तुमने कभी प्यार किया था? - 10 महेश रौतेला द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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तुमने कभी प्यार किया था? - 10

 
उसकी मुस्कान को मैं कभी भूल नहीं पाती हूँ।वह कभी आसमान की तरह गहरी होती जहाँ असंख्य नक्षत्र झिलमिलाते दूरी का आभास देते हैं।या उस झील की तरह जिसका पानी हवा से हिलता और मेरे भावों की नावें और मछलियां उसमें तैरती रहती हैं।उसकी लिखी पंक्तियों को में बार-बार पढ़ती हूँ।
"तूने मेरे कदमों को
एक अर्थ दिया था,
आँखों को कहने का
अद्भुत संयोग दिया था।
मन बैठ गया था
जब तेरे आँगन में,
इक आदर का भाव
वहीं लेने आया था।
तेरी यादों का पता
बार-बार पढ़ता हूँ,
किये गये वादों से
रूठ नहीं पाता हूँ।
तूने मेरे हाथों में
जो समय रखा था,
वह अब भी रुका हुआ
महसूस होता है धीरे-धीरे।"
उसका लिखा साहित्य मेरे जीवन के समान्तर चलता है। बच्चे जब उससे कहानी सुनाने को कहते हैं तो वह कहता है," एक लड़की थी,"और इतना कह कर रुक जाता है। और लम्बी सोच में डूब जाता है। बच्चे आगे की बात जानने के लिए जिद करते हैं और अत्यधिक उत्सुकता दिखाते हैं, लेकिन वह ,"दूसरे दिन सुनाउँगा," कह कर उन्हें मना लेता है।
बाद में बच्चों की इस उत्सुकता को उसने शब्द दिये -
" मेरे प्यार की कथा जब बूढ़ी हुई
मैंने अपने बच्चों को सुनायी उसकी एक पंक्ति,
वे उत्साह में उछले
कौतुक में बैठ गये
उनके कान खड़े हो गये
चेहरे पर भाव उमड़ पड़े,
शायद वे मान बैठे थे
कि मैं वह प्यार कर नहीं सकता
जीवन का वैभव सोच नहीं सकता
मैंने कथा शुरु की-
"एक लड़की थी
जो हँसती थी,मुड़ती थी,
खिलखिलाती थी,
आसमान सी बन
आँखों के ऊपर आ जाती थी,
उसमें प्यार की उर्जा थी,
सपनों की छाया थी,
मन की आभा थी,
बर्फीली हवाओं में चलती थी,
आँखों में तैरती थी,
तपती धूप में
मन के छोरों पर खड़ी रहती थी,
मन्दिर में जा
शायद ईश्वर से कुछ मांगती थी,
बच्चे सुनते रहे
कथा खत्म नहीं हुई,
वहाँ माँ आ गयी
और मैं चुप हो गया।"
समारोहों में वह अपने भाषणों में एक प्रचलित कहानी सुनाता है।
" एक बार एक साधु ने नदी की बाढ़ में, बिच्छू को बहते देखा। साधु उस बिच्छू को हाथ से पकड़ कर बचाने की कोशिश कर रहा था और बिच्छू उसे डंक मारता और साधु के हाथ से वह फिर नदी में में गिर जाता और बहने लगता। साधु उसे फिर उठाता और बिच्छू फिर डंक मारता और फिर नदी में छटक कर बहने लगता। एक राहगीर काफी देर से यह सब देख रहा था।वह साधु के पास गया और बोला," साधु महराज, आप इस बिच्छू को क्यों बचा रहे हैं? जबकि वह आपको बार-बार डंक मार रहा है। साधु ने उत्तर दिया," जब यह बिच्छू अपना स्वभाव नहीं छोड़ सकता,जिसका स्वभाव डंक मारना है, तो मैं अपना स्वभाव क्यों छोड़ दूँ? मेरा धर्म तो बचाना है।"
समारोह में एक व्यक्ति उठकर बोला," यहाँ साधु कौन है और बिच्छू कौन है?" उसकी बात सुनकर वह मुस्करा दिया।
उसके विचारों के वृक्षों में अनेक तरह की विविधता विद्यमान रहती है।वहाँ वसंत भी है और पतझड़ भी है।जीवन के नद और देश का परिदृश्य साथ-साथ चलते हैं।
"बहुत दिनों से
मैं देश बना हूँ,
जहाँ गंगा बहती है
हिमालय आकाश की ओर
