डा.प्रभात समीर
भीखा को मैंने पहली बार अलका के घर में देखा था । उसके ड्राइंगरूम में बैठी किसी पत्रिका के पृष्ठ पलटती हुई मैं उसकी प्रतीक्षा कर रही थी । ड्राइंगरूम के दायीं ओर का दरवाज़ा अलका के पूजाघर की ओर खुलता है, जहाँ से सौंधी-सौंधी सुगंध सारे घर को महकाती रहती है ।वहाँ से आती तेज़ आवाज़ से मेरा ध्यान बंटा....गाने की आवाज़, कभी धीमा, कभी तेज़ एकतरफ़ा वार्तालाप और उसमें लगातार गूँजता ’
‘गोबिंदा’नाम। मैंने सोफ़े से उचककर पूजाघर की ओर देखा तो एक पुरुष आकृति दिखाई दी। निश्चित ही वह अलका का नौकर होगा। अलका के देवालय के सारे आराध्य एक परात की सुरसरि में डुबकी लगवाने को रख लिए गए थे और वह उनसे बातें करने में व्यस्त था । ‘.....जैसो मेरौ सामरौ, बारौ गोबिंदा, बैसेई तुम।’ कृष्ण-कन्हैया की मूर्ति उसके हाथ में थी ।
तब तक दूसरे आराध्य देवता के स्नान का नंबर आ चुका था। वह सुर में कहता जा रहा था, ’तुम गोबिंदा जैसे तो मैं दसरथ...। मेरौ गोबिंदा भी मेरी बात कबहूँ टाल नांय सकै...’उसके चेहरे पर अजीब तृप्ति का भाव था ।
अलका किसी भी देवी-देवता को रुष्ट नहीं कर सकती, इसीलिए उसके पूजाघर में अधिकांश इष्टदेव विराजमान हैं । नहाने के बाद वह तीर की गति से सीधा पूजाघर में जाती है, दस-पंद्रह मिनिट में धूपबत्ती, अगरबत्ती दिखाकर, मंत्र-श्लोक से अपने सभी आराध्यों को प्रसन्न करने के बाद ही वह अपनी शेष दिनचर्या की ओर बढ़ती है। अलका में जितना भक्ति-भाव है, काश!उतना समय भी होता। ठाकुर जी का स्नान, उनकी साज-सज्जा नौकरों के भरोसे छोड़कर ही वह पुण्य कमा पाती है ।
जितनी त्वरा से अलका की पूजा होती है, उतनी ही तेज़ी से उसके नौकर के हाथ और जीभ भी चल रहे थे । वह अब हँसते हुए गोल-गोल घूम रहा था और तभी अचानक रूआँसा होकर किसी मंगलमूर्ति से बोला, ‘सारे लडुआ आपई चट कर जाऔ हौ, मेरे गोबिंदाय ...........’ अभाव की पीड़ा में गणपति को दिया जाता उसका उल्हाना अधूरा ही छूट गया । उसकी हँसी-ठिठोली, उसकी पीड़ा, उसका गर्व, सबका केंद्र-बिन्दु उसका ‘गोबिंदा’ था और ऐसा लग रहा था मानो अलका के देवालय में विराजमान सभी इष्टदेव उसके ‘गोबिंदा’ के किसी न किसी गुण को लेकर ही देवत्व को प्राप्त हुए थे ।
काम के साथ में उसका गाना और थिरकना निरंतर जारी था ।बीच-बीच में उसका काम बिल्कुल रुक जाता और वह ताली बजा कर और तेज़ नाचने-गाने लगता ...-’ गोबिंदा लीनो मोल, माई री, मैंने गोबिंदा लीनो मोल.....’अचानक फंसे रिकार्ड की तरह उसकी आवाज़ ‘लीनौ मोल’पर अटककर रह गयी । तभी उसने मुझे देखा और हमले से पूर्व किसी सायरन की सी तेज़ आवाज़ करता हुआ वह मेरे सामने आ खड़ा हुआ ।मुश्किल से ‘कैसी हौ जिज्जी?’कहते हुए वह असली मुद्दे पर आ गया, ‘काय की पढ़ी-लिक्खी हौ, जिज्जी, भीखा कौ बीमा नाय करा सकीं ?’
