Duryodhana! i'm sorry you lost books and stories free download online pdf in Hindi

दुर्योधन! मुझे अफसोस है, तुम हार गए

साख और जेठ के महीनों में पश्चिमी भारत एक तरह से भट्ठी हो जाता है. सूरज इंसानों और जानवरों के जिस्म का पूरा पानी निचोड़ कर पी जाता है. बढ़ते शहरों की सीमाएं जंगलों को लील गई हैं, और एक टुकड़ा छांव भी दिन के समय अगर कहीं सड़क के किनारे मिल जाए तो एक स्वर्गिक आनंद की अनुभूति होती है.
ऐसे ही किसी दिन विराटनगर जाते वक़्त मैंने एक ढाबे पर अपनी गाड़ी रोकी. गर्मी इतनी तेज़ थी कि अगर आंखों से चश्मा हटा लूं तो उनका पानी सदा के लिए ही सूख जाए. रहीम का दोहा ‘रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून...’ याद आ गया. वैसे तो आज के समय में किसी की आंखों में पानी बचा ही कहां है, पर फिर भी सूना तो कुछ हुआ नहीं है! मैंने चश्मा हटाया और आंखों पर गीला रुमाल रखकर दोहे को दुबारा याद कर लिया.
रुमाल हटाकर मैंने एक चाय का ऑर्डर दे दिया और पेड की छांव तले चारपाई पर पैर फैलाकर ज्यों ही लेटने को हुआ, मेरी नज़र एक निहायत ही आकर्षित व्यक्तित्व के आदमी पर पड़ी. वह ढाबे से थोड़ी दूर बैठा हुआ था. एक बार तो मैं उसको देखता ही रह गया. निहायत ही मज़बूत डील-डौल, ऊंची कदकाठी, तीखे नैननक्श, और मटमैले रंग की चमड़ी मुझे बार-बार उसे देखने को मज़बूर कर रही थी. ढाबे के मालिक से मैंने उस आदमी के बारे में पूछा तो उसने बताया, ‘भाई, ये आदमी तीन चार दिन पहले यहां आया है, लंगड़ा कर चलता है और कुछ पूछने पर सिर्फ इतना ही बोलता है - वो तो जांघ तोड़ दी उसने, वर्ना एक-एक को देख लेता.’
‘क्या, तुम दुर्योधन हो!’ मैं हंसा और कहा, ‘मैं भी भीम हूं.’ और फिर ज़ोर से हंसने लगा. उसने गुस्से में अपना पैर ज़मीन पर दे मारा. उसकी लात में इतना ज़ोर था कि आसपास की सारी धरती हिल गयी.
आज के ज़माने में ‘एक-एक को देखने’ की हिम्मत सिर्फ हमारे धर्मेंद्र पाजी के अलावा किसी और में नहीं है तो फिर यह कौन है जो उन्हें चुनौती दे रहा है. लिहाज़ा, मैं उसके बारे में मालूम करने के लिए, उसके पास चला गया.
‘भाई, सुनो, कौन हो?’ उसने जवाब नहीं दिया. ‘तुम्हारी जांघ में तकलीफ है, दुकानदार कह रहा था, चलो छांव में बैठते हैं और विराटनगर के रास्ते जा रहे हो तो मैं तुम्हें छोड़ दूंगा, मैं भी वही जा रहा हूं.’ कुछ देर सोचने के बाद वह खड़ा हुआ और लंगड़ा कर मेरे साथ पेड़ की छांव के नीचे आ बैठा.
‘क्या, तुम दुर्योधन हो!’ मैं हंसा और कहा, ‘मैं भी भीम हूं.’ और फिर ज़ोर से हंसने लगा. उसने गुस्से में अपना पैर ज़मीन पर दे मारा. उसकी लात में इतना ज़ोर था कि आसपास की सारी धरती हिल गयी. मैं लगभग गिरते-गिरते बचा. मेरी ऊपर की सांस आसमान में और नीचे की सांस पाताल में धंस गई. मैं डर कर भागने के लिए उठा तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया. हाथ क्या था, जैसे किसी ने लोहे के कुंडे से मेरी कलाई जकड़ ली हो. मेरी रीढ़ की हड्डी तक एक सिहरन दौड़ गयी और मैं एकदम अपने हाथ-पांव समेट कर बैठ गया.