घूमने जाता है,
बहुत दिनों से
मैं देश बना हूँ,
भाषावार मुझे बाँटा गया है,
मेरी ईहा के
बंदर बाँट में
मुझे अकेला छोड़ा गया है ,
मेरी अनिच्छा पर
लोग चलते हैं,
इतिहास की चमक को
काल्पनिक कहते हैं,
मेरे घावों को
बार -बार कुरेदते हैं,
मेरे लिये नहीं
अपने स्वाभिमान के लिये
जनता को चलना है,
शासन की आत्मा में
दिन-रात, युगों तक
भारत को रहना है,
बहुत दिनों से
मैं देश बना हूँ,
जहाँ गंगा है,यमुना है,
ब्रह्यपुत्र है, गोदावरी है,
कावेरी है, नर्मदा है,
बादलों का मन है,
धरती का स्वास्थ्य है,
ध्रुव की तपस्या है,
राम के गुण हैं,
कृष्ण का आलोक है,
पर फिर भी आज
सांसें रूकी लगती हैं,
बहुत दिनों से
मैं भारत बना हूँ।"
 
नानी तुमने कभी प्यार किया था भाग-11
 
मैं उस दिन उसके ठीक सामने बैठी थी।तब तक उसने मेरे से " मैं तुमसे प्यार करता हूँ।"
नहीं कहा था।वह मेरे चेहरे को देख रहा था। शायद मुझे समझने का प्रयास कर रहा था।मैं बार-बार उसे देखती और बार -बार नजर हटाती। वह उस दिन अपने गाँव की घटना बता रहा था। कह रहा था।"उस दिन गाँव से दूर, गाँव के तीन परिवार जंगल में अपनी गाय चरा रहे थे।उसी बीच एक चीता एक गाय के बछड़े पर झपटा।ग्वालों ने तुरंत हल्ला मचाना शुरु किया और उनके हल्ले और आक्रमकता को देख चीता बछड़े को छोड़ ,पहाड़ी में ऊपर को भाग गया। वह क्रोध में पीछे देख रहा था क्योंकि उसका शिकार छूट गया था।पहाड़ी के ऊपर से भी एक रास्ता था,उस रास्ते से उसी समय गाँव के निवासी सुजान सिंह और उनका बेटा जिसकी उम्र १० वर्ष थी जा रहे थे।चीता देख सुजान सिंह ने चीता को भगाने के लिए जोर की आवाज में "हट" बोला।उसकी आवाज सुनते ही क्रोधित चीता उनकी ओर तेजी से आने लगा। अपनी ओर आता देख सुजान सिंह डर से काँपने लगा। और स्थिति यह हो गयी कि "मरता क्या नहीं करता?" वाली हो गयी।उसने बेटे से कहा," बेटे,तू भाग और गाँव वालों को बुला ला।"उसका बेटा गाँव की ओर भागा। तब तक चीता भी सुजान सिंह तक पहुँच चुका था। सुजान सिंह के हाथ में तेज धार कुल्हाड़ी थी।उसने पूरी शक्ति से कुल्हाड़ी चीता के सिर पर दे मारी।चीता बिहोश हो गया और सुजान सिंह के हाथ कुल्हाड़ी के हथीने से जकड़ गये।वह हकबकाया हुआ वहीं बैठ गया।वह एक क्षण पहले अपनी मौत को वहीं पर देख रहा था।मौत से बचने के लिए वीरता दिखाने के सिवाय उसके पास कोई विकल्प नहीं था। उधर उसका बेटा गाँव वालों को घटना स्थल पर बुला लाया।गाँव में दो लोगों के पास एक नली वाली दो बन्दूकें थीं।वे बन्दूक लेकर आये। घटना स्थल पर सुजान सिंह के हाथ कुल्हाड़ी की मूठ पर जकड़े थे। दो लोगों ने उसके हाथों को खोला।फिर बिहोश चीता को गोली से मार दिया गया। किसी ने इस बात की चर्चा बाघ संरक्षण कानून के चलते बाहर नहीं की। अन्यथा सुजान सिंह को आत्म रक्षा में दिखाये गये साहस के लिए इनाम मिलना चाहिए था।"
उसने मेरी ओर देख कर कहा," तुम्हारा क्या विचार है?" मैंने कहा," जो विचार आपका है, वही मेरा है।" उसके बाद वह चुप हो गया। इधर-उधर की कुछ बातें करते-करते, हमने चाय पी और फिर अपने-अपने काम से बिखर गये।
एक दिन उसकी लिखी तीन रचनाएं पढ़ी और आँखों में आँसू भर आये।
१.
