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रवानगी एक रिश्ते की

डॉ.प्रभात समीर

हफ़्ते भर में देवेन्द्र की बेटी मिनी का रिश्ता तय हो गया और पन्द्रह दिन बाद का शादी का मुहूर्त भी निकलवा लिया गया।रवि, यानी जिससे मिनी का रिश्ता तय हुआ, विदेश से इन्डिया आया हुआ था। घर वाले शादी के लिए पीछे पड़े ही हुए थे। अब शादी न करता तो दोबारा छुटटी की दिक्कत और अच्छे मुहूर्त निकलवाने के लफड़े। अब तो लड़की भी पसन्द, छुट्टी भी और शुभ मुहूर्त भी, इसलिए हाथों-हाथ शादी का काम भी निबटा देने का मन रवि ने बना ही लिया ।

पन्द्रह दिन में शादी ! देवेन्द्र और उसकी पत्नी जानकी परेशान तो थे लेकिन अपनी परेशानी से भी ज़्यादा उन्हें मिनी के भविष्य की चिन्ता थी। देवेन्द्र का परिवार दिल्ली में और लड़के वाले हावड़ा में । लड़के वालों ने इसमें कोई समझौता नहीं किया। सीधे घोषणा कर दी कि लड़की देखने वे लोग हावड़ा से चलकर दिल्ली तक आ गए, अँगूठी की रस्म भी दिल्ली वालों के सामने हो गई, अब जो कुछ भी होगा वह हावड़ा में ही होगा। मिनी का अच्छे घर में रिश्ता मायने रखता था, उसकी ख़ातिर कोई भी दूरी नापी जा सकती थी और हावड़ा की ऐसी दूरी ही क्या थी कि वहाँ शादी के प्रबन्ध न किए जा सकें। मिनी से छोटे देवेन्द्र के दोनों बेटों, टीनू और मोनू, को तो मौज-मस्ती से मतलब था, यार- दोस्तों के साथ की ज़रूरत थी फिर चाहे शादी कभी भी और कहीं भी हो।

इस निर्णय से अगर बहुत परेशान और दुःखी थे तो वह थे देवेन्द्र के पिता, जिन्हें सभी‘पापाजी’ कहकर बुलाते थे। देवेन्द्र की शादी के बाद अब बड़े नसीब से उनकी पोती मिनी की शादीहो रही थी घर का इतना बड़ा काम और वह भी पराए शहर में जाकर ! सारी बिरादरी और पहचान तो दिल्ली में थी और शादी करें बेगानों की तरह अजनबियों के शहर में !

पापाजी जितना ज़्यादा तनाव में होते उतना ज़्यादा खाँसना और हाँफना शुरु कर देते । खाँसते और हाँफते हुए वह मुश्किल से कह पाए –

‘मेरा तो शरीर ही सफ़र की इजाज़त नही देता।’

जानकी को पापाजी का हर समय बीमारी का रोना बिल्कुल अच्छा नही लगता, झिड़कते हुए बोली-

‘पापाजी, आप अपने शरीर के अलावा कभी कुछ और सोच पाते हो? आपका शरीर देखूँ कि मिनी की खुशी?’

छलकते आँसुओं को बचाकर, वह गर्मजोशी से बोले -

‘मेरी मिनी का सुख तो सिर माथे। बस, ज़रा दिल्ली में शादी कर लेते तो वीरां भी देख लेती।’

वीरां यानी देवेन्द्र की माँ, पापाजी की पत्नी, जिसे गु़ज़रे कई साल बीत चुके थे, लेकिन पापाजी थे कि जैसे-जैसे बूढ़े रहे थे, उदासीनता और परायेपन के शिकार होते जा रहे थे ।जितनी गहन अवसन्नता, और अकेलापन, उतनी ही ज़्यादा वीरां की याद ।जो रिश्ता शरीरी रूप से खत्म हो चुका था, वह उनके इर्द-गिर्द रहता और वे जो घूमते-फिरते बोलते-बतियाते उनके चारों ओर थे, उनकी भावनात्मक उम्र खत्म हो चुकी थी, पापाजी से उनके सम्बन्ध कब के मर चुके थे। अब तो पापाजी की खुशी में, उनके दुःख में, उनकी बीमारीमें, उनकी यादोंमें, शरीर से अनुपस्थित होकर भी, एक अकेली वीरां अपनी भागीदारी बनाए रखती थी । उनका सीधा संवाद वीरां से चलता रहता और अपने अनुकूल ही उसकी आवाज़, उसके जवाबों की कल्पना से उनके चेहरे पर खुशी और संतुष्टि का भाव छलक जाता।टीनू, मोनू, मिनी, उनके दोस्त और यहाँ तक कि जानकी, उसकी सहेलियाँ उनकी इस एकतरफ़ा गुफ़्तगू का मज़ाक उड़ाते, लेकिन पापाजी बेअसर रहते । अभी भी पापाजी ने दीवार को, जहाँ कभी वीरां का फोटो लगा था, को ताकते हुए शिकायत की -

’जानती है न तू, कब से तो मैंने सफ़र नहीं किया।’

टीनू है तो सबसे छोटा, लेकिन कद-काठी में फैला होने से वह अक्ल में भी अपने आप को सबसे बड़ा मानता है। घुड़कियाँ देने में वह सबसे आगे रहता है। आज भी वह मौका कैसे गँवाता, दूर से ही गुर्राया -

‘आपसे किसी ने सफ़र करने को कहा है?’

