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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 17

 

सोई तकदीर की मलिकाएँ

 

17

 

आधी रात तक वह अंधेरी सीलनभरी कोठरी और वह चारपाई भोला और केसर के प्रेम की कहानी सुनती रही । केसर तो शर्म के मारे कुछ बोल ही नहीं पा रही थी पर उसकी तप्ती हुई सांसें उसके प्रेम की साक्षी हो रही थी । सांसों का इकतारा बजता रहा जिसकी धुन पर उनकी देह नृत्य करती रही । देर तक वे एक दूसरे में खोए रहे । आसमान में आधा निकला चाँद और तारे इस महफिल के साक्षी रहे । फिर इन्हें एकान्त देने के लिए चाँद भी कहीं जा कर छिप कर सो गया । तारों ने अपनी चमक धीमी कर ली । बाहर रातरानी ने अपनी महक चारों ओर बिखेर दी । अचानक भोला उठा और अपने कपङे संभालता हुआ कोठरी से बाहर निकल गया । आँगन में जाकर उसने नल चला कर ओक से पानी पिया । फिर अपने कमरे में चल दिया । उस कमरे में जहाँ उसकी ब्याहता पत्नी थी । उसकी दुनिया ।
भोला सिंह तो चौबारे की सीढियां चढ गया , पर केसर को उस सारी रात नींद नहीं आई । वह सुबह के अपने व्यवहार पर शर्मिंदा थी । यह उसे हो क्या गया था कि अपने ही परिवार के कातिल के बिना उसे चैन ही नहीं आ रही थी । वह उसकी बांहों के लिए तरस रही थी । उसे अपने गले लगाने को आतुर हुई बैठी थी । वह भोले से प्यार कर बैठी थी । उस भोले से जो उन कातिल लोगों में शामिल था जिंहोंने उसकी आँखों के सामने उसके पूरे परिवार को मार दिया था । काट डाला था तलवारों से । जिंन्होने मिल कर उसके परिवार की सारी जमा पूंजी लूट ली थी । जो इस गाँव का सरदार था । जो उसकी बङी बहन जैसी , माँ जैसी , छोटी सरदारनी का पति था । छोटी सरदारनी जिसने उस यतीम को अपने घर में आसरा दे रखा था । जो उसके और भोला के इस रिश्ते को जानते बूझते समझते उसे दोनों वक्त की रोटी खिला रही थी । उसके तन ढकने के लिए सूट सिलवा रही थी और वह मरी केसर उसकी दयालुता और उदारता का इस तरह मजाक बना रही थी । वह इस तरह उसके हिस्से में सेंध लगा रही थी । केसर तू मर क्यों नहीं जाती । यह दुनिया तेरे बिना सूनी नहीं होने वाली । घोर नरक , जहन्नुम की आग भी तेरे लिए कम रहेगी । दोजख मिलेगा तुझे । उसने अपने आप को जी भर कर कोसा था उस रात । वह सारी रात रोती रही थी । लगातार रोने से उसका तकिया बुरी तरह से भीग गया था । आँसू लगातार बहे जा रहे थे । यह देह यह मन बागी होकर उसके दुश्मन हो गये थे ।
सुबह चार बजे होंगे कि कहीं से मुर्गे की बांग सुनाई दी । थोङी देर में ही चिङिया चहचहाने लगी । केसर चारपाई छोङ कर उठ गई । उसने अपनी कोठरी झाङ पोंछ कर बुहारी मानो कल रात के सारे निशान मिटा देना चाहती हो । एक एक कोना झाङा , साफ किया । उसके बाद उसने नौहरा साफ किया । फिर रगङ रगङ कर नहाई । रात के पहने कपङे मल मल कर धोए । इस पर भी उसकी तसल्ली नहीं हुई तो पूरा एक लोटा पानी पी गयी । तब तक मंदिरों में शंख बजने लगे थे । मतलब पाँच बज गये हैं । बसंत कौर जब उठ कर नीचे आई , तब वह गोबर से आँगन लीप रही थी ।
केसर तू आज इतनी सुबह नहा ली ।
जी सरदारनी ।
बसंत कौर ने चाय बनाकर अपने और उसके गिलास में डाली – चल बाकी काम फिर कर लेना । पहले चाय पी ले ।
