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दूसरा अध्याय

अभी मेरी अपनी एक सहेली रिया से पूरे दो घंटे बात हुई,वह बेहद व्यथित एवं उद्वेलित थी,कारण ऊपरी तौर पर कोई विशेष नहीं कहा जा सकता है लेकिन मैं उसकी उद्विग्नता अच्छी तरह महसूस कर पा रही थी क्योंकि कहीं न कहीं अधिकतर महिलाएं उम्र के इस दौर में अपने जीवन के दूसरे अध्याय के संक्रमण काल से गुजरते हुए इन मनोभावों से लड़ती हैं।

हम युवा होते उन बच्चों की माँएं हैं,जो अभी अध्ययनरत हैं, वे बच्चे भी अपने जीवन के बेहद अहम दौर से गुज़र रहे हैं, जहाँ उनके समक्ष अपने भविष्य को खूबसूरत आकर देने का लक्ष्य भी है, ढेरों चुनौतियाँ भी हैं,मार्ग से भटकाने वाले क्षद्म लुभावने आकर्षण हैं, गलाकाट प्रतियोगिता में विजित होने का अत्यंत दबाव है।कुल मिलाकर बच्चों के जीवन का यह दौर ऐसा है कि यदि उन्होंने इसे अच्छी तरह से हैंडिल कर लिया तो वे सुनहरे वर्तमान में प्रवेश कर जाते हैं, नहीं तो आजीवन संघर्षरत रह जाते हैं। इन बच्चों के हम जैसे माता-पिता भी चिंता,असमंजस के झूले में बच्चों के पूर्णतया सैटल्ड होने तक झूलते रहते हैं, हालांकि बाद में भी किसी न किसी चिंता से आक्रांत रहते ही हैं, क्योंकि यही मानव स्वभाव है।

रिया से मेरा परिचय बीएससी के दौरान से है।बीएमएस में उसका सेलेक्शन एक वर्ष पश्चात हुआ था,इसलिए वह मेरी जूनियर थी,रैगिंग पीरियड में मजबूरीवश दीदी कहने की जो आदत पड़ी,वह आजतक कायम है।फ़ाइनल ईयर में उसके विवाह की बात चल रही थी तो उसके सम्भावित पति से मेरी मुलाकात हुई थी,वे उस समय एमडी कर रहे थे।उसका विवाह मेरे विवाह के बाद हुआ था, तबतक मेरा ग्रेजुएशन समाप्त हो चुका था, अतः मैं उसके विवाह में सम्मिलित नहीं हो सकी थी।तब मोबाइल तो प्रचलन में नहीं था,इसलिए हमारा सम्पर्क टूट गया।मोबाईल हाथ में आने पर धीरे-धीरे कड़ियाँ जुड़ते हुए रिया से भी सूत्र जुड़ गया।उस समय वह दो बच्चों बड़े बेटे एवं छोटी बेटी की माँ बन चुकी थी।उन्होंने नर्सिंग होम बना लिया था,जिसे स्थापित करने के प्रयास में पति अत्यधिक व्यस्त रहते थे।जब बच्चे स्कूल जाने लगे,तब रिया ने भी प्रैक्टिस प्रारंभ कर दिया।रिया अत्यंत भावुक प्रवृत्ति की महिला है, इसलिए वह बच्चों के लिए मोहग्रस्त होने के कारण पजेसिव भी थी।बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा इत्यादि के केयर में इतनी अधिक शिद्दत से लगी रहती थी कि प्रैक्टिस एवं घर में बैलेंस न बना सकने के कारण उसने स्वयं को बच्चों की परवरिश में ही पूर्णतया समर्पित कर दिया।

उसके पति आम पतियों की तरह गृहस्थी में अपनी जिम्मेदारी सुख-सुविधा एवं आर्थिक सहायता के रूप में देकर निश्चिंत होकर अपने व्यवसाय में तन-मन-समय से समर्पित हो गए।उधर रिया पति से घर एवं बढ़ते बच्चों की समस्याओं पर जब वार्तालाप करना चाहती तो वे 'जैसा तुम ठीक समझो' कहकर पल्ला झाड़ लेते।मार्केट या कहीं बाहर जाने के लिए कहती तो व्यस्तता की बात कहकर एटीएम पकड़ा देते।जब अपने पति को उनके मित्रों के साथ हँसते हुए ढेरों बातें करते,मित्रों के बच्चों की पूरी खैर-खबर लेते सुनती,दोस्तों के एक बार कहने पर ही साथ चल देने पर कुढ़कर सोचती कि क्या मैं सिर्फ़ गृहस्थी सम्हालने के लिए जरखऱीद ग़ुलाम हूँ?क्या सिर्फ़ पैसा दे देने से ही गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियां पूर्ण हो जाती हैं?इन ढेरों प्रश्नों का जवाब उसे कभी नहीं मिलने वाला था।मैं मानती हूँ कि चाहे कोई कितना भी दावा करे किंतु यह कटु सत्य है कि स्त्री एवं पुरूष हर स्तर पर इतने भिन्न होते हैं कि वे कभी भी एक-दूसरे के विचारों,मनोभावों, इच्छाओं, अपेक्षाओं, परेशानियों को समझ ही नहीं सकते क्योंकि यह मानव का मूल स्वभाव है कि वह दुनिया को सिर्फ़ अपने ही दृष्टिकोण से देखता,समझता एवं आँकता है।