‘मुझे कौन कहेगा? मेरी मिनी की शादी है तो मुझे तो जाना ही पड़ेगा।’

मिनी, मोनू, टीनू आपस में कितना भी लड़ते- झगड़ते हों लेकिन पापाजी से मोर्चाबंदी में एक रहते हैं । तीनों एकसाथ चीखे-

‘पापाजी, टाइम कम है। आप सेन्टी होके कोई अड़ंगा मत डाल देना।’

पापाजी बच्चों से टक्कर नहीं ले सकते, वह तो अपने आप से ही लड़ने लग जाते हैं, अकेले नहीं चलता तो वीरां को ढाल बना लेते हैं । उनकी इन हरकतों से परेशान होकर ही तो बच्चों ने कमरे से अपनी दादी वीरां का फोटो ही हटा डाला था-

‘आप तो ऐसे बड़बड़ करते-करते पागल ही हो जाओगे।’

पापाजी के मामले में बच्चों को किसी तरह की भी सुनवाई स्वीकृत नहीं है । उनमें से कोई एक, या कभी तीनोंभी, स्वनिर्मित न्यायाधीश का पद ग्रहण करके उन्हें अपना एकतरफ़ा फैसला सुना सकते हैं । फोटो हटाने का फैसला भी एकतंत्रीय था । पापाजी आहत हुए, झुके फिर भी नहीं। अब वह कभी दीवार तो कभी आसमान में वीरां को ढूँढकर अपनी भड़ास निकालने लग गए ।

मिनी के रिश्ते ने घर का माहौल बदलकर रख दिया था । भाई-बन्धु, रिश्तेदार, मित्रों से भी घन्टो फोन पर बातें होतीं, सलाह-मशवरा, हँसी-मज़ाक चलता रहता, बच्चोंके दोस्त कभी भी आकर हुड़दंग शुरु कर देते । पापाजी में किसी भी तरह का बदलाव अपेक्षित नहीं था, लेकिन उनके निर्जीव मानलिए गये शरीर में उछाह और उत्साह ने प्राण फूँक दिए थे, उनमें बदलाव दिखाई दे रहा था, जिसे समूल उखाड़ फेंकना इस समय ज़रूरी था ।वह भी हँस-बोलकर, सुझाव देकर सुख जीने की कोशिश करने लगते तो अपशब्दों की तलवारें खिच जातीं। निहत्थे पापाजी अपने लहूलुहान दिल-दिमाग पर दिलासा का मरहम लगाते हुए वीरां को समझाने लग जाते-

‘तेरे बच्चे गाय जैसे भोले, सीधे हैं। तू इन्हें माफ़ कर देना ।’

वह क्या करते ‘घरके मुखिया’ होने के भाव ने उन्हें मुखर बना दियाहै । वह अब देर तक गुमसुम नहीं रह पाते । एक अकेले वही तो हैं, जिन्हें शादी-ब्याह जैसे कामों का तजुरबा है। अपने हाथों से उन्होंने बहन- भाइयों, भतीजे-भतीजियों की शादियाँ की, भांजे-भाँजियों के भात दिये ।रिश्ते-नाते, दूरियाँ, नज़दीकियाँ, अपने-बेगाने....मेहनत और मदद के नशे में उन्हें कुछ याद नहीं रहता था ।आज भी लोग उनकी और वीरां की मिसाल देते नहीं थकते कि उन्होंने अगर दायित्व उठाया तो उसे अपनासुख मानकर जीया भी और निभाया भी । अपने देवेन्द्र की शादी क्या कम जोर-शोर से उन्होंने की थी?

अब तो उनकी अपनी मिनी की शादी है। है।बेटे और बहू को ऐसे कामों का अनुभव ही कहाँ है? रहे मोनू और टीनू....... उन्हें बात करने का सलीका तक तो है नहीं, शादी क्या संभालेंगे..... उन्होंने अपने ऊपर बेहद मानसिक बोझ डाल लिया है।फ़ालतू सामान की तरह बिस्तर के एक कोने में सिमटे रहने वाले पापाजी अब बार-बार जानकी को आवाज़ देते, कुछ पूछते, जवाब न मिलने पर भी समझाने-सुझाने लग जाते और फिर चारों ओर इस भाव से देखते मानो आज वह न होते तो क्या सब कुछ इतना ठीक-ठाक चल पाता? वह वीरां से बातें करते हुए हँसने लग जाते, आती-जाती मिनी से हल्के- फुल्के मज़ाक करके फूले न समाते, बहू से शगुन के गीत गाने की फरमाइश करते हुए वह वीरां की मीठी आवाज़ की तारीफ़ करने लग जाते और कभी उसके गाए गए गानों की लाइनों को दोहराने लगते। वह बच्चों को बताने लग जाते कि कैसे देवेन्द्र की शादी में महीने भर पहले से घर में ढोलकी बजनी शुरु हो गई थी, कैसे वीरां ने बताशों की बोरियाँ मंगाकर रख ली थीं, जिन्हें वह दिल खोलकर रो़ज़ बाँटा करती थी। वह यह कहते हुए कई बार हँसी से दोहरे होते चले जाते कि रात में सब औरतों के चले जाने के बाद वह और वीरां टप्पे गाने बैठ जाते और सवाल-जबाब में एक दूसरे को तंग करते। देवेन्द्र के बारे में बताते हुए उनके चेहरे पर अलग ही रौनक आ जाती -

‘ तुम्हारा डैडी क्या ऐसा बेरौनकी था! ये तो खुद हमारे साथ ढोलक बजाता, गाने गाता, डाँस करता, कितने स्वाँग रचा करता था ।’

कहते हुए वह और भी उदास हो जाते और बुदबुदाने लगते-‘मुझे अब तो पता ही नहीं चलने देते कि घर में शादी जैसा भी कोई काम है।’

