ममता की परीक्षा - 93 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 93



पोखर के करीब से पगडंडियों के सहारे साधना कच्ची सड़क पर आ गई। उसके सामने अब दो रास्ते थे। बाईं तरफ जानेवाला रास्ता भी शहर को ही जाता था लेकिन वह शहर के दूसरे हिस्से की तरफ से जाकर शहर में मिलता था इसलिए काफी दूर और घुमावदार था जबकि दाईं तरफ वाला रास्ता अपेक्षाकृत सुनसान लेकिन शहर के लिए नजदीकी रास्ता था।

पाँच वर्षीय अमर को कंधे पर चिपटाये अधिक देर तक चल पाना साधना के लिए आसान नहीं था। एक मिनट विचार कर वह दाईं तरफ वाले रास्ते पर आगे बढ़ गई। हालाँकि वह थक गई थी लेकिन किसी भी तरह जल्द से जल्द गाँव वालों की पहुँच से दूर निकल जाना चाहती थी। वह नहीं चाहती थी कि कोई शौच वगैरह को आया दूसरे गाँव का इंसान भी उसे देख ले और पहचान ले। थकान की अवस्था में भी वह चलती रही और जब उससे नहीं रहा गया तो सड़क के किनारे एक पेड़ के नीचे उसकी जड़ पर बैठ गई।

बैठने के क्रम में अमर कुनमुना कर उसकी गोद से फिसल कर नीचे उतर गया। आँखें खोलकर उसने अपने आसपास देखा। घना अँधेरा देखकर वह सहम गया और डरकर साधना की गोद में छिप गया। अब उसकी नींद गायब हो चुकी थी।

साहस बटोरकर उसने साधना से पूछा, "मम्मी, हम कहाँ जा रहे हैं इस अँधेरे में ? मुझे बहुत डर लग रहा है।"

साधना ने पुचकारते हुए प्यार से उसके बालों में हाथ फेरा और बोली, "तुम तो मेरे बहादुर बेटे हो न, फिर डरना क्यूँ ? ..और फिर मैं भी तो तुम्हारे साथ हूँ। जिंदगी में कभी भी किसी भी परिस्थिति में नहीं डरना। हर चुनौती का डटकर सामना करना ही जीवन है क्योंकि जीवन एक संघर्ष है इसमें कोई दो राय नहीं।"

आसपास फैले दूर दूर तक खेत और कहीं कहीं उनके बीच निश्चल खड़े दरख़्त किसी साये का सा अहसास कराके साधना के मन में खौफ पैदा कर रहे थे। बीच बीच में किसी सियार की आवाज उसके तन में सिहरन भर देती लेकिन फिर भी वह अमर को हौसला दिए जा रही थी। उसे निडर रहने का सबक देकर वह अपने माँ होने की जिम्मेदारी बड़ी खूबी से निभा रही थी। अब अमर की नींद जाती रही। उसकी गोद से फिसलकर वह उसके करीब ही खड़ा हो गया।

उसके खड़ा होते ही साधना में न जाने कहाँ से नए उत्साह का संचार हो गया। वह भी उठ खड़ी हुई और अमर का एक हाथ थामे चल दी अपनी अनजान मंजिल की ओर, जिसका वास्तव में उसे कोई इल्म नहीं था। उसे कुछ नहीं पता था कि उसे कहाँ जाना है, क्या करना है। वह तो बस जल्द जल्द से यहाँ से निकल जाना चाहती थी जहाँ उसका अब कोई सम्मान नहीं बचा था। वह जानती थी अकेली किस किस को समझाएगी, किस किसका मुँह बंद करेगी ? इस कोशिश में उसे और अधिक फजीहत के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होनेवाला था।..और फिर इतना भारी कलंक लेकर वह इस समाज में नहीं जी सकती थी सो यहाँ से हटना ही उसे उचित लगा। आत्महत्या कायर करते हैं और वह इस बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचना चाहती थी। पढ़ी लिखी हूँ, इतनी बड़ी दुनिया में कहीं न कहीं कोई न कोई ढंग का काम अवश्य मिल जाएगा। और ऊपर वाले ने चाहा तो मेरे ऊपर लगा यह कलंक भी एक दिन साफ हो जाएगा और दुनिया को सारी सच्चाई का पता चल जाएगा। तब उसे इसी गाँव में किसी को सफाई या अपनी बेगुनाही का सबूत देने की आवश्यकता नहीं रहेगी। पैदल चलते हुए उसके मन मस्तिष्क में पिछले कुछ घंटों की घटनाएं ताजी हो रही थीं। उसके कदम तेजी से शहर की तरफ बढ़ते जा रहे थे।

