ममता की परीक्षा - 92 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 92



उस दिन के हादसे के बाद मानसिक रूप से उबरने में साधना को कई दिन लग गए। उसकी हालत अर्धविक्षिप्तों जैसी हो गई थी। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि जहाँ वह पैदा हुई, पली बढ़ी, सभी बड़ों का यथोचित सत्कार किया, वहाँ ऐसा भी कोई नराधम होगा जो उसपर बुरी नजर डाल सकता है ?
आते जाते अब किसी भी पुरुष के नजदीक आने की आहट भी उसे चौंका देती और उसका दिल जोरों से धड़कने लगता। पल भर में उसकी अवस्था ऐसी हो जाती मानो वह मिलों दौड़ कर आई हो। पूरा जिस्म पसीने पसीने हो जाता,सांसें धौंकनी की माफिक चलने लगतीं। अब वह अक्सर दूसरों से दूरी बनाकर रखने लगी थी। चौधरी काका और उनके परिवार के सदस्यों के अलावा वह किसी से बात भी नहीं करती।

अपने इसी बदलाव के चलते अब वह स्कूल से वापस आते हुए गाँव के बीच से होकर जानेवाले रास्ते की बजाय खेतों के बीच की पगडंडियों से होकर गुजरती ताकि किसी का सामना न करना पड़े। उस दिन भी वह स्कूल से खेतों के रास्ते वापस आ रही थी। शाम के पाँच बज कर कुछ मिनट हुए थे। सूर्य पश्चिम में अस्ताचलगामी था। अरहर के खेतों के किनारे अंदर की तरफ वाली मेंड़ों पर कुछ ग्रामीण महिलाएं अपनी खुरपी से घास छिल रही थीं और आपस में जोर जोर से बातें भी कर रही थीं। बातें करते हुए भी सभी अपने काम में मग्न थीं। उनके हाथ किसी अभ्यस्त की तरह बराबर अपना काम कर रहे थे। उनके नजदीक से गुजरती हुई साधना उनके मुँह से अपना नाम सुनकर चौंक गई। कौन हैं ये महिलाएँ ? और उसका नाम लेकर क्या चर्चा हो रही है ? सुनने के लिए वह कुछ देर पगडंडी पर ही रुक गई।

उन ग्रामीण महिलाओं में से एक ने कहा, "अरे ललिया की अम्मा ! उस दिन का हुआ कुछ पता भी है ? बड़ा गजब हुई गवा। कुच्छु कहने में भी लाज आ रही है। छि ...राम राम ! अब इ गाँव तो शरीफ़ों के रहने लायक बचा ही नहीं। शहर की गंदगी इहाँ तक जो आ गई है।"

समीप ही घास छिल रही ललिया की अम्मा से रहा नहीं गया सो अधीरता से बोल ही पड़ी, "लछमी की अम्मा ! अब आगे बताएगी भी की ऐसेहिं पहेलियाँ बुझाते रहेगी। ऐसा का हो गवा की तोहें इतनी लाज आ रही है।"
"अरे ललिया की अम्मा ! कुछ न पूछो। उ अपने मास्टर बाबू थे न.. वही मास्टर रामकिशुन जी। उनकी एक्कै तो बिटिया है, शायद साधना नाम है उसका।" लछमी की अम्मी ने बात आगे बढ़ाई, "सुना है पड़ोस के शहर में पढ़ाई करने गई थी और पीछे पीछे उसका आशिक आ गया गाँव में, लेकिन अपने मास्टर जी तो ठहरे शरीफ आदमी सो अपनी इज्जत बचावण की खातिर उस शहरी लड़के का अपनी बिटिया से ब्याह रचाय दिए। पर तुम समझ सकती हो, इ शहरी लोगन का ब्याह स्याह से का करना है। जब तक मन किया मजा किया उ मास्टर की बिटिया के संग और फिर जब उ पेट से हो गई वो शहरी बाबू कउनो बहाना बनाकर भाग गया। अब उ लड़की एक लड़के की अम्मा बन गई है अउर वहीं मास्टर जी के घर में ही रहती है।"

ललिया की अम्मा खुरपी से छिली हुई घास को पीटते हुए बोली, "तो ई मां गाँव वालों पर ऐसी कौन सी आफत आ गई जो तुम इतना परेशान हो रही हो और लाज भी लग रही है। अरे जुग जमाना बदल रहा है लछमी की अम्मा ! अब तो ई जमाना आ गया है कि मियाँ बीबी राजी तो का करेगा काजी।" कहते हुए वह हँस पड़ी।

" ना जी, सुनो तो ! वही तो बता रहे हैं कि का गजब होय गवा। अभी थोड़े ही दिन पहले कउनो मरद उ मास्टर की बिटिया के घर में घुस गया था रात के अँधेरे में। सुनने में आ रहा है कि ऊ मरद और इ कुलच्छीनी दुनो घर में थे कि तभी पड़ोस की कउनो औरत इनके घर में गई और उ मरद अँधेरे का फायदा उठाकर मुँह छिपाकर भाग गया और ई मास्टर की बिटिया बन गई सती सावित्री। ऐसा नाटक करी है कि जैसे उ मरद इसकी मर्जी के बिना घर में घुस गया था आउर इ बेचारी की इज्जत बच गई। बेचारा मरद उ पता नहीं कौन था लेकिन जो भी रहा हो अगर कहीं गाँव वालन के हाथ में पड़ जाता तो बेमौत ही मारा जाता न इस कुलच्छीनी के फेर में।" कहते हुए लछमी के अम्मी की आवाज तेज हो गई थी।