"मैं ढूंढ़ता रहा तुम्हारे कदम
जो कहीं मिले नहीं,
खोजता रहा यादें
जो कभी सोयी नहीं,
देखता रहा समय
जो कभी रुका नहीं,
पूछता रहा पता
जो कहीं लिखा नहीं गया,
सोचता रहा तुम्हारा नाम
जिसे किसी ने माना नहीं,
कहता रहा कहानी
जो कभी सुनी नहीं गयी,
गिनता रहा आँसू
जो कभी गिरे नहीं,
ढूंढ़ता रहा तुम्हारे कदम
जो कहीं मिले नहीं।"
२.
"तुम से लिया जो
वह विदाई नहीं थी
पहाड़ों की लम्बी चढ़ाई न थी,
बरफ सी जमती ठंड भी नहीं थी
आसमान जैसा रंग भी नहीं था,
कोहरे में दिखती छवि भी न थी
धुन्ध का बिछा आवरण नहीं था
धूप सी बनी चमक भी न थी
गाड़-गधेरों की दौड़ तो नहीं थी
चीड़ के जंगलों का संगीत नहीं था
घराट पर मिली कथा नहीं थी
गूल से जाता जल भी नहीं था
बाँज को देखता दृश्य नहीं था
आकाश से टूटा तारा नहीं था
पत्थरों में पड़ी कठोरता न थी
देश पर लिखा गीत नहीं था
इंसान का पढ़ा पाठ नहीं था,
तुमसे लिया जो
बहुत कुछ अलग था।"
 
३.
"आज सपने में
मैं मन्दिर में खड़ा
ईश्वर से मांग कर रहा था
देश के लिए
एक वाणी, एक भाषा
एक संस्कृति, एक सभ्यता
जन -जन के स्वाभिमान के लिए
एक जीवित हिन्दी।
मैं हिन्दी बोल रहा था
वे समझ रहे थे,
मैं कन्याकुमारी में था
रामेश्वरम में ठहरा था
काश्मीर के बारे में बता रहा था
दिल्ली मेरे आस पास खड़ी थी
मैं नैनीताल के विषय में कह रहा था
वह आदमी गिना गया
मसूरी,देहरादून,केदारनाथ,
बद्रीनाथ,अल्मोड़ा, रानीखेत
एक ही सांस में।
मैं मन्दिर में खड़ा था
"बसुधैव कुटम्बकम" मांग रहा था
"सर्वे भवन्तु सुखिन:" चाह रहा था"
उसने मेरी लिखावट चाही
मैं गदगद हो बोला
"सब बहुत अच्छा है।"
कन्याकुमारी के छलकते मन में,
अब नींद भी मेरे पास थी
और सपना भी।"
अभी तक उसने मेरे से " मैं तुमसे प्यार करता हूँ।" नहीं कहा था।
 
नानी तुमने कभी प्यार किया था?भाग-12
कहानी जो वह कह न सका।
उस दिन उसने अपने प्यार को कहने की ठानी।बातों में वह कह नहीं पा रहा था। अत: उसने लिख कर कहने की सोची। उसने अपनी कापी निकाली और उसके खाली पन्ने पर लिखा "मैं तुमसे प्यार करता हूँ।" और सोचने लगा उसे आज दूँ या न दूँ। फिर उसे वहीं छोड़ कालेज को निकल गया। दूसरे दिन फिर एक सफेद पन्ना उसने ढ़ूढ़ा और फिर उसमें लिखा," "मैं तुमसे प्यार करता हूँ।" पन्ने के अतिरिक्त भाग को उसने फाड़ दिया और काम के हिस्से को कोट की जेब में रख दिया। कमरे से निकला और कोट की जेब में हाथ डाल कर उस कागज के टुकड़े को अंगुलियों से मोड़ता-खोलता कालेज की ओर बढ़ता गया। कालेज पहुँते ही उसे मैं दिख गयी और वह उस टुकड़े को मुझे नहीं थमा सका। वह वाक्य दिन भर उसकी जेब में पड़ा रहा और शाम को कमरे में लौटने पर उसने उसे फाड़ दिया।
अगले दिन मैं टेस्ट ट्यूब माँगने उसके पास गयी। मैंने पूछा,"आपके पास बड़ी टेस्ट ट्यूब है?" उसने नहीं में उत्तर दिया। मूझे टेस्ट ट्यूब की जरूरत नहीं थी, मैं केवल उससे बात करना चाहती थी। पर बातों का सिलसिला लम्बा नहीं हो पाता था। उसे मेरा होना ही अच्छा लगता था।
"नानी आपको कैसा लगता था?" वहीं पर खड़ी मेरी पोती ने कहा।उसके यह कहने पर मेरा चेहरा लाल हो गया था। मैं उन दिनों में खो गयी थी और मेरे आँखों से आँसू निकल आये थे। मुझे भावुक होता देख, मेरी पोती मुझसे लिपट गयी।उसने कुछ पत्र मेरे सामने रखे।उनमें उसका लिखा मुझे छूने लगा।
१.
