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अब शहर शांत है

डाॅ प्रभात समीर

जिलाधिकारी मंगलदेव, जिन्हें लोग एम. डी. के नाम से ही ज़्यादा जानते हैं, पिछले एक महीने से इस शहर में हैं । शहर में भीषण दंगा भड़क उठा था । ईंट–पत्थर, छुरे–चाकू, गोलियाँ, इक्का –दुक्का हथगोले .. सभी कुछ फेंके और चलाए गये । घर –परिवार जले –फुँके और न जाने कितनों को उम्र भर की टीस दे गये ।

एम. डी. ऐसी स्थितियों से निबटने में सक्षम माने जाते हैं, इसीलिए उन्हें तुरंत यहाँ भेजा गया । ज़रा सी भी ऐसी –वैसी खबर मिलते ही वह तुरंत भागे जाते, शहर का दौरा करते, लोगों की बात सुनते, शांति बनाए रखने का आग्रह करते । संवेदनशील इलाकों में कभी भी पहुँचकर वहाँ के हालात से निबटने का उनका अपना एक ढंग है ।

शहर की यह बस्ती भी संवेदनशील इलाकों में से एक है । बस्ती के दोनों ओर दो अलग संप्रदायों के लोग रहते हैं । अपनी जानी –पहचानी इस बस्ती में एम. डी. वर्षों बाद आये हैं. बहुत से घर अब यहाँ पक्के बन गये हैं । लाल और हरे रंग से पुता एक चबूतरा और उस पर बनी एक प्रतिमा, जो बस्ती की शान है, भी नई बनी हुई है । दंगों में इस बस्ती का जान –माल का बहुत नुक्सान हुआ है ।

एम.डी. को देखते ही भीड़ जुट गयी । सभीको आँखों देखा हाल बताने की जल्दी है । एक वृद्ध व्यक्ति ने बस्ती के दाईं ओर संकेत किया –

'हुज़ूर, सामने की इमारत में आग फैली, ऐसा काला धुआँ कि सारी बस्ती काली हो गयी।'

तभी एक अधेड़ ने अपनी ओर ध्यान खींचा-

' धमाके उधर से हुए साहब, कान के पर्दे फट गये ।'

घटनाओं के सूत्र पकड़ने की कोशिश और समानांतर चलते अपने बचपन की यादों में एम. डी.के मस्तिष्क की शिराऍं तन गयीं । कल की सी बात लगती है जब एम.डी.सिर्फ मंगलू थे । माँ थी नहीं, पिता के साथ इसी बस्ती में थे । घर के नाम पर एक अहाते में बने आसपास सटे कच्चे, टूटे घर, चारों ओर गंदगी व्याप्त ।अहाते से निकलकर सड़क पर आ जाएं तो कूड़े के ढेर, जहाँ किसीको भी कूड़ा-कचरा डालने की स्वतंत्रता थी और जिसमें मिट्टी –धूल में सने अर्धनग्न बच्चे गंदगी और सुअरों के बीच में खेलते देखे जा सकते थे । सामने की नाली पर टीन के डिब्बे लिए छोटे -छोटे बच्चे प्रायः बैठे दिखाई दे जाते। ॲंधेरा होता तो बस्ती के बड़े भी निवृत्त होने को उसी नाली के पास पहुँच जाते ।

 

शराब के नशे में मंगलू का पिता प्रायः उसे मारता –पीटता और थक टूटकर एक कोने में लुढ़क जाता । अपनी चोटों को यहाँ –वहाँ सहलाता मंगलू फिर कोई और कोना ढूँढता और अपनी किताबों में डूब जाता । एम.डी.भूले नहीं हैं जब सड़क पर पिटते हुए मंगलू और पीटने वाले उसके पिता के बीच में धर्मदेव की छड़ी ने एक अग्नि रेखा सी खींच दी थी, जिसे पार करना मंगलू के शराबी पिता के लिए कठिन हो गया था ।

तभी एम.डी. ने देखा कि आधी दबी-ढँकी, कुछ-कुछ फुसफुसाती हुई कई एक महिलाऍंअपने बच्चों को गोदी में उठाए उस भीड़ में आ खड़ी हुई थीं और घर के मर्द घुड़कियाँ देकर उन्हें अंदर धकेलने में लगे थे ।एम. डी. को तभी धर्मदेव की घुड़की याद आ गयी, जिसे सुनकर उस दिन मंगलू के पिता ने धर्मदेव की सारी शर्तें मान ली थीं । मंगलू धर्मदेव के पास रहेगा । उसका खाना –पीना, कपड़े -जूते, पढ़ाई –लिखाई का दायित्व धर्मदेव का होगा । पढ़ाई के अलावा कभी -कभी धर्मदेव के साथ वह उनके फाॅर्म हाऊस में गाय –भैंसों को देख लेगा, खेत में भाग -दौड़ कर लेगा । मंगलू का पिता चाहता तो भी मंगलू रुकने वाला नहीं था । धर्मदेव की छाया सा वह उनके पीछे हो लिया था ।

