ये उसी परंपरा की फ़िल्म हैं। जिसमें डायरेक्टर को रातों को नींद नहीं आती कि मैंने फ़िल्म उद्योग में चालीस साल बिता दिए और अभी तक भारत के किसी समय के इतिहास पर 500 करोड़ का कारनामा नहीं बनाया। तो बस ये वहीं फ़िल्म हैं। अगर किसी को ये फ़िल्म देखनी हैं। तो पहले ही किसी साइकैट्रिस्ट का पता ढूंडले क्योकि अगर ढूंढ़ने से पहले ये देखली तो शायद पागल खाने में भी जगह ना मिले। सच में भयानक थी। अभी जून में पृथ्वी राज चौहान फ़िल्म को देखकर लगा था। इससे बुरा क्या होगा, पर ये बकवास 500 करोड़ की भी होती हैं। ये आज पता लगा।
इस फ़िल्म के लिए मणिरत्नम का चालीस साल से सपना था। अपनी पत्नी को शादी वाले दिन गिफ्ट में इस उपन्यास को दिया था। ऐसी बातें क्यों कहते हैं। ये लोग जब पता हैं। जब तुम खरे नहीं उतरोगे अपनी कहीं हुई बातों पर, मेरी मूल बात यह हैं। कि इस उपन्यास पर वेब सीरीज बनती तो अच्छा था पर फ़िल्म नहीं, ये बर्दास्त से बाहर हैं।
कहानी; चौल साम्राज्य हैं। जो तंजौर नामक जगह से शासित होता हैं। राजा के दो बेटे हैं। आदित्य करिकलन और अरुलमोजीवराम और एक बेटी कुण्दवाई हैं। अब ये तीनों बहन-भाई अलग-अलग रहते हैं। लेकिन एक- दूसरे के प्रति मन में बड़ा प्यार हैं। तंजौर में ही एक पजहुवेत्तारैयार नाम का बन्दा हैं। जो राजा के बाद दूसरी पोस्ट रखता हैं। अपने भाई के साथ मिलकर तख्ता पलट की साज़िश रचता हैं। 【वो भी नन्दिनी(ऐश्वर्या राय) के कहने पर और ये नंदिनी पहले आदित्य करिकलन से प्रेम करती थी लेकिन किसी कारण (जो फ़िल्म में दिखाया तो गया हैं। पर समझ नहीं आएगा) की बजह से अलग हो गए हैं।】 और राजा के ताऊ के लड़के सुंदर चोल को राजा बनाना चाहता हैं। ये फ़िल्म का मुख्य प्लाट हैं। पर ये फ़िल्म में नहीं हैं। दूरबीन लेकर ढूंढ़ोगे तो भी नहीं मिलेगा।
अब आते हैं। उस कहानी पर जो फ़िल्म में दिखाई हैं। आदित्य एक कम से कम 50 साल के आदमी को जिसका नाम वल्लवराइयाँ हैं। को तख्ता पलट की साज़िश का पता लगाने के लिए गुप्तचर बनाकर राजा के पास भेजता हैं। और वो पूरी फिल्म में इस दुनिया के जितने भी बेकार काम हो सकते हैं। वो करता हैं। और उसे फ़िल्म में 20 साल के लड़के की तरह पेश किया गया हैं। कहने का सार ये हैं। कि फ़िल्म के अंदर बाकी किरदार जो कर रहे हैं। वो इसकी वजह से कर रहे हैं। वरना वो कुछ करें ही नहीं, और इसे केवल औरतों से बात करनी, गाना, गाना हैं।
दरअसल इस फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह से कहीं गयी हैं। जैसे कोई दक्षिण भारत के इतिहास का प्रोफेसर जो अपने काम में बहुत अच्छा हैं। वो किसी बहुत अच्छे पीएचडी स्टूडेंट का रिसर्च पेपर पढ़ रहा हैं। और उसे इस बात से बिल्कुल मतलब नहीं हैं। कि सामने बैठी उसकी ग्रेजुएशन की क्लास में जितने बच्चें हैं। ये वो हैं। जिन्होंने 12th क्लास साइंस से की हैं। लेकिन किसी वजह से BA में एडमिशन ले लिए और उस वालें जिसमे तीन सब्जेक्ट होते हैं। ना कि हिस्ट्री ऑनर्स में
