तुमने कभी प्यार किया?
उसने आगे लिखा है-
" मैं हल्द्वानी से नैनताल जा रहा था। हनुमानगढ़ी पर उतरा,पैदल मन्दिर की ओर चल पड़ा।चारों ओर सब पहाड़ियों को देखा। यादों के कुछ झोंके आये और लगा जैसे आसमान से गिरे,पहाड़ियों पर अटके।कभी मैंने सोचा था, ऐसी लड़की से शादी करूँगा जो घराट जाती हो, घास काट कर लाती हो। गायों के ग्वाले जाती हो जैसे कृष्ण भगवान जाते थे। खेतों में काम करती हो, रोटी बनाती हो,गोल-गोल। पहाड़ सी सहनशील हो, हरीभरी,आकाश को चूमती हुयी। मुझे घराट की वह लड़की याद आ रही है जो मेरे पीछे-पीछे चल रही थी जब मैं सोलह-सत्रह साल का था। वह बातूनी थी। बिना रूके बोलती थी। जोंकों के बारे में। जोंकों को कुमाँऊनी भाषा में खूब गाली दे रही थी। ऐसे चिपट जाता है "उल्लू का पट्ठा", "काँणी का चेला" जोर से खींचने पर भी नहीं निकलता है। खून चूसने में लगा रहता है। उसने अपने पैरों को देखा सचमुच एक जोंक उसके पैर में लगा था। वह चिल्लाई," जोंक,जोंक" और मेरे को पकड़ कर बोली इसे निकालो। मैंने कहा ," अभी उसे खून चूसने दो। खराब खून पीता है वह।" वह पैर को हिलाये जा रही थी। मैंने जोर से जोंक को खींचा और पत्थर पर फेंक दिया। वह बोली तुम्हें डर नहीं लगता है जोंकों से? मैं बोला नहीं। सीधा साधा प्राणी है। उसके पैर पर मिट्टी डालता हूँ मैं,जिससे खून आना बन्द हो जाय।
व्यापक थे, उसके अनुभव। बोलती है, घर जाकर खाना खाऊँगी। फिर भैंसों को पानी पिलाने ले जाऊँगी। फिर बोली तुम्हें भैंस दुहना आता है। मैं बोला नहीं। वह जोर से बोली मुझे आता है। मैं गुल्ली-डंडा खेलना भी जानती हूँ।
तैरना जानती हूँ। सुबह-सुबह कभी-कभी घसियारियों के साथ घास काटने जंगल भी जाती हूँ। घास काटते-काटते गीत भी गाती हूँ। मैंने बोला पाठशाला नहीं जाती है। उसने कहा नहीं। घर पर ही थोड़ा-बहुत पढ़ लेती हूँ। मैंने फिर कहा अब तो तुम्हारी शादी हो जायेगी। वह बोली" हट" अभी नहीं। अभी मेरी दीदी की भी नहीं हुयी है। रास्ता बातों-बातों में कट रहा था। पहाड़ की चढ़ाई में सांस फूल रही थी। हम एक बड़े पत्थर पर बैठ गये। वह पत्थर पर बैठकर दाणी( एक खेल) खेलने लगी। मुँह उसका लगातार चल रहा था। दूर बुराँश का फूल देखकर बोली," देखो, बुराँश खिल गया है। कितना सुन्दर फूल है!" मैंने कहा," तोड़ लाऊँ, तुम्हारे लिये?" वह बोली नहीं। बुराँश का फूल पेड़ पर ही सुन्दर लगता है।
वहीं पर रास्ते में एक पत्थर से किलमोणे के काँटे की टहनी दबा रखी थी। उसने कहा ये क्यों दबा रखी है,रास्ते में? मैंने कहा इस संबंध में कुमाऊँ में एक लोक कथा है-
" पहले जब बड़े-बूढ़ों का स्वर्गवास हो जाता था तो वे कामकाज, त्यौहारों में अपनी संतानों का हाथ बटाने आया करते थे। वहाँ की बातें विस्तार से बताते थे।
एक बार एक परिवार में सास का देहान्त हुआ। उसकी बहू घर के कामकाज करने के लिये अकेली हो गयी। जब खेतों में गुड़ाई-निराई का काम चल रहा था तो उसकी सास ब्वारी(बहू) का हाथ बटाने आ गयी,अपने पुराने रूप-रंग में। दोनों दिनभर खेत की गुड़ाई-निराई करते रहे। जब काम समाप्त हुआ तो सास ब्वारी से बोली," ब्वारी मेरा सिर खुजला रहा है। थोड़ा टुग( दोनों अंगूठों को साथ मिलाकर बालों की जड़ों को दबाना) मार दे मेरे सिर में। बहू सास के पास आयी और उसके सिर में टुग मारने लगी। टुग मारते-मारते बहू बोली," ज्यु( सासू माँ) तुमसे हाड़-मांस की गंध आ रही है। सास बोली," अब हमारे बच्चों को हम पर गंध आने लगी है। ऐसा है तो अब मृत बड़े-बूढ़े पितर नहीं आयेंगे। तुम दाह संस्कार के बाद आधे रास्ते में पत्थर से काँटे दबा देना।" लोगों ने उसका कहा मान लिया। तब से यह परंपरा यहाँ चली आ रही है।और मृत पितर कामकाज और शुभ कार्यों में नहीं आते हैं,ऐसी मान्यता है।"----
---महेश रौतेला