एम. डी. को घर पर लगी वह नेमप्लेट याद आ गयी जिस पर लिखा था –धर्मदेव। उसके नीचे कई एक संस्थाओं के नाम अंकित थे, जिनके वह कर्ता - धर्ता थे । एम. डी. उस घर का आँगन, बीचों –बीच तुलसी का पौधा, उसके करीब रखी एक डलिया, डलिया में रखी गोटा –किनारी लगी भगवान की पोशाकें, चमचम करते धूप में सूखते पूजा के बर्तन भी आज तक भूले नहीं हैं ।

धर्मदेव घर के अंदर चले गये । अबोध और परिणाम से अनजान मंगलू अर्थात् आज के एम. डी. ने भगवान की साज- सज्जा के कपड़े, घंटी, गिलास को उठाकर खेलना शुरु कर दिया;आसपास बिखरे, रंग –बिरंगे कागज़ों की नाव बनाकर पानी भरी परात में तैरा दी, फ़ालतू पड़े एक लिफ़ाफ़े को गुब्बारे की तरह फुलाने की कोशिश में उसने आवाज़ें निकालनी शुरु कर दीं । सामने सजे शंख को एक कुशल भक्त की तरह बजाते हुए तभी उसे किसी महिला की तेज़ आवाज़ सुनाई दी और साथ में ही धर्मदेव की लपलपाती छड़ी उसकी पीठ पर गयी । वह कर्कश आवाज़ और पीठ पर पड़ी छड़ी का दर्द आज भी एम. डी. को सिहरन दे गया । मंगलू को उसी दिन किसी संकट का आभास हो गया, लेकिन कैसा संकट...यह उसकी समझ से बाहर था। उसने अभी तक खाने- पहनने का संकट झेला था, काम पर न लगकर किताबों में घुसे रहने की अपनी आदत की वजह से अपने शराबी पिता की मार, जूते, गालियाॅं खाने का संकट झेला था, लेकिन इस नई विपत्ति की उसे कल्पना नहीं थी ।

उसे क्या करना है और क्या नहीं...इसी उधेड़बुन में उसका नन्हा सा शरीर और मन जुट गया ।उसका छुआ कपड़ा-बर्तन निकृष्ट सामान की तरह फेंक दिया गया, ढँके प्रशाद को, जिसे मंगलू ने छुआ भी नहीं था, उछिष्ट माना गया, पवित्र तुलसी पर भी पवित्र गंगाजल छिड़का गया, गंगाजल से बहुत कुछ पवित्र हो गया, लेकिन पवित्र नहीं हो सका तो वह था अबोध मंगलू ।

मंगलू ने धर्मदेव के घर के पुराने कपड़े-लत्ते पहने, वहाँ के साबुन-पानी से नहाया, वहाँ की हवा में उठा-बैठा, खाया-पिया, लेकिन उसकी देह पर उसकी बस्ती की न जाने कौनसी गंध चिपकी थी, जिसने उस घर के लोगों को कभी उसके करीब ही नहीं आने दिया । निराश्रितों के मसीहा, आदर्शवादी, समाजसेवी कहलाने वाले धर्मदेव के आदर्श घर में घुसते ही भुरभुरी मिट्टी से ढहते दिखाई देते।वह प्रायःमंगलू को समझाते कि जात-पाँत, ऊँच –नीच, अमीरी-गरीबी... सब भगवान की देन है और भगवान से टकराहट किसीके लिए सम्भव नहीं है ।

धर्मदेव के घर में उसके अपने पिता जैसी न मार-पीट थी, न गाली-गलौज, न भूख, न गरीबी, लेकिन अपमान और प्रतारणा की ऐसी लड़ाई थी जो मंगलू की आज तक की यात्रा में साथ-साथ चलती रही है।

मंगलू सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मंगला और फिर मंगल बना । खाली मंगल शब्द नहीं जमा तो उसने अनजाने में अपने नाम के आगे धर्मदेव के नाम का 'देव' जोड़ लिया और जिलाधिकारी बनने के बाद मंगलदेव से वह एम.डी.बन गया। एक ओर धर्मदेव की कृपा से नाम और पद पाने का ऋण, तो दूसरी ओर भेदभाव से कुचली गई आत्मा पर वर्षों से रखी गई अचल शिला के बोझ का ऋण । देनदार से बने एम.डी. आज फिर उस बस्ती में खड़े हैं, जहाॅं से उनकी यात्रा शुरू हुई थी।