पुरुषों के भी जीवन में विवाह पूर्व, पश्चात एवं रिटायरमेंट के बाद के तीनों पड़ावों में अभूतपूर्व मानसिक,शारीरिक परिवर्तन आते हैं लेकिन महिलाएं मुख्यतया घरेलू उम्र के पाँचवें दशक में ही बच्चों के युवा होते ही स्वयं को रिटायर मानकर उपेक्षित महसूस करने लगती हैं क्योंकि पति तो अपने कार्यक्षेत्र में अतिव्यस्त होते हैं,उधर बच्चे अपने जीवन में अब माँ की अधिक उपस्थित को अनावश्यक हस्तक्षेप कहकर निगलेक्ट करने लगते हैं।न जाने मानव स्वभाव कारण है या सामाजिक ढांचा जिम्मेदार है कि आर्थिक कृत्य हमेशा प्रभुत्व में रहता है, जबकि शारीरिक सहयोग गौढ़,हालांकि गृहस्थी के संचालन में दोनों के योगदान की बराबर में अहमियत है। साथ ही प्रिमिनोपॉजल हार्मोनल डिस्टर्बेंस के कारण स्त्रियाँ शारीरिक, मानसिक रूप से औऱ अधिक परेशान रहती हैं।इस समय जब उन्हें अतिरिक्त सहानुभूति एवं अटैंशन की जरूरत होती है तो वे बिल्कुल एकाकी हो जाती हैं।

इसी दौर से रिया गुज़र रही है।बेटा एमबीबीएस के तृतीय वर्ष में पढ़ रहा है, बेटी भी बीटेक की तैयारी के लिए कोचिंग करने शहर से बाहर चली गई है।बाहर रहते बच्चों की चिंता से व्याकुल रिया जब उन्हें फोन कर कुछ समझाने का प्रयास करती है तो बच्चे कभी व्यस्तता के नाम पर, कभी "उफ़ माँ, अब हम छोटे बच्चे नहीं रह गए," कहकर फ़ोन काट देते हैं।

अब रिया की नई वर्तमान समस्या है कि उसका बेटा अपनी बैचमेट के साथ रिलेशनशिप में है,जिसके विजातीय होने से तो विशेष परेशानी नहीं है लेकिन वह अत्यधिक धनी परिवार की बेटी है, लाख रुपये का आई फोन कैरी करती है एवं हॉस्टल में रहने के बावजूद कॉलेज अपनी कार से आती-जाती है।जिस उच्चस्तरीय जीवनशैली की वह आदी है, यदि बेटा नहीं दे पाएगा तो उनका गृहस्थ जीवन क्लेशमय हो सकता है या ख़र्चीली जीवनसंगिनी क्या बचत कर पाएगी?बेटे का आजकल बढ़ता व्यव भी परेशानी का बड़ा सबब है।अभी उसकी बर्थडे को बेटे ने धूमधाम से मनाते हुए एक महंगा गिफ़्ट प्रदान किया।जो पैसे रिया ने बेटे को खाने-पीने के लिए दिया था,उसे बेटे का अपनी गर्लफ्रैंड के ऊपर ख़र्च करना उसे बेहद क्रोधित कर रहा था।दूसरी चिंता इस बात की है कि आजकल के बच्चों के ऐसे रिलेशन कितने दिन चलें,इसका भी भरोसा नहीं होता, ऐसी स्थिति में जो पक्ष इस रिश्ते में अधिक गम्भीर होता है वह अत्यंत अवसादग्रस्त होकर कभी खतरनाक क़दम भी उठा लेता है, जो उसके जीवन/कॅरियर दोनों के लिए बेहद नुकसानदेह होता है।