((पापाजी की कोई भूमिका हो तब तो उन्हें कुछ बताया जाए, बल्कि उनकी हरकतों और दखलंदाज़ी से केलिए उन्हें और भी अलग-थलग करना ही आवश्यक था। पापाजी को क्या, वह तो रोज़ सुबह उंगालियों पर शादी के बचे हुए दिनों की गिनती करते और घर में चलते हुए ढुलमुल कामों से जब परेशान होने लगते तो नसीहतें देना शुरु कर दे ते ।))

आखिरकार एक दिन पापाजी के सामने हावड़ा जाने वालों की लिस्ट बननी शुरु हुई। उनका नाम किसी ने भी नहीं लिया। पापाजी गर्व से भरे बैठे रहे कि बेगानों की तरह उन्हें लिस्ट में जोड़ने की हिम्मत भला किसकी हो सकती थी? वह तो खुद ही कर्ता-धर्ता और नियन्ता हैं । उन्होंने वैसे ही एहतियात के तौर पर देवेन्द्र से पूछ डाला-

‘मेरा कोई नया जोड़ा सिलवा दिया है या पुराने को ही....?’

टीनू को गम्भीर कामों में पापाजी का बोलना बिल्कुल नहीं भाता, फटाक से बोला-

‘ नया जोड़ा और आप?’

पापाजी फिर भी नहीं समझे -

’पहली मिलनी तो मुझे ही करनी है, नए कपड़े होते तो ठीक रहता।’

मिनी ने अपनी आवाज़ में शक्कर घोलकर उन्हें समझाने की कोशिश की कि उनकी बीमारी और बुढ़ापा उन्हें ऐसी ख्वाहिशों की इजाज़त नहीं देते । पापाजी ने कुछ नहीं सुना, एक ही बात की रट लगा दी-

’घर के बड़ों के बिना भी कहीं ऐसे कारज होते है?’

किसी को उम्मीद नहीं थी कि पापाजी एक ज़िद्दी और बिगड़ैल बच्चे की तरह एक ही बात को पकड़कर बैठ जाएंगे।‘ घर के बड़े ! इ नका अनुभव और ज्ञान!अपनी साँस और थूक तक तो सिमटती नहीं !’ पापाजी को क्या, वह तो वीरां को सुनाते जा रहे थे -

‘ शादी कोई बच्चों का खेल है जो इन पर छोड़ दूँगा ?’

ऐसी दृढ़ता उनकी आँखों में कब से देखी ही नहीं गयी थी, वह खाँसना, हाँफना भी भूल गये, उन्होंने ज़ोर से कहा । -

’वीरां, तू फिक्र मत कर, मैंने तो जाना ही है।’

(((।पापाजी की ऐसी हिम्मत को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता था))) ।उन्हें तो साथ जाने का दौरा सा ही पड़ने लगा था

मिनी, मोनू और टीनू बड़े सभ्य और शालीन बच्चों में गिने जाते हैं ।मिनी को तो अपने कालिज में ‘मिस प्रिटी स्माइल’ का ख़िताब भी मिला था, लेकिन पापाजी से बात करते हुए उनकी शिष्टता और मुस्कुराहटों को ग्रहण लग जाता है।सबसे ज़्यादा फायदा टीनू उठाता है। वह पापाजी को कैसे भी बेइज्ज़त कर सकता है, उसकी नादानी पर जानकी तो रीझती ही रहती है, वही बोला-

‘कहीं नहीं जाना-वाना, वीडियोरील देख लोगे तो लगेगा कि आप शादी में शरीक हो गए’।

पापाजी भी ऐसी डाँटों के आदी हो गये हैं । अपमान और असम्मान तो उन्हें रोज़ की दवाओं की तरह मिला करता है। उन्होंने भी इस बार हद ही कर दी।सुबह के समय पाठ करते हुए भी वह बार-बार आँखें खोलकर देख लेते, रात में सोते हुए भी चौकन्ने रहते कि कहीं घर के लोग उन्हें छोड़कर न चल दें औरसाथ में उनका’जानाहै, जाना है’ का रट्टा भी बंद नहीं हुआ । पापाजी के हिसाब से देवेन्द्र और जानकी को तो भगवान का शुक्र करना चाहिए कि वीरां नहीं तो पापाजी तो हैं उनकी सरपरस्ती के लिए, उल्टे उन्हें यहाँ छोड़कर वेअपना ही नुक्सान करने चले हैं। सबने ‘जाना है, जाना है’ को उनका तकिया कलाम ही मान लियागया । और तो और बच्चे उन्हें ‘पापाजी’ की जगह ‘मिस्टर जाना है’ कहकर संबोधित करने लगे।टीनू तो ज़ोर से सिर हिलाकर, झूम झूमकर पापाजी के सामने ही ‘जाना है’ बोलता हुआ सबको इकट्ठा करके कहता कि पापाजी को तो माता आगयी है। निरीह से पापाजी सारा नज़ारा देखते रहते और घर के और सदस्य गुपचुप हँसते कि जाने लिए इतने उतारु बैठे हुए पापाजी जब घर में ही बैठे रह जाएंगे तो कितना खिसिआएंगे।

पापाजी की इस ज़िद्द से कोई नही पिघला, एक अकेला देवेन्द्र कमज़ोर पड़ गया। उसने पैन उठाया और उनका नाम लिस्ट में सबसे नीचे जोड़कर उन्हें दिखा भी दिया।अब बच्चों ने रट लगा दी –

‘वहाँ जाकर अनाप-शनाप मत बोलने लगना।’