वह स्थिर नहीं था, उसकी थूक के छींटे मुझ तक पड़ रहे थे और उस सबसे बेखबर, मेरे बोलने की गुंजाइश छोड़े बिना, वह कहता जा रहा था, ‘भीखा के मरबे पै सारौ पईसा गोबिंदाय मिलनौ चइएं.......’
उंगलियों पर गिनकर वह अपनी आमदनी का गणित मुझे समझाता कि तभी मैंने पूछ लिया- ‘यह भीखा कौन है ?’ठहाका लगाकर मेरी बुद्धि पर तरस खाता हुआ वह बोला... ‘ भली कही, मैं ई तो हतूँ भीखा।’
मैने उसे सिर से पैर तक देखा । लगभग पैंतीस-छत्तीस की उम्र, औसत कद, ढीली-ढाली कमीज से ढंकी उसकी सिकुड़ी देह, सस्ते खिजाब से रंगे ज़़रूरत से
ज़्यादा काले, खड़े बाल। छोटे से माथे पर कहीं चमकता तेल तो कहीं उसे और भी बदरंग बनाते खिजाब के धब्बे । तेजहीन चेहरे पर चमकती उसकी सवाली आँखे । उसके सूखे होठों के इर्द-गिर्द जमी थूक की सफेदी, दाढ़ी-मूँछ की जगह सफेद-काले बालों के चमकते खूँटे....
। उसके चेहरे पर नज़र टिकाना कठिन हो गया। तभी अलका को आते देख, वह रसोईघर की ओर भागा। मैं भी अलका से बातचीत में व्यस्त होकर उसकी हरकतों को भूल ही गई।
लेकिन भीखा कहाँ भूलने देता। कुछ दिन बीते थे कि वह फिर मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। मैं घर के दरवाज़े पर खड़ी अपने विद्यार्थियों से बातचीत में व्यस्त थी कि तभी उनके बीच में से उचककर उसने अपनी उपस्थिति दर्ज की। देखते ही अलका के घर का सारा दृश्य मेरी आँखों के सामने से घूम गया। उसने कहा- ‘जिज्जी, मोए नौकर रख सकौ का ?’प्रश्न करते हुए उसने अपनी योग्यता का परिचय भी दे डाला, ’मेरौ जैसौ काम तो मशीन भी न कर सकै.... ‘ अपने विद्यार्थियों को विदा करके मैं घर के अन्दर चली तो कुछ जमा-जोड़ करता हुआ वह भी मेरे पीछे आ गया।अंदर पहुँचने तक उसने हिसाब -किताब करके मुझे अपनी पगार भी बता दी। मैं बोलने को हुई कि तुरंत उसने रियायत के तौर पर पचीस रुपए कम किए और जो़र से ताली बजाई। यह ताली उसके निर्णय और लगभग आदेश का प्रतीक थी। उसकी ओर से एकतरफ़ा निर्णय भी हो गया- चलौ, काम की बात तौ है गयी पक्की ।’ फिर लगभग फुसफुसाते हुए बोला ’बस्स, मेरे गोबिन्दाए पढ़ाय दइओं....’
