Bhakti and Shakti (Vedanta excerpt) books and stories free download online pdf in Hindi

भक्ति और शक्ति ( वेदांत अंश)

भक्ति में बहुत शक्ति होती है। भक्ति का तात्पर्य है-स्वयं के अंतस को ईश्वर के साथ जोड़ देना। जुड़ने की प्रवृत्ति ही भक्ति है। दुनियादारी के रिश्तों में जुट जाना भक्ति नहीं है। भक्ति का मतलब है पूर्ण समर्पण। सरल शब्दों में हम कहते हैं कि हमारी आत्मा परमात्मा की डोर से बंध गई। ईश्वर के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित होने वाला सच्चा साधक ही भक्त है। जिसके विचारों में शुचिता (पवित्रता) हो, जो अहंकार से दूर हो, जो किसी वर्ग-विशेष में न बंधा हो, जो सबके प्रति सम भाव वाला हो, सदा सेवा भाव मन में रखता हो, ऐसे व्यक्ति विशेष को हम भक्त का दर्जा दे सकते हैं। नर सेवा में नारायण सेवा की अनुभूति होने लगे, ऐसी अनुभूति ही सच्ची भक्ति कहलाती है। भक्त के लिए समस्त सृष्टि प्रभुमय होती है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-जो पुरुष आकांक्षा से रहित, पवित्र, दक्ष और पक्षपातरहित है, वह सुखों का त्यागी मेरा भक्त मुझे प्रिय है, परंतु अफसोस यह कि इस दौड़ती-भागती और तनावभरी जिंदगी में हम कई बार प्रार्थना में भगवान से भगवान को नहीं मांगते, बल्कि भोग-विलास के कुछ संसाधनों से ही तृप्त हो जाते हैं। जब व्यक्ति दुनियादारी से दूर हटकर अपनी महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रित करता है, तभी उसकी चेतना झंकृत होती है और परमात्म चिंतन में ईश्वरीय भक्ति साकार होने लगती है। भक्ति थी मीरा की, भक्ति थी चैतन्य महाप्रभु की, बुद्ध की, नानक की और महावीर की। जब सब लोग रात में सो जाएं और उस समय भी जिसके मन में परमपिता को पाने की हुंकार उठे, तो समझें वही सच्चा भक्त है। भक्त सही मायने में सुख और आनं का पर्याय है। जब आपकी कामना या प्रार्थना राममय हो जाए, तो समझें कि यही भक्ति है। भक्त ही एकमात्र ऐसा है जो हृदय से यदि भगवान को याद करे तो परमपिता भी स्वयं को उसके अधीन कर देते हैं। इसलिए कहा भी गया है कि सच्ची भक्ति से भगवान भी भक्त के वश में हो जाते हैं। भक्तिभाव का आधार प्रेम, श्रद्धा और समर्पण है। भगवान राम ने शबरी के झूठे किए बेर भी प्रेम और भक्तिभाव के कारण खाए थे। मन में भक्ति भाव के उठने के बाद भक्त के व्यक्ति्व के नकारात्मक गुण दूर हो जाते हैं और उसके व्यक्तित्व का उन्नयन होने लगता है। भक्त अहंकार से मुक्त होकर अपनी अंतस चेतना में ईश्वर की अनुभूति करने लगता है।
शक्ति शरीर को संचालित करती है। जिस कारण यह पंचतत्व से निकल कर एक ऊर्जा के भांति विचरण कर और अन्ततः पंच में विलीन होकर निष्प्राण हो जाता है।
संपूर्ण ब्रह्मांड शक्ति आश्रित ही तो है। परंतु शक्ति का समायोजित रूप ही शक्ति है। जिस पाकर भक्ति जागृति अवस्था में तरुण होने लगती है अन्यथा शक्ति का कोई सामर्थ्य नहीं रह जाता है। जिस कारण ही भक्ति और उपासना के योग शक्ति के बल पर ही आधारित है। अगर आपको लगे की भक्ति जागृति है। तो नही कदापि नही यह सब शक्ति आधारित है। यही एक मात्र भक्ति और शक्ति का प्रायोज्य है। इसके अलावा भक्ति का गुण धर्म वह सब मनसा वाचा कर्मणा पर भी आधारित है परंतु वह एक अलौकिक दृष्टि का स्पर्शी है। इसलिए शक्ति और भक्ति एक दूसरे की पूर्ति करता है।



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