रख दीजिए । बस थोङा सा आँगन लीपना रह गया है , करके पी लेती हूँ । तब तक इसकी हवा निकल जाएगी ।
तब तक गेजा भी आ गया था – अरे वाह भाबी , आज तो सारा नौहरा सुबह सुबह ही चमक रहा है । ए केसर यह सब कोई जिन्न तो नहीं कर गया । कहीं रात को सोते में आया हो और तेरा सारा काम कर गया हो ।
वह हँसता हुआ चौके से बाल्टी उठाने आया और बाल्टी लेकर धार निकालने चला गया ।
केसर सिर झुकाए अपना आँगन लीपना करती रही । आँगन लीप कर उसने चाय पी फिर बरामदे में रखा बेबे का चरखा और छाबा ( सरकंडे की पूनी रखने वाली टोकरी ) उठाया और पीढा बिछा कर चरखा कातने लगी । आज केसर ने पहली बार चरखा छुआ था । वह बेबे को चरखा कातते देखती रही थी पर खुद कात कर कभी देखा नहीं था । उसे यह आसान सा काम लगा था पर आज जब वह पूनी पकङ कर कातने लगी तो उसे समझ आया कि यह काम तो बेहद मुश्किल है । उसके अनभ्यस्त हाथों से सूत का तार बार बार टूट जाता और केसर दोबारा उसे पूनी से जोङ कर फिर से धागा बनाने की कोशिश करती । तार खिंचने में आ ही नहीं रहा था । लेकिन केसर ने भी ठान लिया था कि आज उसे चरखा कातना ही है तो वह फिर फिर कोशिश करती रही । बसंत कौर यह कौतुक थोङी देर देखती रही फिर सब्जी काटने लगी । पाँच सात बार की कोशिश से आखिर केसर महीन तार को लंबा रखने में कामयाब हो गयी । जब उसने इस तार को तकले पर लपेटा दिया तो उसके चेहरे पर संतोष देखने लायक था । उसने पूनी वाला हाथ हवा में लहराया तो इस बार तार पहले से भी लंबा और महीन बना था । वह खुशी से चिल्लाई –
सरदारनी देख बन गया ।
हाँ केसर तुझे तो बहुत महीन और सुंदर कातना आ गया । बिल्कुल बेबे जी जैसा - बसंत कौर ने चौके से ही देखते हुए तारीफ की ।
उस दिन केसर ने रोटी पकते पकते दो गलोटे उतार लिए । उसकी खुशी का ठिकाना न था । मानो उसने जग जीत लिया हो । मन में आया कि आज वह दिल खोल कर नाचे । न हो तो मोरनी की तरह पंजों के बल लहराती हुई चले पर संकोच ने उसके पाँव जकङ लिए । उसने पीढा टेढा किया । चरखा दीवार के साथ लगाया । हाथ धोने नलके के पास आई । परछाई नलके के पास पङ रही थी – मतलब अभी आठ ही बजे है । उसका दिल धक से रह गया । सिर्फ आठ । उसने तो सारा काम निपटा लिया और अभी आठ ही बजे हैं । अभी इतना दिन पङा है । सारा दिन वह कैसे काटेगी ।
भोला सिंह रात से संतुष्ट होकर अभी सो रहा था । बसंत कौर के दो बार उठाने पर भी उसका उठने का मन ही नहीं हुआ । एक अजीब सा खुमार उस पर तारी था ।
बसंत कौर ने रोटियाँ देसी घी से चुपङी । उन्हें पौने में लपेट कर कटोरदान में ढक कर रख दिया और भोला सिंह को उठाने गयी – उठो जी आज तो दोपहर हो गयी । उठ जाओ अब तो ।
भोला सिंह ने कोई जवाब नहीं दिया तो वह कलाई उटा कर ताप देखने लगी – उठो भी , तबीयत ठीक है न आपकी ।
न बिल्कुल ठीक नहीं है । तू ठीक कर दे न – भोले ने बीबी को अपने आगोश में खींच लिया ।
बसंत कौर तङपी – हाय मैं मर जाऊँ । कुछ तो शर्म करो । बाहर सूरज देखो । कितना ऊँचा चढ आया है । - वह चिकनी मछली की तरह उसके हाथों से फिसल गयी ।
चल तू कहती है तो उठ जाता हूँ – वह आँखें मलता हुआ पलंग छोङ कर उठ गया ।
बसंत कौर लाज से सिंदूरी हुई पङी थी । उसने अपना दुपट्टा ठीक किया और सीढियां उतर गयी ।


बाकी कहानी फिर ...

 

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