मेरा धैर्य जवाब दे चुका था, उसे डाँटते हुए कहा ‘ मैं छोटे बच्चों को नहीं पढ़ाती....’सुनते ही वह एकदम बुझ गया। क्षण भर को उसके चेहरे पर मुर्दानगी छाई और फिर वह जो़र से हँसते हुए बोला, ’कैसे- कैसे बैलन कूँ पढ़ाय देत हो और मेरे गोबिंदा कूँ नाएँ पढ़ाय सकौ....’कहकर वह कुलाचें भरता हुआ निकल गया। मेरे शोध- छात्र ही अपने गोबिंदा की तुलना में उसे इतने बड़े लगे होंगे कि उन्हें उसने ‘बैल’ कहा होगा। हो सकता है कि वे उसे अपने ‘गोबिंदा’ जैसे गुणी और ज्ञानी भी न लगे हों।
इसके बाद भीखा गायब हो गया। नौकर के अभाव में एक-दो बार मुझे उसका ख्याल आया और निकल गया। कई दिनों बाद, एक दिन बहुत सुबह मेरे घर की डोरबैल बजी। उनींदी आँखों से दरवाजा खोला तो भीखा सामने खड़ा था। मुझे इतनी सुबह जगा देने का बोध उसकी आँखों में उभरा और गायब हो गया। कमीज की ढीली-ढाली बाहों को ऊपर चढ़ाता हुआ ‘चाय बनाऊँ का?’ कहता हुआ रसोईघर की ओर बढ़ गया।
अपनी व्यस्तता और उपयुक्त नौकर न ढूँढ पाने की विवशता के कारण मेरा अवचेतन पहले ही भीखा को नौकर रूप में स्वीकार कर चुका था। आज उसकी उपस्थिति से राहत मिली। दरवाज़ा बंद करने को आगे बढ़ी तो पन्द्रह-सोलह वर्ष के लड़के को सामने खड़ा पाया। आबनूसी रंग, गए-बीते नाक-नक्श, हाथ में कुछ किताबें लिए वह अंदर आने के लिए नहीं, शायद भाग जाने के लिए खड़ा था।मैंने ही हाथ पकड़कर उसे घर के अंदर ले लिया।अलका के देवघर में स्थापित देव प्रतिमाओं से मैंने उसका साम्य बिठाने की कोशिश की, उनका अंशमात्र भी उसमें दिखाई नहीं दिया, पर समझ में आ गया कि वही भीखा का ‘बारौ, सामरौ, आज्याकारी गोबिंदा’ है। किसी भी अप्रिय परिस्थिति का सामना न करना पड़े, यह सोचकर भीखा बेटे को अकेला छोड़कर रसोईघर में पहले ही पहुंच चुका था ।मुझे भीखा की आवश्यकता थी, इसलिए गोविन्दा को भी स्वीकार करना पड़ा ।
कालिज जाने से पहले का मेरा समय अपने फूल-पौधों के बीच बीतता है। एक कोने में फलता-फूलता मेरा किचन गार्डन मेरा खूब वक्त लेता है। मैंने सोच लिया कि सुबह के उस वक्त में ही गोविन्दा को पढ़ने के लिए बुला लूंगी ।
कई दिन तक गोविन्दा बिलकुल गूंगा-बहरा बना रहा। न बोलता, न सुनता, न स्वीकार करता। कभी उसके हाव-भाव से ऐसा लगता कि वह बहुत अशिष्ट और अहंकारी है और उसे मेरा शिक्षकरूप स्वीकार्य ही नहीं है तो कभी वह इतना मूढ़ लगता कि उसके साथ समय बर्बाद करने की कोफ़्त होने लगती। भीखा था कि अपने बेटे के विपरीत एक शब्द भी नहीं सुन सकता था। वह तो तन-मन से उसे एक बड़े अफ़सर के रूप में स्वीकार कर चुका था। उसके हाथ में किताब- कापी देखते ही वह झूम उठता......’अय जिज्जी देखिओ, जे तो कोई बड़ा ओफीसर लागै है....’ अब तो मुझे गोविन्दा से ज़्यादा भीखा की मासूम भावनाओं की फ़िक्र होने लगी थी ।