‘अनाप-शनाप?’ रिश्तेदारियों में, बिरादरी में, आस–पड़ोस में ऐसा कौन था, जिसने उनके अनुभवों का फायदा न उठाया हो, उन्हें मान न दिया हो। आज वीरां होती तो इन ‘अनाप-शनाप’ वालों को अच्छी तरह समझ लेती । तभी मोनू ने दोहराया -

‘ सुन लिया?न अनाप-शनाप बोलना और न थूकें गिराना’। ’

‘पानी की कमी हुई तो पापाजी सबको थूकों से ही नहला देगें’।- टीनू ने और भी बदतमीज़ी से कहा।

टीनू, मोनू का वश चलता तो हाथ में लेकर ‘नबोलने, न थूकने का सबक रटवाते ।

पापाजी किसी उद्दंड बच्चे की तरह इस अध्याय पर नज़र ही नहीं डालना चाहते ।उनकेपास सोचने औरयाद रखनेको अभी और बहुत कुछ था ।

हावड़ा जाने से पहले पापाजी को एक और बड़ा काम याद आ गया। वीरां के गुज़र जाने के बाद, पैसे और ज़ेवर के अलावा जानकी की नज़र में सास का जो कुछ भी था, वह कबाड़ था, लेकिन पापाजी थे कि सब कुछ समेट कर बैठे थे। चारपाई के पास पड़ा एक टीन का बक्सा उन्होंने खोला, वीरां का जमा किया सामान निकाला, उसे उलटा-पलटा और जानकी को आवाज़ दे डाली, लेकिन उसके तेवर देखते ही सहमकर बोले-’रहने दे तू तकलीफ़ मत कर।’ वह अपने आप से ही कहने लग गए-’मिनी को मेरी तरफ से मेरी वाली एक एफ. डी. हो जाएगी पर वीरां की तरफ से!’

जानकी ने अपनी सास की एक अंगूठी भी अगर उनके पास छोड़ दी होती तो वह आज बड़ी शान से मिनी को उसकी दादी की याद के रूप में दे देते। वह बड़बड़ाने लगे-‘तू ही बता दे वीरां, मिनी को तेरी तरफ़ से क्या देना बनता है ?’

वह ज़ोर से हँसे - ‘अकेली मिनी ही क्यों, टीनू, मोनू की बहुओं को भी तो दादी की तरफ से देना होगा।’ उन्हें वीरां के कंगन, गले के हार, अंगूठियाँ, चाँदी के बर्तन याद आने लगे, जिन्हें जानकी ने लॉकर में रख देने का वायदा करके कभी हवा भी नहीं लगने दी थी। पापाजी ने आहिस्ता से लॉकर खोलकर एक दो गहने ले आने की बात जानकी से की, लेकिन उसके कुतर्कों के आगे चुप्पी लगा कर बैठ गए।

हावड़ा जाने से पहले घर में हवन और पूजा-पाठ कराया गया। पापाजी खुशी के हर एक पल को वीरां से बाँट रहे थे, अहिस्ता से बोले-

‘देख रही है न, अपनी फुलवारी कैसी खिल रही है?’

हवन के बाद पापाजी ने मिनी से पहली और आखि़री बार बात की-

‘मिनी तू चूड़ा ज़रूर पहनना। तेरी दादी के हाथों में भी बड़ा फबा था। है तो तू भी उसीकी पोती। तेरी फबत भी ऐन अपनी दादी की तरह है ।‘

जानकी ने देवेन्द्र से शिकायती लहजे़ में कहा-’ज़रुरी है हर समय मरी हुई को याद करना?’ इसके बाद जानकी ने मिनी को पापाजी के सामने ही नहीं जाने दिया। उनकी बूढ़ी आँखें कुछ-कुछ कहने को मिनी को तलाशतीं और मायूसी भर कर मुँद जाती।

हावड़ा के लिए घर से निकलते हुए पापाजी ने वीरां से गिला किया -

‘तू क्यों चली गयी ? होती तोहाथ तो पकड़ लेती।है कोई यहाँ वाला संभालने वाला ? ’

वह कुछ देरइंतज़ार में खड़े रहे, फिर हिम्मतकी, अपना सामान पकड़ा और अपने कमरे से निकल लिए।((( शादी में सबकी ज़रूरत थी..... देवेन्द्र और जानकी को कन्यादान लेना था, टीनू, मोनू को इन्तज़ाम देखना था, रिश्तेदार और दोस्त उस दिन की शोभा बढ़ाने को और रौनक लगाने को थे।लेकिन पापाजीका वहाँ काम ही क्या था?))) काँपते हुए वह एक किनारे खड़े रहे। देवेन्द्र ने जैसे-तैसे जगह बनाकर उन्हें कार के एक कोने में बैठा दिया। बैठते ही पापाजी ने ऊपर की ओर देखकर दोनो हाथ जोड़े। उनका हाथ जोड़ना मिनी के लिए भगवान का आभार था या शादी में साथ जाने की कृतज्ञता या फिर घर से विदा होते हुए वीरां को किया गया नमस्कार। जो कुछ भी था वह भावविभोर थे।

पापाजी कार में बिठा दिए गए, उतारकर ट्रेन के एक कोने में किसी सामान की तरह जमा दिये गए और भुला दिए गए। किसी को कानों-कान खबर भी नहीं हुई कि कब उन्होंने अपने बच्चों को एक नज़र देख लिया, कब भूख-प्यास से लड़ाई लड़ ली, कब वीरां से बात करके अपने आँसू पोंछ लिए, कब कराहकर खिड़की से सिर टिका लिया और टिके ही रह गए।

ट्रेन चलने के साथ ही सब का हँसना-बोलना, गाना -बजाना, खाना-पीना शुरू हो गया। पापाजी को सब भूल चुके थे । वह तो जब सब लोगों को चाय और कॉफी की तलब लगी तब देवेन्द्र को पापाजी याद आ गये । बच्चे एक स्वर में बोले -

‘ हमारे पापाजी इतने तमीज़दार!’

