तुमने कभी प्यार किया था? - 8 महेश रौतेला द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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तुमने कभी प्यार किया था? - 8

 
उसने तीन-चार रचनाएं प्रकाशनार्थ भेजी हैं। वह आज के प्रदूषित वातावरण पर लिखता है-
"इस प्रदूषण भरे शहर में
मैंने आज तारों को
टिमटिमाते पाया
और मैं आश्वसत हुआ
कि मेरे शहर का प्रदूषण
आज कम है,
सभ्यता आज
उच्चतर बिन्दु पर है,
मेरी यादें
ज्वालामुखी की तरह उठ
बचपन में पहुँच गयी,
जब स्फटिक होता था आकाश
और तारों तक दृष्टि जा
पूर्ण हो जाती थी।"
इसी के साथ शायद उसे हमारा प्यार बड़े आयाम पर दिखता है और वह इसे व्यक्त करना चाहता है-
"जिस जगह पर
मैंने तुमसे कहा
"मैं तुमसे प्यार करता हूँ"
वह जगह अब भी सजीव है
अनुभूतियां अब भी वहाँ हैं
सिसकती आँखें अब भी
वहाँ चमकती हैं,
कदम वहाँ अब भी ठिठकते हैं
शब्दों में प्राण वहाँ गूँजते हैं,
जिस जगह पर
कृष्ण ने राधा से नहीं कहा
"मैं तुमसे प्यार करता हूँ"
केवल साध्य रह
बाँसुरी बजाते रहे
और वहाँ प्यार को युगों में उडेलने
शुद्ध कर रख दिया।"
पत्र:
जब तुम्हें मेरी आँखों का पहला पत्र मिला था, तो तुमने चुपचाप पढ़कर उसे रख दिया था। उस पत्र को सूरज का प्रकाश ले जा रहा था,अपने सात रंगों में सजा कर। इन्द्रधनुषी रंगों में डगमगाता हुआ वह पत्र तुम्हारी आँखों में बैठ गया था।तुमने उसके कुछ पन्ने पलटे। अस्पष्ट भाषा में लिखा हुआ, तुमने पढ़ने की कोशिश की। हर दिन उस पत्र पर कुछ नया लिखा रहता था।उसकी भाषा अद्भुत होती थी।सांसारिक बातों से अलग। उसमें न मेरा परिचय था, न मेरा व्यक्तित्व।केवल आत्म तत्व था।आँखों की वह कहानी बढ़ती थी, फिर सिकुड़ जाती थी।नवजात शिशु की तरह एक चेतना घूमती रहती थी और दूसरी चेतना में मिल जाना चाहती थी।समय की खिड़की जब भी खुलती,गुनगुनी धूप का आना-जाना आरंभ हो जाता था। दृष्टि कब उठ जाती पता ही नहीं चलता था। और कब झुकेगी उसका भी अनुमान नहीं था। वह बिना पते का पत्र जन्म के समान था।हिमालय के शिखरों को निहारने,झील को देखने,पहाड़ों से मिलने,आकाश के अवलोकन से अलग था यह अहसास। पत्र अव्यक्त में व्यक्त था। पत्र कितना लम्बा होगा इसका कोई ज्ञान नहीं था। क्षितिज पार तक की आकांक्षा लिए वह इन्द्रधनुषी होता जा रहा था। तभी तुमने आँखें बन्द की और एक दैवीय लोक की संरचना होने लगी। इस लोक में प्रश्न नहीं थे केवल असीमता थी। कुछ गिनने को नहीं था,सब पूर्ण था। मैंने तुमसे पूछा," इस पूर्णता में क्या है?" तुमने कहा था," चरैवेति, चरैवेति" का आदि वाक्य इसमें है।जो पगडण्डियां हमने बनायी वे भी हैं,जो टूट गयीं वे भी हैं।जो बनता जा रहा है वह भी है।" तुमने मेरे हाथ में कुछ रखा और स्वयं पूर्णता में लीन हो गयी। इसी पूर्णता में आँख टिका कर मैं आज भी कहता हूँ-
"चलो टहल लें पुराने दिनों में,
जहाँ प्यार के काँटे चुभे थे।"
उसने कहानी अपने परिवेश से चुनकर लिखी है जिसमें रिंकू और शैलू के बीच की वार्ता एक जाति विशेष द्वारा स्वयं को नकारने का संदर्भ है। रिंकू , शैलू से पूछता है ,"कहाँ जा रहे हो?" शैलू बोलता है,"मैं बुकिलधार जा रहा हूँ। बुकिलों के यहाँ।" रिंकू फिर पूछता है, "यह बुकिल क्या होता है?" शैलू बोलता है,"बुकिल एक हेय दृष्टि से देखा जाने वाला जंगली छोटा पौधा है।इसकी पत्तियां जब सूख जाती हैं तो उनको मसलकर झुल बनाया जाता है। इस झुल को चकमक पत्थर पर रख, लोहे के टुकड़े से घर्षण पैदा कर आग उत्पन्न की जाती है।गाँवों में इस प्रकार झुल पर सुलगती आग को हुक्के के तम्बाकू पर रख तम्बाकू पीया जाता है।या गाँव वाले जानवरों को चारागाह में जब ले जाते हैं तो तम्बाकू पीने के लिये इस विधि का प्रयोग करते हैं।
गाँव में बुकिल शब्द का प्रयोग लगभग १८९० से हुआ है।जब एक भूमि सम्बन्धी मुकरदमे में अंग्रेज न्यायाधीश ने इस धार में रहने वाले बुजुर्ग , जो मुकदमे में एक पक्ष था, चर्चा के दौरान पूछा था,"तुम्हारी जाति क्या है?" तो उस बुजुर्ग ने अपनी क्षुद्र व दीन अवस्था को देखते हुये कहा था,"साहब,जाति क्या है,बुकिल की जड़ है।" अपनी जाति की उपमा इस प्रकार दिये जाने से उस समय से उनकी जाति के लोगों को बुकिल कहा जाने लगा।इस घटना ने आने वाली पीढ़ियों को एक मानसिक शूल दे दिया।अब बुकिल शब्द प्रचलित हो गया और मुख्य जाति गौण हो गयी।
मैंने उसकी कहानी को यहीं तक पढ़ा।और उसका चेहरा मेरे सामने आने लगा।मेरी आँखें डबडबाने लगी।उसका वह व्याख्यान मेरे मस्तिष्क में घूमने लगा जो उसने सबसे पहले दिया था। वह अनिश्चितता के सिद्धान्त को समझा रहा था। कि किस प्रकार किसी कण की स्थिति और उस स्थिति में समय की जानकारी एक साथ नहीं ज्ञात की जा सकती है।दोनों के बीच कुछ अनिश्चितता विद्यमान रहेगी।मैं सोच रही थी कि रामचन्द्र जी के वनवास में भी राजतिलक की जगह वनवास का होना,जन्मकुण्डली में इसी अनिश्चितता के कारण हुआ होगा। जन्म- स्थिति और जन्म- समय की एक साथ जानकारी न होना।
वह समीकरण श्यामपट पर लिखता था और मेरी आँखों में बार-बार झांकता था।उसके हाव-भावों पर मैं मुग्ध थी। व्याख्यान के बाद उसने मेरे से पूछा,"कैसा लगा?" मैं चुप रही और उसे देख, बाहर आ गयी।
मेरी सोच यहाँ तक पहुँचते ही, मुझे नींद आ गयी।----।
 
**महेश रौतेला