गोविन्दा को सहज करने के लिए उसकी रुचि और स्तर पर बात करके मैंने उसका विश्वास जीता और उसकी जड़ता को समाप्त किया।पढ़ाई के अलावा वह सभी कामों में रुचि लेने लगा।पोदीना, धनिया, करीपत्ता, मिर्च, लेमन ग्रास, पालक, गोभी बैंगन....... दिन निकलते ही छोटा सा प्रकृति का वह संसार अब मुझसे ज़्यादा गोविन्दा की प्रतीक्षा में रहने लगा।कौनसी मिर्च, कौनसा टमाटर, कौन से पत्ते आज डाल से रसोई में जाएंगे, कौन से फूल ड्राइंगरूम को महकाएंगे, किसको धूप, किसको खाद, किसको पानी…..सब गोविन्दा का दायित्व।मेरी चाय, मेरी किताबें, मेरे स्कूटर की दुःख देती तकनीकी बारीकियों को ठीक करने जैसे काम भी उसीके । भीखा के अधिकार क्षेत्र से भी बहुत कुछ खिसककर गोविन्दा के हाथों में पहुंच रहा था।मेरे घर में बने रहने के लोभ में गोविंदा अब थोड़ा बहुत पढ़ने लगा, नियमित स्कूल जाने लगा, और खुश भी रहने लगा ।गोविन्दा के आने से भीखा का काम कम हुआ तो उसकी नसीहतें बढ़ गईं। अक्सर काम करते हुए उसके हाथ थम जाते, वह किसी बड़े बुजु़र्ग की तरह सलाह देने लगता ‘जिज्जी, बेटन के भरोसे मती रहिओं...’ उसका स्वर धीमा हो जाता ‘नजर न लगै, सारे बेटा गोबिंदा जैसे नाईं होत । जे तो साच्छात गोविन्दा है जीजी।’
कई बार वह कुछ गाने जोड़-तोड़कर अपना एक नया गाना बना लेता जिसका भाव यही रहता कि उसने अपने गोविन्दा को झोली फैला कर भगवान से भीख में लिया है, इसलिए तो उसका नाम भीखा है। जबकि सुनने में आता कि भीखा के व्यक्तित्व, स्त्रैण भाव और निकम्मेपन से दुखी होकर ही उसकी पत्नी कुछ दिन के गोविन्दा को छोड़कर घर से चली गई थी और तब भीखा दहाड़ मार-मार कर रोया था । कुछ दिन तक उसका रोना-धोना, प्रलाप -विलाप खूब सुना गया और फिर निकम्मा, निठल्ला भीखा अचानक बहुत कर्मठ और ज़िम्मेदार बन गया। उसके बाद जिसने भी उसे देखा मस्त, बोलते और बड़बड़ करते हुए ही देखा।
गोविन्दा भी अपने पिता की तरह खूब बोलने लगा था, लेकिन भीखा के नाम भर से उसे साँप सूँघ जाता। पिता को लेकर अपने इर्द-गिर्द खींची गयी उसकी इस दीवार में मैंने कई बार सेंध लगाने की कोशिश की, लेकिन सफ़ल नहीं हो सकी। मुझे क्या मालूम था कि इस दीवार को तोड़ने का काम भी एक दिन खुद भीखा ही करेगा ।
उस दिन मैं अपनी किताबों को करीने से लगाने में जुटी थी । पास बैठा गोविन्दा किसी कविता को पढ़कर उसका अर्थ पूछता जा रहा था। तभी भीखा घर में घुसा। चेहरे पर दोगुना उत्साह और खुशी लिए वह पास में आकर ज़ोर-ज़ोर से गाने लगा। गाते हुए वह गोविन्दा को पकड़कर एक ओर ले गया। पहली बार मैंने बाप-बेटे को इस तरह बातचीत करते देखा। मुझे अच्छा लगा दोनों को इतना करीब देखकर ।