मैं सैकड़ों मील चला
तेरे लिए
बिना आग्रह के,
नीला आसमान लिये,
धधकते संसार में।
तुम शान्त दीपक सी
बैठ गयी थी
मेरे मन में।
मैं बुझा था
कितने शून्य लिये
विषाक्त होकर।
पर तेरी चाह सुलगते-सुलगते
आग बन गयी।
२.
सोचने के लिए
जब कुछ नहीं होता
तो मैं अपने प्यार पर
सोचता हूँ ,
झुक जाता हूँ,
वृक्षों को समेटने लगता हूँ,
फूलों को उठाने जाता हूँ,
पहाड़ियों से बोलता हूँ,
आकाश को नापता हूँ,
जिजीविषा की पगडण्डियों पर
आ जाता हूँ।
कैसे महिने बीता दिये,
वर्ष भी छोटा लगा,
शब्द पुकारने में,
कहानी गढ़ने में,
नन्हीं सी पेन्सिल मांगने में
जो चाहिए नहीं थी,
छोटा सा कदम बढ़ाने में,
आँखों की भाषा समझने में,
गीत के बोल चुनने में,
चाय के लिये पूछने में।
कैसे कुरेदता है समय
उस टहलती ठंड में
उन मूँगफली के दानों को
उस आत्मीयता को
जो चूँ-चूँ कर आती है
मन के छोटे-छोटे छेदों से।
सोच सन्न हो जाती थी
जब पहाड़ी उतरता था।
३.
मैंने देखे थे
तुम्हारी आँखों में
झिलमिलाते शब्द,
शब्दों से निकलता लय
लय में ढला समय।
जहाँ-जहाँ मुस्कराहट थी
वहाँ-वहाँ देख
कदमों को लौटा
एक दृष्टिकोण बनाया।
तुमने देखा था
मेरी आँखों में
एक सपना दौड़ता हुआ
राहों में फिसलता
इधर-उधर मुड़ता।
तुम्हारी घुंघराली हँसी
मुझे मोड़ती है
शेष समय की ओर।
माफ करना
मैं तोड़ न पाया
उस चक्रव्यूह को
जो तुम्हारे आस-पास था।
४.
आज मैंने आकाश में देखा
कि चिड़िया उड़ी या नहीं,
तारे टिमटिमाये या नहीं,
सूरज निकला या नहीं,
और गहरी सांस ली
कि सब सामान्य है।
फिर देश की तरफ मुड़ा
टूटी हँसी के साथ,
झंडा खड़ा था
हवा से हिल रहा था,
आदमी संघर्ष में
पसीने से लथपथ
अंगार बन चुका था,
नारे लगा रहा था
पता नहीं किस लिए,
हर मुर्दाबाद और
जिन्दाबाद में,
साँसें उसकी ही लग रही थीं,
जय जयकार किसी और की
या देश की
या आदर्श की या सुधार की?
झंडा तो खड़ा था।
मैं बार-बार पत्र पढ़ती रही और दोहराती रही पुराने समय को। मैंने पत्रों को पकड़ा और अपने कमरे में जा जीवन के मंतव्यों को समझने की कोशिश करते हुए लेट गयी, उस ईश्वर को याद करते जो सब देता भी है और सब छीन भी लेता है।
 
***महेश रौतेला