‘डरो मत, तुमसे कोई बैर नहीं है, यहीं बैठे रहो.’ बड़े अधिकार से उसने कहा. मैं बैठ तो गया पर मेरी हालत शेर के सामने मेमने जैसी थी. उसने फिर कहा ‘ अब भी कोई संशय है?’ अपनी जान छुड़ाने के लिए उसकी बात मान ली. कुछ समय के लिए हम दोनों के बीच ख़ामोशी रही और फिर काम का हवाला देकर उससे मैंने भीख मांगने की मुद्रा में जाने की आज्ञा मांगी तो उसने मना कर दिया. जाने किसका मुंह देखकर सुबह उठा था आज कि आफ़त गले पड गयी थी.
थोड़ी देर बाद जब मैँ सहज हुआ तो उसने कहा, ‘महाभारत पढ़ी है?’ मैंने जान छुड़ाने के लिए गर्दन जल्दी से हां की मुद्रा में हिला दी. कुछ देर चुप रहने के बाद उसने दूसरा प्रश्न किया. ‘किसकी ग़लती थी, मेरी या पांडवों की?’ उसके इस प्रश्न से मेरे मन में खयाल आया कि हो न हो यह कोई गुंडा बदमाश है जो अपने-आप को आज का ‘दुर्योधन’ मानता है. वैसे तो कोई भी ‘दुर्योधन’ से कम नहीं है: मेरा पड़ोसी जिसकी नज़र हरदम दूसरे की बीवी पर रहती है, या कॉलोनी में अपने मकान के सामने की 40 फ़ीट सड़क पर 10 फ़ीट कब्ज़ा जमाकर अपने मकान को आगे बढ़ाने वाले लोग, सभी आज के दुर्योधन ही तो हैं? पर, वह शख्स मुझे थोड़ा अलग लगा, उसकी आंखों में लंपटपना न था.
‘जवाब दो?’ उसकी दमदार आवाज़ ने मुझे पडोसी और मेरी कॉलोनी के खयाल से खींचकर उसके सामने ला पटका. अपने बच्चों और बीवी की सूरतें और, थोड़ी देर पहले उसकी लात की ताकत याद करके, मैंने झट से कह दिया, ‘पांडवों की गलती थी.’ उसको हंसी आ गयी. वह हंसे जा रहा था और मैं एक बार फिर रुआंसा हो गया. मेरी हालत देखकर उसे तरस आ गया और वह मुस्कुराकर बोला, ‘सच बताओ?’ फिर थोड़ा और मुस्कुराकर बोला , ‘कहा ना, कुछ नहीं होगा.’
मन तो किया कि सच कह दूं, पर फिर कुछ सोचकर चुप ही रहा. ‘गलती पांडवों की थी’ उसने पूरे विश्वास से कहा. ‘और अगर तुम भी मुझे पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य या कृष्ण की तरह अनुचित ठहराते तो अभी एक ही मुक्के से तुम्हें उस ‘काल’ में पंहुचा देता.’ मैंने अपनी अकल और पहली बार बड़बोलापन न दिखाने पर राहत की सांस ली. याद आ गया कि दुर्योधन ने कौन सा महाभारत में अपने वचनों को निभाया था जो खुद को दुर्योधन कह रहा यह आदमी निभाता. फिर एकदम से मेरे दिमाग में बिजली सी कौंधी. ‘कहीं ये सच तो नहीं कह नहीं रहा?’ लेकिन तुरंत ही इस खयाल को मैंने झटक भी दिया - ‘कैसी वाहियात बातें सोच रहे हो? कबके मर खप गए वे लोग.’ मैंने अपनी सारी हिम्मत बटोरकर पूछ ही लिया, ‘मैं कैसे विश्वास कर लूं कि तुम दुर्योधन ही हो?’
उसने एक ही सांस में अपने 100 भाइयों के नाम गिना डाले, और कुरुओं की वंशावली भी. फिर कई ऐसी बातों का वर्णन किया जो उस काल में रहने वाले व्यक्ति के लिए ही संभव था. यह सब बताते समय उसकी आंखों में एक अजीब किस्म का आत्मविश्वास था.
