तुमने कभी प्यार किया था? - 5 महेश रौतेला द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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तुमने कभी प्यार किया था? - 5

 
पीछे मुड़कर देखती हूँ तो जीवन प्यार का , संघर्ष का, लड़ाई का, झगड़े का, सहयोग का, मित्रता का, राग - द्वेष का, जन्म का, मृत्यु का, मिलन- विछोह का मिलाजुला रूप लगता है।मैं उसे आवाज नहीं लगा पायी।और वह मेरे सामने से निकल गया।
इंटरनेट पर उसकी बात को पढ़ा और आँखें भर आयीं । उसने लिखा था -
"शायद, तुमसे अच्छे लोग मिले,
तुमसे अद्भुत विचार सुने,
तुमसे सुन्दर तन देखा,
पर तुम सा कोई शब्द नहीं था।
शायद, उनसे ऊँचे शिखर भी देखे,
उससे अधिक सौन्दर्य मिला,
तबसे अनोखे क्षण भी आये,
पर तुम सा कोई नाम नहीं था।
तुम से ज्यादा परिचित पाया,
दोस्त का सच्चा साथ भी देखा,
मन का चंचल आकर्षण देखा,
पर तुम सा कोई प्यार नहीं था।
पगडण्डी पर भीड़ भी देखी,
सड़कों पर शाम भी पायी,
मंदिर पर लोग भी देखे,
पर तुम सा सरस अंदाज नहीं था।"
आज वह नन्दा देवी के मन्दिर पर बैठा है।यादों का कोहरा इधर से उधर घूम रहा है। इतने में एक महिला उसके पास आती है और आश्चर्य से बोलती है " अरे,आप यहाँ?" वह अपना हाथ तेजी से उससे मिलाने के लिए आगे बढ़ाती है। वह अपना हाथ आगे बढ़ाता है।वह गरमजोशी से उसके हाथ को पकड़े रखती है। कभी उसने यहीं मुझे पाया था और यहीं खोया भी था।आज समय बदल चुका था।मुझे लगा मेरी जगह किसी और ने ले ली है।
वह उसके बगल में बैठ जाती है। और बोलती है "क्या सोच रहे हो?" वह कहता है "यह मेरे सपनों का शहर है। जहाँ दूरियों को समेटने की कोशिश मैंने की थी।खूब दौड़ा था यहाँ।" उसने एक पन्ने में कुछ लिखा था उसे उस महिला ने पढ़ा -
"नहीं दिखेगा तेरा चेहरा
नहीं कदम की आहट होगी
नहीं वस्त्रों की चर्चा होगी
नहीं होंठों पर हलचल होगी।
नहीं मुड़ेगे मोड़ पुराने
नहीं दौड़ के प्रत्याशी होंगे
नहीं दृष्टि की साया में
नहीं स्पर्श का रिश्ता होगा।
हो सकता है गुम हो जाएं
हो सकता है बुत बन जाएं
हो सकता है हस्ताक्षर बन
किसी छोर पर मिल जायें।
हो सकता है भीड़ लगूँ
हो सकता है एकान्त दिखूँ
हो सकता है दीप बनूँ
हो सकता है आधार रहूँ।
हो सकता है गीत से निकलूँ
हो सकता है मन में आऊँ
हो सकता है याद लगूँ
हो सकता है विश्वास दिखूँ
नहीं दिखेगा मेरा चेहरा ।"
पन्ने के दूसरी ओर उसने अपने बचपन की सरल यादों को बटोरा था।वह उसे पढ़कर मुस्करा रही थी-
"दादी सपने आते हैं
चीटीं खाना लाती है
मधुमक्खी छत्ता बुनती है
मकड़ी जाल बिछाती है,
ध्रुव तारा मन में आता है
चिड़िया सुन्दर लगती है
मेला झिलमिल करता है
दादी सपने आते हैं,
कोहरा छटता दिखता है
पगडण्डी लम्बी मिलती है
घास हरी उगती है
खेल सिराने रहता है,
हँसी नमन करती है
पाँव डगमग चलते हैं
हाथों की ताली बजती है
गाँव का साथ दिखता है,
विद्यालय प्राथमिक मिलता है
घर का साया चलता है
माँ सपने लाती है
दूध -कटोरा रखती है,
दादी सपने आते हैं।"
महिला नन्दादेवी को प्रणाम कर चले जाती है।और उसे जल्दी आने को कहती है।
वह वहाँ बैठा रहता है। सोचता है यही शहर है जहाँ उसने सबसे पहले किसी से कहा था "मैं तुमसे प्यार करता हूँ।" संवेदनाओं को वह इधर से उधर ले जा, पूरी झील पर बिखेर देता है। वहाँ से उठ वह सीढियां चढ़ता है और उसे दो वृद्धों को देख अपने शहर के वृद्धाश्रम की याद आती है। "तब वृद्धाश्रम में विद्यालय की लगभग सौ छात्राएं आयी थीं। एक छात्रा इतनी भावुक हो गयी थी कि वह एक वृद्धा से लिपट कर अपने आँसू पोछ रही थी और वृद्धा उसे सांत्वना दे रही थी।इस दृश्य को देख वह द्रवित हो गया था।वहीं पर उसे अपना पुराना परिचित वृद्ध भी मिला। उसकी आपबीती भी हृदयद्रावक थी।वह वृद्ध कभी उसका पड़ोसी था।उसका एक लड़का और एक लड़की थी।पत्नी के देहांत के बाद वह अकेले घर में रहता था।उसके बच्चे भी उसी शहर में रहते थे। कुछ महिनों बाद वृद्ध के लड़के ने पिता को घर बेचकर अपने साथ रहने के लिये राजी कर लिया। घर बेचने के बाद वृद्ध अपने लड़के के साथ रहने चला गया।कुछ समय बाद लड़के ने उनहें बोल दिया कि उनके साथ उसका परिवार सामनजस्य नहीं बिठा पा रहा है अत: बहिन के पास रहने चले जाएं।वह अपनी बेटी के पास चला गया और कुछ माह बाद बेटी भी बोली " पापा, आप के कारण मेरे बच्चों की पढ़ाई ठीक से नहीं हो पा रही है अत: आप भाई के पास चले जाओ।" वृद्ध अपनी स्थिति पर आवाक हो गया। उसने वृद्धाश्रम में जाने का फैसला कर लिया। वृद्धाश्रम में आकर वह रोज अपनी स्थिति का आकलन करता और हर भेंट करने वाले के सामने आँसू बहाता। उस वृद्ध की आपबीती सुनने के बाद वह वहाँ से उदासी ले बाहर निकलता है और वृद्धाश्रम को पाँच लाख का चैक देता है।वहाँ से राजा हरिश्चन्द्र शीर्षक की किताब लेकर घर आ जाता है। यादों को पीछे छोड़ वह गुरुद्वारे के सामने से गुजरता है और सोचता है यहीं पर उसने कभी मुझसे मूँगफली मांगी थींं। समय बदल गया है पर भावनाएं हिलोरें मारती रहती हैं।
लघु होता है मानव का रंग
दीर्घ रहता है चलने का मन,
तुझसे कहता हूँ कैसे टूटे पथ
मन से कहता हूँ कैसे छूटा संग।
सोचते-सोचते वह अपने प्रिय रेस्तरां में चाय पीने बैठ जाता है। जब जीवन की गति तेज होती है, उस समय वह सब कुछ रौंदता सरपट दौड़ता है।चाय की हर घूंट में वह तैरने लगता है। और प्यार का रूठापन उसे मोहक लगने लगता है।
**** महेश रौतेला