दंगाफ़साद, झगड़ा, आगजनी जैसे शब्दों को सुनते हुए .एम डी. उस बस्ती से आगे बढ़ गये।कुछ दूरी पर वहीआटा- चक्की, हलवाई के साथ सटी नई -पुरानी कुछ और दुकानें, थोड़ा आगे वही धर्मस्थल और कुछ और आगे बढ़कर कोने में खड़ा उनकी यादों का वही मकान।तभी किसीने एम.डी.को पहचानने की कोशिश करते हुए कहा –धर्मदेव बेचारे तो भरोसे में मारे गये।'

धर्मदेव की पत्नी, बेटा-बहू के एक- एक करके दुनिया से जाने की उड़ती हुई खबरें तो एम.डी. के पास भी पहुॅंची थीं।तभी किसीने कहा- 'कितना समझाया कि शहर की हवा ठीक नहीं है, घूमना बंद करो....नहीं माने ।हो गये हैवानियत का शिकार ।'पता चला कि मंगलू की बस्ती वालों में से ही कुछ ने अपने कपड़ों से उनका खून पोंछा, अपने बर्तन से पानी पिलाया, स्नेह और अपनत्व की गर्मी दी, लेकिन धर्मदेव नहीं बचे ।

एम.डी. तो'भरोसा' शब्द पर ही अटक गये थे।भरोसा तो धर्मदेव ने भी उन पर बहुत किया था, तभी तो वह आज यहा तक पहुंचे, लेकिन... सोचते हुए उनकी आत्मा के नासूर फिर से रिसने लगे।असमान व्यवस्था, अस्पृश्यता और जात-पाँत के बोझ से बोझिल एम.डी.कीआत्मा एक बार फिर कराह उठी ।

तभी कोई धर्मदेव के निराश्रित पोते को लेकर आ गया--

'साहब इसका इंतज़ाम कर दो...'

प्रतिशोध का भाव अँगड़ाई लेने लगा। वह उस आश्रित के मसीहा बनने की आड़ में बदला लेने को मचल उठे । घोषणा कर दी- 'अभी बच्चे को हम ले जाएंगे । बाद में देखेंगे।'

सोच में पड़े एम.डी.अपनी कोठी की ओर बढ़ गए।

बच्चा रोना भूल चुका था। वह भी परदों से झूलने लगा, उसने भी यहाँ -वहाँ रखे शोपीस को अपने खेल का सामान बना लिया, सोफ़े पर उछल –उछलकर किसी नए खेल का आविष्कार करने में वह जुट गया....वहाँ सजे आकर्षणों का उसके स्वप्नों के संसार से तालमेल बैठ गया था कि तभी भड़कते हुए एम. डी. जैसे ही बच्चे को सबक सिखाने को छड़ी लेकर लपके, उन्हें धर्मदेव की वह छड़ी याद आ गई, जिसने कभी उनके और उनके पिता के बीच एक मर्यादा रेखा खींच दी थी, जिसे उसका शराबी पिता पार नहीं कर पाया था और तभी तो उनकी झोली में इतनी उपलब्धियाॅं हैं । उनकी आँखें बच्चे की आँखों से जा मिलीं जिनमें अबोध, मासूम मंगलू का चेहरा उन्हें झाँकता दिखाई दिया।

एम. डी. को देखते ही बच्चा ज़ोर से रोकर उनके क़रीब आने को मचल उठा। उसकी रुलाई के साथ ही एम. डी. की सदियों से दबी वेदना को भी थाह मिल गयी । बच्चे को चिपकाए हुए हिलक –हिलककर वह ऐसे रोने लगे मानो अपने बचपन को अपने से चिपकाए हुए रो रहे हों ।एम. डी. की आत्मा से वह भारी पाषाण, जिसे आज तक वह अपने सीने पर लिए घूम रहे थे, उतरकर दूर छिटक पड़ा था । उन्होंने इरादा कर लिया कि धर्मदेव के पोते के बचपन को सहमने नहीं देंगे। पानी में तैरती कागज़ की नाव से लेकर, हवा में उड़ते- उड़ाते गुब्बारों के साथ उसके सपनों को भी तैरने देंगे। आसमान के चाँद और सूरज तक से उसे अठखेलियाँ करने देंगे । तभी आकाशवाणी से समाचार सुनाई दिया –

'नए जिलाधिकारी के आने के बाद से दंगे थम चुके हैं और शहर अब तेज़ी से सामान्य हो रहा है ।'

सुनते हुए बच्चे को अपने से चिपकाए हुए मंगलदेव बंगले के अंदर चले गये ।

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