"इ तो बड़ी गंभीर बात है लछमी की अम्मा ! बड़े बूढ़े सही कहत हैं कि घोर कलयुग आ गया है। शहर में रही है मास्टर की बिटिया तो उसके लिए तो ई कउनो बड़ी बात नाहीं लेकिन अपने गाँव के लिए ई जरूर चिंता की बात है आउर शरम की भी। तू हमें पहले काहें नाहीं बताई की ऐसी बात है। हम आज ही अपने गाँव के परधान जी से कहेंगे कि ऊ चौधरी से मुलाकात करें आउर हम लोग की शिकायत उ कुलच्छीनी के पास दर्ज करें। अपने गाँव में हम लोग ई शहर की गंदगी नाहीं फैलने देंगे। कह देंगे उ मास्टर की बिटिया से की जवानी नहीं संभाली जा रही तो शहर में जाके मुँह काला करे, इहाँ गाँव के मरदन को ना खराब करे।" कहते हुए ललिया की अम्मा भी खासी उत्तेजित हो गई थी।

दोनों इस बात से बेखबर थीं कि वहीं समीप ही पगडंडी पर खड़ी साधना उनकी एक एक बात सुन रही थी। दोनों ग्रामीण महिलाएं आपस में इसी तरह बात करती हुई घास छिले जा रही थीं। दोनों अरहर के खेतों के पीछे वाली मेंड़ों पर घास छिल रही थीं इसलिए पगडंडी से आते जाते लोग उनकी नजर से दूर थे।

साधना के पाँव जड़ हो गए थे। ऐसा लग रहा था जैसे पैरों में टनों वजनी जंजीर पड़ गए हों। उन महिलाओं की बात सुनकर उसका अंग प्रत्यंग क्रोध से जल रहा था और आवेश के मारे काँप रहा था। साथ ही वह बहुत दुःखी भी थी उन महिलाओं की बात सुनकर। अपने बारे में गाँव में उड़ रही अफवाह सुनकर वह सन्न रह गई थी। चाहकर भी कुछ कहने के लिए उसकी जुबान नहीं खुल पाई। क्या कहती ? कुछ बोलकर उनका मुँह तो बंद करा देती लेकिन गाँव भर में किस किसका मुँह बंद करा सकती है ? सोचकर ही उसके पसीने निकल गए।

कुछ पल रुकने के बाद जिस्म की सारी शक्ति निचोड़कर उसने कदम उठाए और किसी तरह घर तक पहुँची। दरवाजा उढका हुआ था और नन्हा अमर चौधरी श्यामलाल के घर के सामने अन्य हमउम्र बच्चों के साथ खेल रहा था। साधना पर नजर पड़ते ही वह 'मम्मी आ गई ....मम्मी आ गई ' चिल्लाता हुआ भागकर उसके पास आ गया। दरवाजे को अंदर की तरफ ठेलकर साधना अमर को गोदी में उठाकर बेतहाशा प्यार करने लगी और फिर वहीं निकट ही पड़ी खटिये पर बैठकर बिलख पड़ी। उन ग्रामीण महिलाओं की बातें अभी भी उसके कानों में गूँज रही थीं। वह बस रोये जा रही थी और नन्हा अमर उसे टुकुर टुकुर बस देखे जा रहा था।

बड़ी देर तक यही क्रम चलता रहा। अब अमर से नहीं रहा जा रहा था। अपनी माँ को रोते देखकर बड़ी देर तक तक वह यह समझने की कोशिश करता रहा कि आखिर उसकी माँ क्यों रो रही है ? और जब नहीं समझ पाया तो अपने नन्हें हाथों से साधना के आँसू पोंछते हुए बोला, "मम्मी क्या हुआ है ? क्यों रो रही हो ? मत रोओ, बस मुझे बड़ा हो जाने दो। तुम्हें रुलानेवाले को मैं सजा दूँगा। अब चुप हो जाओ। तुम मेरी अच्छी मम्मी हो न ....." अंतिम वाक्य उसने इस तरह कहा कि रोती हुई साधना भी उसके इस भोलेपन पर मुस्कुरा उठी।

उसके होठों व गालों पर चुम्बनों की बौछार करके उसे पुचकारती हुई बोली, "हाँ बेटा ! तू पहले बड़ा हो जा, फिर तुझे बताऊँगी मुझे किसने रुलाया है।"
अमर को गोदी से उतारकर उसने अंदर रसोई में देखा, सुबह का थोड़ा भोजन बचा हुआ था। अमर खा लेगा यह सोचकर वह वापस आकर खटिये पर बैठ गई और शून्य में देखते हुए कुछ सोचने लगी।

बड़ी देर तक सोचने के बाद उसने कुछ निश्चय किया। घर में से एक कॉपी में से एक पन्ना निकालकर उसपर कुछ लिखा और उसे वहीं दरवाजे की चौखट पर एक छोटे पत्थर से दबाकर रख दिया, और फिर अमर को वही बासी खाना खिलाकर घर से बाहर उसी खटिये पर सो गई। अमर पहले ही नींद की आगोश में पहुँच चुका था।

सुबह भोर होने से पहले जब मुर्गे की बाँग सुनाई दी साधना की नींद खुल गई। उसने अपने चारों तरफ देखा। अँधेरा अभी भी अपने चरम पर था। शायद अमावस की रात थी। खामोशी का साम्राज्य पसरा हुआ था। सोये हुए अमर को उठाकर उसने कंधे से चिपका लिया और उन्हीं पगडंडियों से होकर सड़क की तरफ बढ़ गई जो पोखर के करीब से होकर सड़क से जाकर मिलती थीं।

क्रमशः