‘तु... म दु...र्योधन हो.... !!!!’ इस बार में विस्मय से चीख पड़ा. उसने बड़े इत्मीनान से सर हिलाकर मेरे प्रश्न का हां में उत्तर दिया. मेरे रोंगटे खड़े हो गए. मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि मेरे सामने कृष्ण, भीष्म, द्रोणाचार्य को देखने वाला, भीम से युद्ध करने वाला, द्रौपदी का अपमान करने वाला दुर्योधन बैठा है. मुझे विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि मेरे सामने संसार के सबसे महान युद्ध का सबसे बड़ा खलनायक था.
कुछ क्षणों के लिए सम्पूर्ण महाभारत मेरे जेहन में तेज़ी से उभरी और मेरे कानों में ज़ोर-ज़ोर से ‘कृष्ण’, ‘अर्जुन’, ‘भीष्म’ ‘दुर्योधन’, ‘द्रोपदी’ जैसे शब्द गूंजने लगे. चारों तरफ सैनिकों के चिल्लाने की आवाज़ें, हाथियों की चिंघाड, घोड़ों की टापें, शंखों की गूंज सुनाई देने लगी, तीरों और भालों के टकराने की आवाज़ें जैसे मेरे कान के परदे फाड़ देंगी और फिर उसी तेज़ी से विलुप्त भी हो गयीं! जिस तरह एक तेज़ धमाके के बाद कान सुन्न हो जाते हैं वही हाल मेरा भी था.
घबराहट में मैंने अपना सर झटक दिया और न जाने कब मेरा हाथ सामने रखी बोतल पर गया औेर मैंने एक घूंट में सारा पानी खत्म कर डाला. अब सब कुछ शांत लग रहा था. इतना शांत और ख़ामोश कि जैसे कोई तूफान अभी-अभी किसी बस्ती से सबकुछ रौंदकर गुज़रा हो. न जाने कितनी बार मैंने ‘महाभारत’ पढ़ा है और न जाने कितनी ही बार अपने-आपको कभी कृष्ण, कभी कर्ण, कभी युधिष्ठिर, कभी अर्जुन जैसे हालात में पाया है. पर कभी भी मैंने अपने आप को दुर्योधन नहीं समझा. और आज वही दुर्योधन मेरे सामने बैठा था.
‘क्या हुआ?’ उसकी आवाज़ मुझे कुरुक्षेत्र से खींचकर उस ढाबे पर ले आई. ‘अब भी कोई संशय है?’ उसने पूछा. ‘नहीं’ मैंने कहा.’ उसने मेरी पीठ पर प्यार से हाथ फेरा और मेरे सर पर एक टपकी मारी. फिर धीरे से मुस्कुरा दिया. ‘डरो मत, तुम पांडव नहीं हो और फिर हमारे बीच इतनी सदियों का फासला है कि अब किसी भी प्रकार का बैर संभव नहीं है.’ मुझे ताज्जुब हुआ कि थोड़ी देर पहले मुझे एक ही मुक्के से ‘महाभारत’ काल में पहुंचाने वाला लंगड़ा आदमी, दुर्योधन होते ही सहज हो गया था.
घड़ी की तरफ देखा तो दिन के दो बज गए थे, मुझे विराटनगर पहुंचना था. मैंने अपना प्लान कैंसिल किया और एक झूठी कहानी बनाकर दफ्तर से एक दिन की छुटी ले ली. छुट्टी लेने के लिए हर काल में झूठी कहानी ही बनाई जाती है. अब मैं इत्मीनान से उससे बातें कर सकता था.
‘तुमने दफ्तर में झूठ क्यों बोला?’ उसने मुलायम आंखों से मेरी तरफ देखा. अब तक मैं और भी सहज हो चुका था इसलिए मज़ाकिया लहजे में बोला, ‘हां, मुझे अपने बॉस को बोलना चाहिए था कि देखो साहब मेरी महाभारत के दुर्योधन से मुलाकात हो गयी है, मुझे उनसे बातें करनी हैं इसलिए मुझे आज की छुट्टी चाहिए और जो मेरा बॉस है वह तो एक युधिष्ठिर है जो मुझे ख़ुशी-ख़ुशी छुट्टी दे देता.’ हम दोनों हंसने लगे.
‘क्या द्वापर में कृष्ण, अर्जुन और युधिष्ठिर ने झूठ नहीं बोला था?’ डर और लिहाज़ के मारे मैंने उसका नाम नहीं लिया, ‘तुम मुझे कलयुग में सच बोलने को कह रहे हो.’