भीखा के अतिरिक्त उत्साह और खुशी का कारण भी ।उसके गोबिंदा ने न कोई होटल देखा था, न बड़े लोगों की बारात की, न महंगा खाया-पीया।पहली बार उसका गोबिंदा अमीरों की इस चकाचौंध की शुरु से आखिर तक हिस्सेदारी करेगा । कामही ऐसा था। लड़के वालोंको किसी फुर्तीले और विश्वसनीय नौकर की ज़रूरत थी जो सिर्फ़ दूल्हे की सेवा में बना रहे । ‘दूल्हे का साथ!’ भीखाकी नज़र में इससे महत्वपूर्ण और क्या हो सकता था । भीखा जैसा मेहनती और ईमानदार नौकर अगर अपने बेटे को यह ज़िम्मेवारी सौंपे तो भला कौन मना करता? अचानक भीखा गोविन्दा को पकड़कर नाचने-गाने लगा ’ मेरौ गोबिंदा जाएगौ, हलुआ -पूरी खाएगौ।‘
अचानक गोविन्दा की कर्कश आवाज़ के सामने भीखा खुशामदी होने लगा। ‘लल्ला, तेरे करिबेकूँ जादा कछू काम नाएं, काम करिबै कूँ मैं रहूँगौ।‘
वह गाते- नाचते गोविन्दा की शादी, उसकी बारात और अपने सीमा क्षेत्र में आने वाले कितने ही पकवानों, मिष्ठान्नों के नाम गाकर सुनाने लगा कि तभी गोविन्दा ने ज़ोर से उसका हाथ झटक दिया।भीखा को इस सबसे क्या ?वह मेरी ओर मुड़कर बोला ‘जिज्जी, बिन माँ कौ बालक हतै, ढंग्ग तै कछु खायबे-पीबे कूं नांय मिलौ ...’गोविंदा के चेहरे की मांसपेशियां कसती जा रही थीं, आँखों से अंगार से निकल रहे थे, उसने भीखा को धक्का दिया, आत्म-नियंत्रण खोकर बोला-‘मैं क्या भीखा हूँ, जो लोगों के घरों की जूठन उठाता और खाता फिरूँ। मेरी भी इज्जत है। तुम जूठन खाओ, तुम जूठन उठाओ ।’ उसने पिता को झिंझोड़ डाला-‘किसने कहा था...मेरे लिए खाना-पैसा तुम तय करो...’ गोविन्दा मेरी उपस्थिति भी भूल चुका था।आवेश में लगभग थूकते हुए कहा- ‘थू
कता हूँ तुम पर, तुम्हारे काम पर । तुम जैसे गन्दी नाली के कीड़े को रेंगता छोड़कर माँ तो चली गई, मैं भी ...’कहता हुआ गोविन्दा घर से निकल गया।
बड़बोला भीखा भोंचक्का खड़ा थाण् सन्न और संज्ञाशून्य । वह देर तक दीवार से टिका खड़ा रहा मेरे मुंह से भी आज बोल ही नहीं निकल रहे थे।अचानक वह ज़मीन पर बैठकर दहाड़ मारकर रोने लगा और रोता ही चला गया। शायद ऐसी ही दहाड़ उसने तब मारी थीं जब उसकी बीबी छोटे से गोविन्दा को छोड़कर घर से गायब हो गईथी ।तब भी उसका वर्तमान बहुत बदरंग हो गया था, तब भी वह रोया था और उस रुलाई ने ही उसे फ़िर दृढ़ता से अपने जीवन के सच को स्वीकार कर लेने की शक्ति दी थी । तब मज़बूत होकर उसने अपने ‘गोबिन्दा’ के सहारे अपने बदरंग वर्तमान में कल्पनाओं और आशाओं के भरपूर रंग भर डाले थे।अपने रंगबिरंगे सपनों में वह आए दिन और इज़ाफा करता जा रहा था मैं आज भी उसकी रुलाई के बाद जन्म लेती उसकी उसी मज़बूती की उम्मीद में बैठी थी। वह खूब रोएगा, फ़िर मज़बूत होकर सच का सामना करेगा, यह मानकर मैंने भी उसे रोते रहने दिया। लेकिन अपने आने वाले वक्त का इतना भद्दा सच भीखा को स्वीकार्य नहीं था। उसने आंसू पोंछे मेरे पास आकर बोला- ‘जिज्जी, मेरौ गोबिंदा तौ ऐसौ है ही नांय सकै। कछु नजर-फजर कौ चक्कर लगै है...।’ मुझसे आँख मिलाए बिना वह घर से निकल लिया ।इस बार सन्न खड़े रहने की मेरी बारी थी ।
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