टीनू हँसने लगा -‘ वीरां की याद तो नहीं सता रही।’

जानकी ने धीरे से कहा-‘लगा होगा ज्यादा बड़बड़ की तो बीच रास्ते से ही वापिस रवानगी न हो जाए।’

पापाजी की तमीज़ और सलीके के लिए बच्चोंने इनाम की घोषणा कर दी । देवेन्द्र ज़रूर उनकी ऐसी फरमाबरदारी को लेकर शंकित था। अब तक तो वह कितनी बार चाय की माँग कर लेते और नहीं तो बार-बार टाइम ही पूछते रहते।उसने चाय का गिलास लेकर पापाजी को आवाज़ दी और जवाब न पाकर खीज गया।

पापाजी क्या जवाब देते, उन्होंने तो किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह बेटे, बहू, पोते-पोती की एक-एक बात मान ली थी। वह न खाँसे, न बड़बड़ाये, न थूकें गिरायीं । उन्हें शांत रहने की नसीहतें दी गई थीं, वह शांत हो गये । उनका चेहरा काठ हो गया था। खुली आँखे अभी भी शायद पूछ रही थीं -‘मिनी की शादी में ले चलोगे?’ देवेन्द्र की घबराहट देखकर टीनू ने ही अहिस्ता से पूछा-

‘निबट गए क्या ?’ देवेन्द्र सन्न खड़ा था।

-‘मालूम था ये ज़रूर कोई गड़बड़ करेंगे। ’

-‘गड़बड़ भी छोटी मोटी है क्या’

‘गड़बड़ नहीं, ये कहो इनसे हमारा सुख और खुशी कभी देखी ही नहीं गयी । ’

‘पता था मरना है, तभी तो साथ चलने की ज़िद्द पकड़के बैठे थे ।’ जानकी ने देवेन्द्र से बचाकर बच्चों के कान में फूँका ।

‘ज़िन्दा रहे तो मुसीबत, मरे तो और बड़ी मुसीबत।’

देवेन्द्र को कुछ नहीं सूझ रहा था। गाड़ी तेज़ रफ्तार में थी। समय बीतता जा रहा था । आखिर देवेन्द्र ने कहा-

‘लड़के वालों को खबर कर देते हैं। शादी तो रोकनी पड़ेगी?’ जानकी ने धीरे से कहा-

‘किसीको खबर करने की जरूरत नही हैं’।

देवेन्द्र चिढ़ गया-

’ तो फिर पापाजी को ऐसे ही लेकर चलते हैं, दाह- संस्कार करके क्या होगा?’ टीनू को बुरा बोलकर भिड़ जाने में बहुत सुख मिलता है, बोला-

‘मन तो यही कहता है कि इनका कुछ भी न किया जाए ।‘

।’ जानकी बहुतगुस्से में थी, -

‘इन्हें साथ में लाकर आपने तो अपने मन की कर ली, न । अब हमें अपनी करने दो’।

सबने निर्णय ले लिया कि दो-चार लोग वाराणसी में उतरकर, क्रिया-कर्म करके पीछे से पहुँच जाएंगे। देवेन्द्र रोने लगा-

‘पापाजी कहते थे कि जहाँ अपनी माँ के लिए जगह बनाई थी, वहाँ ही मेरे लिए.......दिल्ली के लिए उनकी आत्मा भटकती रहेगी।’

-‘बनारस या दिल्ली क्या फ़र्क पड़ता है, ऊपर जाकर तो मिल ही लेंगे।‘

देवेन्द्र शादी भूल ही चुका था। पापाजी के पास बैठे कुछ ओर लोग भी अचानक आ पड़ी इस मुसीबत का हल ढूँढने में जुटे थे। एक-दो ने कहा कि तेरह दिन तक कोई शुभ काम करने का सोचा भी नही जा सकता।जानकी ने किसीकी परवाह नहीं की और चीखी-

‘तेरह दिन? मिनी को घर में बिठाए रखने का इरादा है क्या?’

’और दीदी की जो विदेश जाने की तेयारी है?‘-बच्चों ने अपनी माँ का साथ दिया।

जानकी और बच्चे तो इस बात के लिए भी तैयार थे कि देवेन्द्र की जगह पर एक दो रिश्तेदार और दोस्तों को पापाजी की मिट्टी के साथ भेज दें, पंडित को ज़्यादा पैसे दें और सब काम तसल्ली से करा लें । एक अकेले देवेन्द्र का सुर सबसे अलग निकल रहा था।जानकी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि पापाजी की खातिर देवेन्द्र मिनी के भविष्य को दाँव पर लगाने को तैयार बैठा था। झगड़ा करने का कोई लाभ नहीं था, अपनी बात मनवाने की ज़रूरत थी, जानकी ने अपना रुख बदल दिया। पापाजी को कोसने की जगह उन्हें एक दिव्य आत्मा बताकर हाथ जोड़कर बोली-

‘देव, पापाजी तो बहुत किस्मत वाले हैं । कोई बड़ी आत्मा ही रहे होंगे जो काशी की मिट्टी उन्हें मिल रही है।‘

टीनू कहाँ चुप रहने वाला था, उसने अपनी अक्ल लगाई-

‘बिल्कुल, सुना है यहाँ तो लोग लावारिस लाशों को ले-लेकर चले आते हैं कि मुक्ति मिल जाये।’