पटकथा; पठकथा का प भी इस फ़िल्म में नहीं हैं।
शुरू के बीस मिनट में दो गाने आ गए। और जो इस तरह से बनें हैं। जिन्हें देखा तो जा ही नहीं सकता।
हर सीन में भीड़ हद से ज्यादा हैं।
एक सीन में बड़ा अच्छा समुंद्र का सीन चलता रहता हैं। अचानक से एक शिव भक्त और एक विष्णु भक्त लड़ने लगते हैं।
एक सीन में जो गुप्तचर हैं। उसे ऐश्वर्या का सच पता चल जाता हैं। पर उसकी कोई भी प्रतिकिर्या नहीं दिखाई।
इन्टरवल से पहले का सीन बड़ा सीरियस हैं। लेकिन अचानक से गाना बजने लगता हैं।
फ़िल्म के अंदर कभी भी भागा-दौड़ी, मारकाट चालू हो जाएगी। दर्शक कहेंगे ये क्यों हो रही हैं। पर कुछ पता नहीं चलेगा।
शुरूआती एक घण्टा 35 मिनट फ़िल्म में क्या चल रहा हैं। कोई कितना भी होशियार हो बता ही नहीं सकता। ऊप्पर से फ़िल्म के अंदर एक सीन चल रहा हैं। अचानक से ऐष्वर्या के चेहरे पर कैमरा चला जायेगा। अब ऐसा क्यों हैं। ये डायरेक्टर जानें।
फ़िल्म नोवीं शताब्दी में सेट हैं। जो बिल्कुल हिंदुओ के ऊपर बनाई गई हैं। लेकिन ऐश्वर्या राय पर अलिफ लैला का म्यूजिक बज रहा हैं। और वो इतना बेकार हैं। कि पूछों मत, लेकिन वो रहमान साहब ने दिया। हो सकें कुछ समय बाद वो अवार्ड वगैरह जीत जाए।
फ़िल्म का कैमरा वर्क ऐसा हैं। कि कैमरा लोगों के चेहरे में घुसा रखा हैं।
जो इसमें सबसे बड़ा हीरो हैं। विक्रम(आदित्य) उसका सारा रोल 15 से 20 मिनट का हैं।
सब मेल किरदारों का मेकप एक जैसा हैं। कोई अंतर नहीं
सबसे बड़ी कमी जो किरदार स्क्रीन पर मौजूद हैं। दर्शक उनके बारें में जानते नहीं, और वो बात जिनके बारें में कर रहे हैं। वो फ़िल्म में आधे घण्टे बाद आएंगे। हालांकि जब वो आते हैं। तब तक दर्शक को कुछ सोचने के लिए बता दिया जाता हैं।
एक्शन; ये क्या था। क्या ऐसा हो सकता हैं। ऐसा कोई कैसे सोच सकता हैं। मेरा मानना हैं। कि इसी एक्शन से इस फ़िल्म के एक्शन डायरेक्टर को सज़ा देनी चाहिए। उसे तब पता चलेगा कि दर्द से गुजरना क्या होता हैं।
अंतिम बात ये हैं। कि ये फ़िल्म बिल्कुल भी देखने लायक नहीं हैं। ये बस मणिरत्नम ने अपने शौक के लिए ताकि खुद को बड़ा निर्देशक कह सकें, बनाई हैं। जिस डायरेक्टर का पूरा फोकस पूरी फिल्म में ऐश्वर्या और तृषा को सुंदर दिखाने पर हो वो कैसी फ़िल्म बनाएगा इसका अंदाज़ा फ़िल्म के शरुआती आधे घण्टे में लग जाता हैं। पर बन्दा यहीं तक नहीं रुकता वो फ़िल्म खत्म होने पर पार्ट दो का एलान कर देता हैं। और उसके बाद फ़िल्म की सबसे ज्यादा रहस्मयी बात का खुलासा करता हैं। और पता चलता हैं। वो खुलासा ऐष्वर्या राय हैं। इस फ़िल्म को जो झेल लेगा वो अपने आप को कोई गिफ्ट करें। कि वाओ मैंने अपने गुस्से पर काबू पाना सिख लिया। मेरी यही गुज़ारिश हैं। कि इससे कृपया दूर रहना, बहुत बुरी फ़िल्म हैं। बाकी किसी को देखनी ही हैं। तो उसे मेरी शुभकामनाएं।