मैं अब और समय गंवाना नहीं चाहता था. ‘मुझे भूख लगी है, भाई’ उसने कहा. ढाबे की तरफ मैंने नज़र घुमाई तो समझ गया बकरी के दूध की चाय और बिस्कुट के अलावा यहां कुछ नहीं मिलेगा. ‘चलो, कहीं और चलते हैं, यहां खाना नहीं मिलेगा.’ रास्ते में मैंने उससे पूछा कि तुम तो उन चंद लोगों में से नहीं हो जिन्हें अमरता का वरदान मिला है, तो फिर अब तक ज़िंदा कैसे हो?
‘क्या द्रौपदी बेहद सुंदर थी?’ मेरे इस प्रश्न ने उसको थोड़ा विचलित कर दिया और वह दूसरी तरफ देखने लग गया. ‘द्रौपदी का अपमान एक क्षणिक भूल थी जो एक आवेश में हो गयी क्योंकि उसने मेरा तिरस्कार किया था.
‘समंतपंचक में भीम ने मेरी जांघें तोड़ दीं और मैं उठने के लायक नहीं रहा था. भीम, उस समय, पूरे आवेश में था उसका बस चलता तो मुझे उस दिन ही मार देता और युद्ध समाप्त हो जाता. पर युधिष्ठिर ने उसको ऐसा करने से रोक दिया और यही युधिष्ठिर की भूल थी. अश्वत्थामा और कृपाचार्य को जब मेरे घायल होने का समाचार मिला तो वे दोनों रात के अंधेरे में छुपते-छुपाते मुझ तक पहुंचे. मेरे ह्रदय में युद्ध की आग अभी तक बुझी नहीं थी. मैंने अश्वत्थामा को अगला सेनापति बना दिया. वह पहले से ही द्रोणाचार्य की अनीतिपूर्वक मृत्यु से आहत था. उसने पांडवों का एक ही रात में वध करके युद्ध समाप्त करने की प्रतिज्ञा ली और सेनापति बनाये जाने के उपकार से कृतज्ञ होकर कृपाचार्य के साथ मेरी जांघों का उपचार भी किया. मुझ में जीने इच्छा समाप्त हो चुकी थी पर वह मुझे युद्ध के परिणाम तक जीवित रखना चाहता था. अश्वत्थामा ने ऐसे मंत्र का जाप किया जिससे मैं युद्ध की समाप्ति तक जीवित रह सकता था. अश्वत्थामा ने उस रात कायरतापूर्वक द्रौपदी के सोते हुए पांच पुत्रों, और समस्त पांचालों का वध कर दिया. धृष्टद्युम्न को मारकर उसने तो अपने पिता की मृत्यु का बदला ले लिया पर कृष्ण इस बर्बरता से इतना आहत हुआ कि एक तरह से समाप्त हुआ युद्ध फिर शुरू हो गया. अर्जुन और अश्वत्थामा के मध्य बड़ा ही भयंकर युद्ध हुआ. कृष्ण और पांडवों ने उसके मस्तक से मणि निकाल ली और वह निस्तेज हो गया. शापित अश्वत्थामा जंगलों में चला गया और जिस मंत्र से उसने मुझे युद्धांत तक जीवित रखा था, उसका प्रभाव खत्म नहीं हुआ, परिणामस्वरूप में भी जीवित रह गया.’ यह सुनकर मैं चकित हो गया .
थोड़ा आगे जाने पर एक कामचलाऊ सा होटल मिला और मैंने गाड़ी रोक ली. मैंने कहा, ‘अब यहां राजसी भोजन तो नहीं मिलेगा, हां, पेट ज़रूर भर जाएगा.’ उसने मेरी तरफ देखा और मुस्कुरा दिया. भोजन करते-करते हम दोनों बातें कर रहे थे. मैंने उस काल से जुड़ी कई सारी बातें उससे पूछ डाली. उसने भी सभी बातों का विस्तार से उत्तर दिया.
‘क्या द्रौपदी बेहद सुंदर थी?’ मेरे इस प्रश्न ने उसको थोड़ा विचलित कर दिया और वह दूसरी तरफ देखने लग गया. ‘द्रौपदी का अपमान एक क्षणिक भूल थी जो एक आवेश में हो गयी क्योंकि उसने मेरा तिरस्कार किया था. अगर मुझे एक अवसर मिलता तो में द्रौपदी से क्षमा अवश्य मांगता.’ मुझे उससे इस बात की कतई उम्मीद नहीं थी पर सुनकर अच्छा लगा.