‘अपने पापाजी तो सीधे स्वर्ग जाएंगे’-मोनू बोला।

मिनी का धैर्य जबाब दे चुका था।( वह हैरान थी कि अब पापाजी इस संसार में हैं ही नहीं तो उनके लिए इतना समय गँवाने और भावनाएं लुटाने का मतलब ही क्या है?)शीघ्र निर्णय लेने की घड़ी थी और देवेन्द्र था कि बुत बना खड़ा था। ज़िन्दा रहते हुए वह एक भूला हुआ रिश्ता थे, तो आज उस रिश्ते को चिपकाए रखने की क्या ज़रूरत थी। मिनी को देवेन्द्र की भावुकता निहायत बनावटी और दिखावटी लग रही थी। आज तक पापाजी के लिए किसीने, देवेन्द्र ने भी, अपना एक पल भी कभी बरबाद किया! आज जब एक-एक पल की भारी कीमत थी तब देवेन्द्र इस रिश्ते को चिपकाकर बैठा था। देवेन्द्र से लिपटकर मिनी कुछ कहने को हुई कि देवेन्द्र ही बोल पड़ा-

‘शादी में अभी भी चार-पाँच दिन हैं। एक दिन तो पापाजी को दे दो।’

एक-एक सदस्य देवेन्द्र से बहस करे, इतना समय ही नहीं था, समूह में जवाब देकर बात को वज़नी बनाना भी ज़रुरी था, सभी बोले-

एक दिन! अरे, पापाजी के लिए तो कई दिन निकाल लेंगे, लेकिन अभी तमाशा खड़ा मत करो ।’

जानकी और बच्चों ने इसके बाद भी देवेन्द्र को इतना सुना डाला कि एक गुनहगार के अंदाज़ में उसने अपनी जीभ को खुद ही कैद दे दी ।

अंततः वाराणसी पर देवेन्द्र और टीनू कुछ रिश्तेदारों के साथ पापाजी को लेकर नीचे उतर गए। टीनू इस समय सबसे ज़्यादा मस्ती के मूड में था, पापाजी उसे किसी दुश्मन से भी ज़्यादा लग रहे थे , लेकिन देवेन्द्र की अनिश्चिता, ढुलमुलपन और अचानक पैदा हो गये उसके पितृभाव से उसे मुक्तकर जल्दी से जल्दी वाराणसी से लौटा कर ले आने का ज़िम्मा टीनू ही ले सकता था।

गाड़ी से उतरते समय जानकी पापाजी के पैर छूने को आगे बढ़ी और ठिठक गई

-‘घर का पहला शुभ काम करने जा रही हूँ, मुर्दा छूना ठीक नहीं रहेगा ।’

उतरकर देवेन्द्र ने देखा कि जानकी और मोनू हाथ हिलाकर पापाजी को अंतिम विदा दे रहे थे। मिनी माँ के पीछे थी, सामने आ जाने से अशगुन हो जाता। देवेन्द्र के ओझल हो जाने के बाद जानकी कुछ देर सकते में खड़ी रही फिर ईश्वर का धन्यवाद करते हुए बोली-

‘ रब बड़ा मेहरबान है, अगर कहीं ऐन शादी के टाइम पापाजी लुढ़क जाते तो!’

जानकी को पापाजी की बहुत सी बातें याद आने लगीं, जिन्हें उसने झटके में झाड़ा, भगवान के आगे हाथ जोड़े, माफ़ी माँगकर अपनी मिनी के सुख की खैर माँगते हुये कहा-

‘रब्बा माफ करना। ये वक्त कोई मरे हुए को याद करने का है?‘

समय की नाज़ुकता को देखकर पापाजी का संस्कार कराने में काफ़ी तेज़ी बरती गई। थोड़ी सी ही देर में उनका अस्तित्व समाप्त हो गया। सच तो यह था कि पापाजी ही अभी तक संबंधो को जकड़कर बैठे थे, नहीं तो बच्चों के लिये तो यह रिश्ता कबका अस्तित्वहीन और निर्जीव हो चुका था। पापाजी को भी संबंधो की असलियत मालूम थी तभी शायद आखिरी विदाई में उन्होंने न किसी को बुलाया, न कुछ साझा किया और निकल लिए। देवेन्द्र पल भर को लुटा सा, ठगा सा खड़ा रहा तभी उसे टीनू की आवाज सुनाई दी-

-‘पंडित जी, आगे का सारा काम पूरे विधि-विधान से आप करिएगा। मरने वाले हमारे घर के सबसे बड़े थे।’

टीनू के चेहरे पर आत्मीयता या आदर-सम्मान के कोई लक्षण नहीं थे।उसे तो पापाजी से पिंड छुड़ाने की जल्दी थी।

चिता ठंडी होने तक देवेन्द्र रुकना चाहता था, लेकिन टीनू को तो चारों ओर चितायें देखकर घबराहट होने लगी थी। वैसे भी उसे त्वरा में दो टूक निर्णय लेने की आदत रही है। घर में कोई उसका विरोध भी नहीं करता, इसीलिए निस्संकोच वह कुछ भी कहने और करने को आज़ाद रहता है।। उसने घड़ी दिखाई, देवेन्द्र का हाथ पकड़ा और उसे खींचता हुआ वहाँ से ले चला। देवेन्द्र हाथ छुड़ाकर पीछे को लौटा –

‘ कुछ देर और पापाजी के पास रुक लेते।’

टीनू ने देवेन्द्र को कभी पापाजी के लिए अपनी रफ्तार थामते नही देखा। वह कहना भी चाहता था कि पापाजी के जीते जी आप कभी तो उनके पास रुक लिए होते, लेकिन यह समय देवेन्द्र को किसी अपराध से ग्रस्त करने का नहीं था। वह दार्शनिक अंदाज़

में बोला-

‘पापाजी बन गये अतीत! उस अतीत को मरे बंदर की तरह चिपकाकर रखोगे क्या ?’