पैदल चलते हुए उसने दायीं तरफ नजर डाली। दूर उसे वह झील नजर आई जो भूतिया झील के नाम से कुख्यात थी। कच्ची सड़क से एक चौड़ी पगडंडी उतरकर उस झील की तरफ जाती दिख रही थी। बिना डरे बिना रुके वह सीधी राह पर चलती रही। नन्हा अमर अब थक गया था लेकिन वह भी साधना की उँगली थामे कभी तेज चलते हुए तो कभी दौड़ते हुए लगातार उसके साथ चलता रहा।

दाईं तरफ झील के पानी में उभरा आकाश का अक्स अब स्वर्णिम रंगत लिए झलक रहा था। दूर कहीं क्षितिज पर अब गहरी लालिमा फैलकर पौ फटने के संकेत दे रहे थे। सूर्य रश्मियों के आगमन का आगाज देखकर अँधेरे ने अपना साम्राज्य समेटना शुरू कर दिया। आसमान में स्वर्णिम आभा देखकर अब साधना का उत्साह भी बढ़ गया।

मुख्य शहर तो अभी दूर था लेकिन शहर को जाने वाली पक्की सड़क अब बहुत नजदीक थी। इस पक्की सड़क के दोनों तरफ कहीं कहीं इक्कादुक्का निर्माण बने हुए थे। नजदीक ही एक शक्कर का कारखाना भी था जो कई हेक्टर क्षेत्र में फैला हुआ था। आसपास अन्य उद्योगों की इकाइयाँ भी बनी हुई थीं। कई जगहों पर निर्माण कार्य भी शुरू था।

गाँव की कच्ची सड़क छोड़कर साधना पक्की सड़क के किनारे पटरी पर धीमे धीमे चल रही थी। थकान से बेहाल नन्हा अमर उसकी उँगली थामे बेमन से चल रहा था। बीच बीच में कभी कभार साधना के चेहरे की तरफ देख लेता मानो पूछने का प्रयास कर रहा हो कि 'अभी और कितना दूर चलना है ? ' लेकिन वह साधना के भावशून्य चेहरे को देखकर उससे आगे कुछ भी पूछने का साहस नहीं जुटा पाता और फिर उसके साथ घिसटने लगता।

सुबह का उजाला फैल चुका था। अब वह शायद शहर के नजदीक पहुँच गई थी। सड़क पर वाहनों की आवाजाही शुरू हो गई थी। सड़क की एक तरफ कोई नई बनी हुई बस्ती दिखाई पड़ रही थी। यह शहर का बाहरी इलाका था। सड़क के एक किनारे एक नया नया ही बना हुआ उद्यान देखकर साधना उसमें प्रवेश कर गई और पार्क में एक बेंच पर बैठ गई। सीमेंट के उस बेंच पर लिखा था 'अग्रवाल इंडस्ट्रीज के सौजन्य से ' !

पढ़कर साधना के होठों पर बरबस ही हल्की सी मुस्कान तैर गई और फिर अचानक अपनी स्थिति को महसूस कर आँखों से आँसू छलक पड़े। पार्क में बच्चों के खेलने के साधन लगे हुए थे सो अमर साधना से पूछकर एक झूले पर झूला झूलने लगा। जॉगिंग ट्रैक भी बना हुआ था गोलाई में जिसपर कुछ अधेड़ व वृद्ध महिलाएं व पुरुष चहलकदमी कर रहे थे तो कुछ तेजी से दौड़ लगा रहे थे। सभी अपनी अपनी समझ से स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रयास कर रहे थे, जबकि पार्क की बेंच से पीठ टिकाए साधना की आंखों में आँसू थे और नजरें अमर पर ही टिकी हुई थीं जो भूख प्यास की चिंता किये बगैर झूला झूलने में मग्न था।

चेहरे पर छलक आये पसीने को पोंछती लगभग साठ वर्षीया श्रीमती भंडारी साधना के साथ वाली बेंच पर बैठ गईं। पीठ बेंच से टिकाकर आँखें बंद किये थोड़ी देर निढाल पड़ी रहीं श्रीमती भंडारी और अपनी साँसें संयत करने का प्रयास करती रहीं। कुछ देर बाद उनकी नजर समीप ही बैठी साधना पर पड़ी। उनकी अनुभवी आँखों से साधना के चेहरे पर खींची परेशानी की लकीरें छिपी नहीं रह सकीं।

अपनी जगह से उठकर साधना के करीब बैठते हुए उन्होंने ध्यान से साधना की तरफ देखा और उसकी गोद में रखे थैले पर नजर डालते हुए बोली, "बेटी, लगता है तुम कहीं बाहर से यहाँ अभी अभी आई हो।"

क्रमशः