मेरा अगला प्रश्न था, ‘ यहां विराटनगर के जंगलों में कैसे?’ उसने कहा, ‘ये जंगल अब भी उस काल वर्णन करते हैं और शायद उस काल की अंतिम निशानी हैं, इसलिए.’
अब हम खाना खा चुके थे और होटल की चारपाइयों पर लेट गये. लेटे-लेटे उसने मुझसे बड़ा अजीब सा प्रश्न किया, ‘तुम क्या सोचते हो मैं क्यों हारा’?
‘सच कहूं तो इसलिए कि वह एक धर्मयुद्ध था और तुमने अधर्म किया, इसलिए कि कृष्ण उनके साथ थे, और इसलिए कि अर्जुन और भीम तुम्हारे योद्धाओं से अधिक वीर थे’, एक रौ में बहकर मैंने कह तो दिया था पर तुरंत ही लगा कि अब कुछ अप्रत्याशित होने वाला है और मैं सहम गया. दुर्योधन के माथे पर बल पड़ गए और मेरे माथे पर, डर की लकीरें. ‘सब कुछ इतना सरल नहीं था जितना तुम कह गए’ उसने कहा. मैंने ख़ामोश रहना ही बेहतर समझा.
‘अगर मैं अपराध बोध से ग्रसित हूं तो कहूंगा कि महाभारत का युद्ध एक धर्मयुद्ध था और में धर्म के विरुद्ध था. लेकिन कोई भी युद्ध धर्मयुद्ध नहीं होता. हां, धर्म की आड़ में लड़ा ज़रूर जाता है. युद्ध सिर्फ स्वार्थपूर्ति के लिए होते आए हैं और ये तीन स्वार्थ हैं: भूमि, स्त्री और संतान. महाभारत में ये तीनों ही कारण थे.’
‘पर राज्य तुम्हारा तो नहीं था, पांडवों का था’, मैंने बात आगे बढ़ाई, ‘राज्य वीरों का होता है, जिनमें राजसी गुण होते हैं, उनका होता है. न कि त्याग और दया का भाव रखने वालों का. पांडव वीर थे, यह मैं भी मानता हूं पर उनमें राजसी गुण नहीं थे. त्याग और दया का कुछ ज्यादा ही अंश उनमें था. इस भाव के रहते राजा अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार नहीं कर सकता. चलो, मैं एक बार मान भी लूं कि मैं ग़लत था, पर क्या हस्तिनापुर का राज्य उनके हाथों में सुरक्षित रहता? वे हमेशा याचक ही रहे.’
मुझे उसकी यह बात तर्कपूर्ण लगी, लेकिन फिर भी कहा, ‘इंद्रप्रस्थ बनाने के बाद उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ किया तो था, फिर तुम कैसे कह सकते हो कि उनमें राज्य विस्तार की भावना नहीं थी?’
‘युधिष्ठिर को जुए की बुरी लत थी और मेरे निमंत्रण पर वह जुए में सबकुछ हार गया था. और तो और द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया. क्षत्रिय ऐसा नहीं करते. जो राजा अपनी पत्नी को दांव पर लगा दे तो क्या उसके राज्य में महिलाएं सुरक्षित रहेंगी? अगर उसमे संग्रहण की भावना होती तो वह हारा हुआ राज्य वापस लेने के लिए लड़ता न कि वनवास काटने चला जाता. राजा तो वह होता है जो, चाहे सही हो या ग़लत, सुई की नोंक के बराबर भी भूमि किसी को बिना लड़े नहीं देता. और यही मैंने किया. मैं वीर था, मैं सुयोधन नहीं था जिसकी संपत्ति कोई भी आसानी से छीन लेता. मैंने युद्ध किया और बड़ी वीरता से किया.’ वह कुछ देर रुका, फिर बोला, ‘मैं दुर्योधन था’. मैँ सोचने पर मज़बूर हो गया कि द्रौपदी वाले प्रकरण में ग़लती किसकी थी.
