इलाज के लिए उनसे आग्रह किया था। साथ आया वह ग्रामीण युवक डॉक्टर को धन्यवाद देकर उनसे वह पर्ची लेकर मास्टर के घर पर वापस पहुँचा।

यहाँ अभी भी सभी ग्रामीण मास्टर साहब की खटिये को चारों तरफ से घेरे हुए खड़े थे और उन्हें शहर ले जाने के लिए डॉक्टर की सिफारिशी चिट्ठी की राह देख रहे थे।

अँधेरा गहरा गया था और अब चीजें अस्पष्ट होने लगी थीं लेकिन फिर भी किसी को यह सुध न था कि उठकर दीया बाती कर ले। मास्टर रामकिशुन खटिये पर निश्चेष्ट पड़े हुए थे। चौधरी श्यामलाल की आँखें डबडबा गई थीं और वह मास्टर के बालों में हाथ फेरते हुए उन्हें भरसक जगाने का प्रयास कर रहे थे जबकि मास्टर रामकिशुन उनींदी अवस्था में पूर्ववत बने हुए थे। श्यामलाल के पुचकारने पर आँखें खोलने का प्रयास करते और फिर असफल होकर निढाल पड़ जाते।

बड़ी देर तक श्यामलाल जी यही प्रयास करते रहे।

"चलिए, हटिये बाबूजी ! डॉक्टर साहब ने कहा है देर करना ठीक नहीं। जल्द से जल्द हमें शहर के अस्पताल पहुँचना है।" कहते हुए रामलाल सहित चार युवक श्यामलाल को परे हटाकर मास्टर जी को खटिये सहित उठाने के लिए आगे बढ़े ही थे कि तभी अचानक मास्टर जी ने एक हाथ उठाया।

हाथों का कंपन देखकर सहज अनुमान लगाया जा सकता था कि उन्हें कितनी तकलीफ हो रही है। ऐसा लगा जैसे वह कुछ इशारा करना चाह रहे हों, कुछ बोलना चाह रहे हों, लेकिन शायद जबान उनका साथ नहीं दे पा रही थी।

श्यामलाल की निगाहें उनकी हर हरकत पर बनी हुई थी। उनके इशारे पर लड़के रुक गए थे। बड़े प्रयास के बाद मास्टर के मुँह से अस्पष्ट सा निकला, "..….स ....सा ...!"

बगल में ही महिलाओं की भीड़ से घिरी साधना भीड़ को चीरती हुई मास्टर के समीप पहुँच गई और बड़े ही मार्मिक स्वर में 'बाबूजी ' कहकर बिलख पड़ी।
मास्टर के चेहरे पर कई भाव आए और गए लेकिन वह अपनी पलकें न खोल सके और फिर अचानक उनका उठा हुआ हाथ एक झटके से नीचे गिर पड़ा।

साधना की हृदयविदारक चीख ने सभी को चौंका दिया, दिल दहल गया। परबतिया सहित कुछ और औरतें आगे बढ़ आई साधना को सहारा देने के लिए जबकि श्यामलाल बार बार मास्टर के गालों को थपथपाकर उन्हें जगाने का प्रयास कर रहे थे। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि उनका मित्र अब उन्हें छोड़कर जा चुका है। उनके निर्जीव हाथों को उठाते, हथेलियों को रगड़ते और फिर मायूस होकर गालों को थपथपाने लगते।

साधना के हटते ही श्यामलाल अपना संयम खो बैठे और मास्टर के निर्जीव शरीर से लिपटकर अबोध बच्चों की तरह बिलख पड़े। रामलाल सहित सभी ग्रामीणों की आंखें नम हो गईं। ग्रामीणों के कंधे पर रखे गमछे अब रुमाल का काम कर रहे थे। घने अँधेरे के साथ ही मास्टर के दरवाजे पर ग्रामीणों की भीड़ भी घनी होती गई। महिलाओं का समवेत दारुण क्रंदन माहौल की गमगिनी में इजाफा कर रहा था। मास्टर रामकिशुन के निधन की खबर जंगल के आग की तरह आसपास के गाँवों में भी फैल गई। पूर क्षेत्र में शोक की लहर फैल गई।