( टीनू को वहाँ से निकल भागने की जल्दी थी ।)उसने देवेन्द्र को उसका दायित्व याद दिलाया –

‘आप बाप हो, आपके लिए मिनी ज़रूरी है या मिट्टी हो गये पापाजी?

इस घटना ने कुछ देर को सबको हिला कर रख दिया था। यह हिलना और कपना उनकी मौत को लेकर नहीं बल्कि उनकी मृत्यु के गलत समय को लेकर था। अब सब कुछ सामान्य हो गया था। अकेला देवेन्द्र था जो कुछ समय तक बहुत हड़बड़ाया रहा फिर ढर्रे पर आने लगा। पूर्व नियोजित ढंग से ही शादी के सब काम निबटाए जाने लगे। बैण्ड- बाजा, ढोल ताशा, गाना-नाचना, हँसी- ठिठोली, ठहाके -कहकहे- सभी कुछ बड़े ज़ोरदार ढँग से चला। देवेन्द्र भी अपना दुःख भूलकर मस्त हो गया। पापाजी साथ में होते तो उनकी बीमारी, बुढ़ापा, उनका असंयमित व्यवहार शायद उन सबको एक बन्धन में जकड़कर रखता, देखा जाए तो पापाजी सबको और भी मुक्त और मस्त कर गये थे।

मिनी विदा होने लगी तो जानकी ने धीरे से कहा-

‘ पापाजी को याद करके रोने मत लगना’।

उसे डर था कि मिनी को रोते देखकर देवेन्द्र भी कहीं अच्छा-खासा माहौल न बिगाड़ दे। मिनी ने दुपट्टे से मुँह को दबाए हुए आहिस्ता से जानकी को ही डपट दिया-

-’किस रिश्ते को कितना समझना है इतना तो मुझे भी मालूम है’।

मिनी विदा हो गई। उसकी विदाई के बाद कुछ समय शादी के कामों की थकान और खुमार उतरने में बीता, शादी के किस्से याद किये गए, आने-जाने वालों की बधाइयाँ और शुभकामनाएँ ली गयीं, फिर जानकी उदास रहने लगी।

मिनी ससुराल में, टीनू, मोनू की पढ़ाई, दोस्त और आवरागर्दियाँ और देवेन्द्र का अपना आफिस । घर में खालीपन भरने लगा। बैठे-ठाले एक दिन जानकी को पापाजी का ख्याल आ गया। पहली बार उसने देवेन्द्र से वाराणसी के पूरे घटनाक्रम की जानकारी तसल्ली से ले डाली। सुनकर बोली-

पापाजी ने इस बात को लेकर घर का कितना माहौल बिगाड़ दिया था कि वह नहीं जाएंगे तो मिनी की शादी कैसे होगी?भगवान ने उन्हें ऊपर पहुँचाकर समझा दिया न कि उनकीज़रूरत थी ही नहीं ।’

उसने देवेन्द्र के चेहरे को पढ़ते हुए गर्व से कहा –

‘ हमने तो दो-दो काम इ तने ढँग से संभाल लिए।’

-‘दो काम?’

‘हाँ और क्या? पापाजी बेमौका गुज़रे, बिना उफ़ किए, बड़े ढंग से उन्हें विदाई दी।’

देवेन्द्र ने समझ लिया कि दूसरा काम मिनी की शादी का था जिसे लेकर जानकी के पाँव ज़मीन पर ही नहीं पड़ रहे थे। पता नहीं जानकी का मूड कैसे बदल गया, बोली –

‘मिनी की शादी की वजह से अपने पापाजी का ज़्यादा कुछ नहीं हो पाया, मुझे बहुत मलाल है। ’

पापाजी केलिए इतनी उदारता ! देवेन्द्र ने अविश्वास से जानकी को देखा, वह कहती जा रही थी-

‘आजकल कुछ ख़ास करने को भी नही हैं, पापाजी का ही कुछ मना लेते हैं ।’

मोनू, टीनू भी बातचीत में शामिल हो गए-

‘कुछ ऐसा किया जाए जिससे बोरियत दूर हो, रौनक लगे और खुशी में ऊपर बैठे पापाजी का खाँसना, हाँफना भी बंद जाए ।’

टीनू ने ब्रह्मभोज का सुझाव देते हुए देवेन्द्र की ओर इशारा किया-‘इन्हें भी अच्छा लगेगा।’

‘इतने दिन बाद ब्रह्मभोज ! नहीं जमेगा।’

‘तेरहवीं के लिए पंडित को पैसा दे तो दिया था, अब उसी बात को क्या दोहराना?’

हवन, ब्रह्मभोज, शुद्धिकरण जैसे सुझाव बचकाने लग रहे थे ।वैसे भी मिनी की शादी के बाद साल भर तक मौत से जुड़ा कोई काम करने से जानकी को परहेज़ था। ‘

दो महीने बाद पापाजी का जन्मदिन पड़ता है, उसे ही मना लें।‘ ‘बात सब को जँच गयी । कार्ड छपवाने की योजना बना ली गयी ।ऊपर लिखवा लेंगे’हमारे पापाजी’ ‘। कार्ड पर एक ओर मिनी, रवि, दूसरी ओर देवेन्द्र, जानकी और मोनू, टीनूकी फ़ोटो।देवेन्द्र को इस चर्चा में कोई रुचि नहीं थी, वह वहाँ से जा चुकाथा।जानकी ने कहा-