'अर्जुन वीर होकर भी संपूर्ण युद्ध में भ्रमित ही रहा. कभी तय ही नहीं कर पाया कि उसकी प्राथमिकता क्या है?अगर देखा जाए तो वह पांडवो का ‘द्रोणाचार्य’ था जिसने पुत्र की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए पांडवों को लगभग हरा ही दिया था.'
‘दूसरा कारण तुम कृष्ण को मानते हो? कृष्ण तो सिर्फ एक रणनीतिकार था. कृष्ण ने तो कई युद्धों में पराजय पायी. उसका एक नाम ‘रणछोड़’ भी है. जरासंध से बचने के लिए मथुरा को छोड़कर द्वारका जा बसा था वो. सिर्फ कूटनीति की वजह से कोई युद्ध नहीं जीता जाता.’ मैंने बीच में बात काटते हुए कहा, ‘अगर वह धर्मयुद्ध नहीं था तो कृष्ण क्यों पांडवों की तरफ से लड़े? वे तो तुम्हारे संबंधी थे, तुम्हारी बेटी, लक्ष्मणा की शादी तो कृष्ण के बेटे, सांब, से हुई थी.’
‘दुर्योधन, तुम अर्जुन और भीम को भूल गए क्या?’ भीम ने तो अकेले ही तुम्हारे सारे भाइयों का वध कर दिया था.’
‘अर्जुन वीर होकर भी संपूर्ण युद्ध में भ्रमित ही रहा. कभी तय ही नहीं कर पाया कि उसकी प्राथमिकता क्या है? हमेशा युद्ध का मुख्य मैदान छोड़कर वह शंसप्तकों से ही लड़ता रहा. अगर देखा जाए तो वह पांडवों का ‘द्रोणाचार्य’ था जिसने पुत्र की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए पांडवों को लगभग हरा ही दिया था. कृष्ण के गीता ज्ञान के बाद भी वो भ्रमित रहा. मैं तो कभी भ्रमित नहीं रहा? और रही भीम की बात, वो वीर तो था पर अकेले ही महाभारत जीत ले, इतना बड़ा वीर नहीं था’ एक सांस में कह गया वह यह सब.
‘मेरे पास तो पांडवों की अपेक्षा बड़ी सेना थी. एक से एक महावीर थे - भीष्म, कर्ण, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा आदि जिन्होंने एक से एक बड़े युद्ध केवल अपने शौर्य और पराक्रम के बल पर जीते थे. फिर भी मैं हार गया. तुम्हें ज्ञात है, क्यों? नहीं है, तो सुनो. मेरे सारे योद्धा सिर्फ तन से मेरे साथ थे. मन और कर्म से नहीं और मैं उनके विश्वासघात के कारण हार गया. आओ, मेरे एक-एक सेनापति का आकलन कर लें.’
‘भीष्म पितामह - आर्यावर्त के सबसे बड़े धनुर्धर. अर्जुन से भी बड़े. सारी उम्र वे शपथों के सहारे जीते रहे, सिंहासन से बंधे रहने की शपथ. अपने युद्ध में रहने तक कर्ण को युद्ध से दूर रखने की शपथ. फिर शिखंडी के सामने अस्त्र-शस्त्र न उठाने की शपथ. ज़रा सोचो तो युद्ध के 10 दिनों कर्ण, जो अर्जुन के समकक्ष वीर था, युद्ध से वंचित रहा. और तो और उन्होंने अपनी मृत्यु का भेद - शिखंडी - पांडवों को बता दिया. यह उनका विश्वासघात था. अगर भीष्म यह न करते तो पांडव किसी भी सूरत में युद्ध में नहीं जीत सकते थे. शिखण्डी के पीछे छुपकर अर्जुन वार करता रहा और पितामह खड़े रहे. मैं राजा होकर भी कुछ नहीं कर पाया. कोई भी शपथ युद्ध में जीतने की शपथ से बड़ी नहीं होती है. उनकी इतने वर्षों की सेवा के आगे मैं असहाय हो गया था और मैंने उनको सेनापति के पद पर रहने दिया. यह मेरी पहली भूल थी. उनके तीरों से मरने वालों का दुख पांडवों से ज्यादा तो उन्हीं को था. मेरा सबसे बड़ा सेनापति ही मेरे साथ नहीं था. उनके विश्वासघात और शपथों के कारण मैं हार गया.’