उसपर बेटे ने अपने स्टेटस पर गर्लफ्रैंड की तस्वीर पर 'मेरी जान' लिखा था जो एक माँ को बेहद खल गया कि जो बेटा आज से दो साल पहले तक यह कहता था कि आप मेरी जान हैं, मेरी लाइफ़ में हमेशा फर्स्ट हैं और रहेंगी।बस एक साल पहले उसकी जिंदगी में आई लड़की ने मुझे रिप्लेस कर दिया। बेटे को मेरे जन्मदिन पर सिर्फ़ विश करने के अतिरिक्त और कुछ करने का कभी ख्याल नहीं आया।औऱ तो औऱ रोज दस मिनट बात करना भी भारी पड़ जाता है।

पति से कुछ कहने से कोई फ़ायदा नहीं है क्योंकि वह जानती है कि वे उसकी बातों को उसका फिजूल का दिमाग़ी फ़ितूर कहकर हवा में उड़ा देंगे,इसलिए उसने अपनी समस्या या दुःख को मुझसे बांटा कि मैं भी उसके बेटे के हमउम्र पुत्र की माँ हूँ।कमोबेश ऐसी ही परिस्थितियों से मैं भी गुज़र रही हूँ, इसलिए उसकी परेशानी को समझना तो मेरे लिए अत्यंत आसान है लेकिन उसको समझाना बेहद मुश्किल क्योंकि कटु सत्य है,"उपदेश देना सबसे आसान काम है",मैं खुद को ही कितनी मुश्किल से सम्हालती हूँ,मैं ही जानती हूँ।

खैर, समझाना तो था ही,इसलिए अपना कर्तव्यपालन करते हुए मैंने उसे ढाढ़स बंधाते हुए समझाया," देखो रिया,जहाँ तक बच्चों की चिंता है,वह एक हद तक तो ठीक है, हम माता-पिता हैं, इसलिए स्वभाविक है लेकिन इस बात को तुम्हें स्वीकार करना होगा कि अब वे तुम्हारे आँचल तले छिपकर नहीं रहेंगे औऱ न ही तुम उन्हें हर समस्या से बचा सकती हो।हम बस एक बार भला-बुरा,उचित-अनुचित समझा सकते हैं, शेष उन्हें समय ही सिखा सकता है, यह हर व्यक्ति के जीवन की सामान्य विकास प्रक्रिया है।अगर तुम्हें लगता है कि बेटा फिजूलखर्ची कर रहा है तो उसे अपना लिमिट स्पष्ट करो,उसमें उसे मैनेज करने दो।इस कटु सत्य को तुम्हें स्वयं को समझाना होगा कि एक उम्र के पश्चात माता-पिता द्वितीयक हो जाते हैं। आजकल अपने परिवार में पति-पत्नी-बच्चे ही शामिल होते हैं, इसलिए हमें अपने सुरक्षित भविष्य की व्यवस्था अवश्य करके रखनी चाहिए।यदि बच्चे अपनी जिम्मेदारी सहर्ष एवं समुचित रूप से उठाते हैं तो यह सुखद है।लेकिन हमें हर बात के लिए मानसिक रूप से अवश्य तैयार रहना होगा, वरना हम अवसादग्रस्त होकर वृद्धावस्था को बोझ बना लेंगे।

रही बात जीजाजी के समझने की तो शायद उनका अंतर्मुखी व्यक्तित्व अभिव्यक्ति की महत्ता को नहीं समझता।तो इसके लिए कुढ़ने की बजाय यूँ मानकर स्वीकार करने की कोशिश करो कि चलो, वे रोक-टोक तो नहीं करते।घर तुम्हारे नाम है, वृद्धावस्था के लिए आर्थिक व्यवस्था भी कर दी है, जिससे तुम्हें बेटे पर कभी निर्भर नहीं रहना होगा।हर इंसान को सबकुछ नहीं मिलता, इसलिए आधे भरे गिलास में संतुष्ट रहने की कोशिश करो।हो सके तो अपनी प्रैक्टिस दुबारा शुरू करो।नहीं तो किसी अन्य क्रिएटिव कार्य में स्वयं को व्यस्त रखो।खाली दिमाग़ शैतान का घर होता है।जिंदगी के इस दूसरे अध्याय को सकारात्मक सोच से सही ढंग से व्यतीत करने का प्रयास करो जो इतना मुश्किल भी नहीं है।

खैर, मैं नहीं जानती कि रिया को मेरी कितनी बातें समझ में आईं या उनमें से कितने को वह अपने विचारों तथा जीवन में शामिल कर पाती है। सत्य तो यही है कि हमें स्वयं को ही समझाना पड़ता है, दूसरे की सलाह भी तभी समझ में आती है जब हम मानना चाहते हैं।जिंदगी के तमाम परिवर्तनों से निरंतर अनुकूलन करते रहने की आवश्यकता होती है, तभी उनसे पार पाया जा सकता है।यही तो जिंदगी है।

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