‘बेवकूफो, पापाजी का फोटो होना चाहिए। ’

‘ तो अलग से एक तस्वीर उनकी भी हो जाएगी ।‘टीनू पापाजी के नाम से आगउगलने लगता है ।

बहुत से लोग हावड़ा नहीं जा पाए थे, घर में कोई आयोजन कर लेने से उनका उलाहना भी खत्म हो जाएगा । इसी बहाने जिन्हें पापाजी के गुज़र जाने की खबर नहीं है, वह भी मिल जाएगी। ज़रुरी तो नहीं कि सभी काम पुराने ढर्रे से किए जाएं । जो ढँग जँचे, वही ठीक है।

मिनी अभी ससुराल में थी । माँ-बेटी एक-एक बात की जानकारी लेती-देती रहती थीं । जानकी ने पापाजी का जन्मदिन मनाने की सूचना दी। इसी बहाने घर में एक काम हो जाएगा, उदासी और अकेलापन भी नहीं खाएगा और इस बोध से भी मुक्ति मिलेगी कि पापाजी के लिए ढँग से कुछ कर नहीं पाए। मिनी भड़क गयी-

‘मम्मी, ये सब मेरे विदेश जाने के बाद करोगे ? रवि को पता नहीं चलना चाहिए कि अपने अपनेपापाजी को हम कितना मान-सम्मान देते हैं?’

जानकी मिनी की बात को समझ रही थी । लोग तो बेटी की ससुराल वालों के सामने कितने झूठे दिखावे कर डालते हैं जब कि वे तो पापाजी की खातिर सच में ही कितना खर्च करने जा रहे हैं। मिनी की ससुराल वालों को पता तो चलना ही चाहिए, लेकिन एक बड़ी अड़चन थी कि पापाजी दो महीने बाद पैदा हुए थे और रवि, मिनी तब इंडिया में नहीं होंगे । बोरियत दूर करने का रास्ता निकला तो पापाजी के जन्मदिन ने अड़ंगा डाल दिया । जानकी, मोनू, टीनू निराश होकर बैठ गए ।इस आडम्बर से देवेन्द्र से देवेन्द्र ने अपनेको बाहर हीरखा। करते-कराते मिनी की अक्ल ही काम आयी।उसने फ़ोन पर ही फटकार लगायी -

‘हम अपनी सुविधा देखेंगे या पापाजी के लिए तिथि और मुहूर्त?’

-‘और उनका जन्मदिन ?’-जानकी का असमंजस बना हुआ था।

अपनी माँ की बुद्धि पर मिनी को तरस आ रहा था-

-‘ कौन देख रहा है कि उनका जन्मदिन कब है?’

‘ओह मम्मी, डरती हो कि आपकी गलती सुधारने के लिए ऊपर से खुद पापाजी ही न दौड़े आएँ’, कहते हुए अपने मज़ाक पर मिनी खुद रीझ गयी ।

उसने पापाजी के खाँसने, हाँफने और बोलने की खूब नकल उतारी।माँ-बेटी देर तक उनकी बातों के मज़ाक उड़ाती रहीं।

मिनी की ससुराल वालों की वजह से उस दिन को और भी भव्य बनाने की मज़बूरी आ पड़ी। आनन-फानन में फाइव स्टार होटल में बुकिंग करा ली गई। मिनी और उसके ससुराल वालों के लिए होटल में ही सुइट बुक करा दिए गए। घर के सारे सदस्यों के लिए पापाजी का जन्मदिन अपने- अपने ढंग से बड़ा महत्वपूर्ण बन गया था। मिनी को अपने ससुराल वालों की, जानकी को अपनी किटी वाली सहेलियों की, मोनू और टीनू को अपने यार- दोस्तों की मेहमाननवाज़ी की चिन्ता थी। सब अपने- अपनों को तवज्जो देने में लगे थे । पार्टी खत्म हुई तो जो भी गया तारीफ़ करता हुआ गया। मिनी भी अपने ससुराल वालों के साथ विदा हो गई। फुरसत मिली तो जानकी ने देवेन्द्र को सुनाते हुए कहा-

‘आप रो रहे थे कि पापाजी के लिए हम कुछ नही कर पाए। तेरह दिन उनके लिए निकालकर बैठ कर शोक मना लेते तो क्या इतना रौनक मेला होता, इतनी तारीफ मिलती?’

देवेन्द्र चुप रहा। जवाब न पाकर जानकी फिर बोली-

-‘पापाजी को हमने तो इतने बढ़िया ढँग से याद किया है कि लोग हमारी मिसाल देंगे।’

देवेन्द्र ज़िन्दगी में पहली बार पापाजी को लेकर इतना आहत था कि फूट-फूटकर रो लेना चाहता था।अपने आप को ही सुनाता हुआ धीमे से बोला-

‘ पापाजी को क्या बढ़िया याद किया है?’

जानकी को देवेन्द्र के इस असंतोष से बड़ी कोफ़्त हुई-

’पानी की तरह पैसा बहा दिया तब भी.......!’

देवेन्द्र भरा बैठा था –

‘दोस्त, मित्रों और फाइव स्टार की चमक में तुम लोग ऐसे खोए कि पापाजी का एक चित्र तक भी बनवाना भूल गए?’

देवेन्द्र ने जानकी को झूठ और बचाव मौका नहीं दिया, उसकी आँखों में आँखें डालकर सच्चाई सामने रख दी-

‘’जानकी, आज का दिन तो एक ऐसा आइना है जिसमें अपने भविष्य की तस्वीर मुझे साफ दिखाई दे रही है। तुम भी देख लो ’

वह आज देर तक रोता रहा।

नाम- प्रभात समीर

 

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