आसपास के गाँवों के बच्चे भी मास्टर रामकिशुन के यहाँ ट्यूशन पढ़ने आते थे जिनमें गरीब बच्चों की संख्या अधिक होती थी। ऐसे गरीब बच्चों को वह मुफ्त शिक्षा देते थे। मेधावी छात्रों की हरसंभव मदद भी करते थे। उनकी यही सदाशयता उन्हें पूरे क्षेत्र में काफी लोकप्रिय व सम्माननीय बनाती थी।
मास्टर रामकिशुन का पार्थिव शरीर अब खटिये पर से उठाकर जमीन पर एक चटाई पर धर दिया गया था। चटाई पर पहले ही एक दरी बिछा दी गई थी। सिर उत्तर दिशा की तरफ रहे इसका विशेष ध्यान रखा गया था। सिरहाने गोबर के उपले सुलगा कर रख दिया गया जिससे धुँआ निकल रहा था। एक दूसरे उपले में खोंसकर ढेर सारी अगरबत्ती भी रामलाल ने सुलगा दिया था। गाँव के अन्य बड़े बुजुर्ग श्यामलाल को संभालते हुए उन्हें ढाढस बँधा रहे थे। उन्हें चुप कराते हुए वो खुद भी बिलख पड़ते।
कुछ देर के दारुण रुदन के बाद गाँव के बड़े बुजुर्गों ने अब मोर्चा सँभाला। श्यामलाल को सांत्वना देते हुए उनसे अंत्येष्टि का विधान आगे बढ़ाने का आग्रह किया। परबतिया ने नन्हें अमर को पहले ही वहाँ से हटाकर अपने घर में सुला दिया था ताकि यहाँ के शोरगुल से उसकी नींद न उचट जाए और साथ ही साधना को समझा बुझाकर उसे सांत्वना देने का प्रयास करने लगी। महिलाओं के घेरे में बैठी साधना सूनी आँखों से ग्रामीणों को मास्टर के अंत्येष्टि की तैयारी करते हुए देखती रही।

समय अपनी गति से गुजरता रहा। रात के नौ बज चुके थे जब ग्रामीणों ने पूरे विधिविधान से मास्टर रामकिशुन की अर्थी सजाने का कार्य पूरा कर लिया था।

पंडित रामसनेही भी खबर पाते ही बहुत पहले ही आ चुके थे। श्यामलाल अब तक खुद को सँभाल चुके थे। क्रियाकर्म के लिए आवश्यक वस्तुओं का इंतजाम उनके निर्देश पर रामलाल कर रहा था। हाथ में कुश लिए हुए पंडित जी मास्टर की अर्थी के समीप बैठ गए। ग्रामीणों की भारी भीड़ उनके इर्दगिर्द घेरा बनाये हुए खड़ी थी।

काली तिल मिली चावल के आटे का गोल पिंड बनाते हुए पंडितजी ने श्यामलाल से पूछा, "चौधरी साहब ! मास्टर साहब के कोई पुत्र तो है नहीं फिर उनका अंतिम संस्कार और दग्ध क्रिया कौन करेगा ?"

चौधरी श्यामलाल भी एक पल कुछ सोचते रहे फिर बोले, "सही कह रहे हैं आप पंडित जी ! अब आप ही कोई रास्ता निकालिए। धर्म के बारे में आपसे ज्यादा कौन जान पायेगा ?"

कुछ पल सोचने के बाद पंडित रामसनेही बोले, "मास्टर जी का कोई पुत्र नहीं है तो ऐसी स्थिति में उनका खून का रिश्तेदार कोई भी पुरुष उनका अंतिम संस्कार कर सकता है और जहाँ तक मैं समझता हूँ मास्टर साहब के खून के रिश्तेदारों में भी कोई पुरुष नहीं सिवाय उनके एक महीने के नवासे के। ऐसी स्थिति में ........!." पंडितजी का वाक्य अधूरा ही रह गया था।

वजह थी अचानक साधना का वहाँ आ जाना और बोलना, "पंडित जी ! कैसी बातें आप कर रहे हैं ? माना कि यदि पुत्र हो तो अंतिम संस्कार करने की जिम्मेदारी हमारे समाज ने पुत्र को ही दी है लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं कि जिनके कोई पुत्र न हो या कोई संतान ही न हो उसका विधिवत अंतिम संस्कार ही नहीं हो सकता ?"

चौधरी श्यामलाल के तेवर अचानक बदल गए थे। नागवारी के भाव चेहरे पर उभर आया था उनके। फिर भी परिस्थिति को देखते हुए प्यार से बोले, " साधना बिटिया ! तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए, हम सब लोग हैं न ! सारा काम पूरे विधिविधान से किया जाएगा।"

साधना एक बार फिर फफक पड़ी ,"चौधरी चाचा ! बाबूजी जब तक जिंदा रहे कभी मुझे उन्होंने किसी बेटे से कम होने का अहसास नहीं होने दिया और अब उनके जाते ही ....….!"
कहते हुए वह अपनी रुलाई नहीं रोक पाई।

कुछ देर के बाद अपने आँसू पोंछते हुए बोली, " चाचा ! मैं चाहती हूँ कि मैं उनकी संतान होने का अपना दायित्व पूरा करूँ और इसलिए मैंने फैसला किया है कि बाबूजी को मुखाग्नि मैं ही दूँगी !"

क्रमशः