ज़रा सोचो तो युद्ध के 10 दिनों कर्ण, जो अर्जुन के समकक्ष वीर था, युद्ध से वंचित रहा. और तो और उन्होंने अपनी मृत्यु का भेद - शिखंडी - पांडवों को बता दिया. अगर भीष्म यह न करते तो पांडव किसी भी सूरत में युद्ध में नहीं जीत सकते थे.
‘द्रोणाचार्य’ - आर्यावर्त के सबसे बड़े शिक्षक, जिनको पितामह के बाद सेनापति बनाया, जिन्होंने कौरवों और पांडवों को समान युद्ध विद्या दी वे हमेशा ही अर्जुन के लिए अपने ह्रदय में एक ममता लिए रहे. उन्होंने अश्वत्थामा की मृत्यु की अफवाह मात्र से शस्त्र त्याग दिए और युद्ध के मैदान के बीचों बीच समाधि लगाकर बैठ गये और धृष्टद्युम्न ने बड़ी आसानी से उनको मार दिया. कहते हैं कि परशुराम ने 21 बार इस भूमि को क्षत्रिय-विहीन कर दिया था, उनको अपने प्रिय शिष्य कर्ण का भी मोह नहीं रहा और उस तक को श्राप दे डाला था. और मेरा सेनापति, एक ऐसा ब्राह्मण जो पुत्रमोह के जाल से बाहर ही नहीं निकल पाया और युद्ध क्षेत्र में ही धूनी लगाकर बैठ गया. क्या, सिर्फ पुत्र का जीवन ही युद्ध में महत्वपूर्ण होता है? सेनापति संपूर्ण सेना का नायक होता है. ऐसे सेनानायक के सहारे युद्ध में विजय की कल्पना करना मेरी मूर्खता थी. अगर द्रोणाचार्य पुत्र वियोग में शस्त्र न त्यागते तो मैं कभी नहीं हारता.
‘कर्ण - अहा हा! मेरा सबसे अभिन्न मित्र! अर्जुन के समान वीर! बार-बार मेरे लिए पांडवों का नाश करने का संकल्प करने वाला! जिस पर मैंने भीष्म और द्रोण से भी ज्यादा विश्वास किया, उसने ही मेरे साथ सबसे बड़ा विश्वासघात किया. कुंती, अपनी मां, को सिर्फ अर्जुन को मारने का वचन देकर आ गया. मेरा मित्र होकर भी उसने मुझसे यह बात छुपाई! शायद, महाभारत में इससे बड़ा विश्वासघात का उदहारण नहीं हो सकता. अरे, अन्य पांडवों को मारकर वह अर्जुन का मनोबल तोड़ सकता था जिससे अर्जुन की मृत्यु आसान हो जाती और मैं युद्ध जीत सकता था. क्या राजा सेनापति के विश्वासघात के बाद जीत सकता है. इतिहास चाहे कर्ण को कितना भी महान कहे, मेरी दृष्टि में वह एक विश्वासघाती था.’
‘शल्य - माद्री का भाई, नकुल-सहदेव का मामा. जिसने कर्ण का सारथ्य कम किया और उसको हतोत्साहित ज़्यादा किया. जो कर्ण की मृत्यु का कारण बना और फिर उसे ही सेनापति निुयक्त करके मैंने अपनी पराजय लगभग निश्चित कर ली. क्या शल्य को वीर की श्रेणी रखा जाना चाहिए? और क्या ऐसे व्यक्ति को प्रधान बनाना चाहिए ?’
‘युद्ध में जीत और हार का निर्णय पहले योद्धा के मस्तिष्क में होता है. युद्ध क्षेत्र में तो उस निर्णय को जमीन पर उतारा जाता है. मेरे योद्धा तो पहले ही हार को परिणाम मान चुके थे तो फिर, तुम्हीं कहो, मेँ युद्ध कैसे जीतता? मैं तो अकेला ही पांडवों से लड़ा था.’
पहली बार मुझे दुर्योधन, दुर्योधन न लगकर सिर्फ एक राजा ही लगा था जो अपनी व्यथा कथा रात भर कहता रहा. अगर उसने छल-कपट किये तो उसके साथ भी हुए और अपने वीरों से ही बार-बार धोखा खाकर वह हार गया.
अपनी बात कहकर वह चुप हो गया. मन हुआ कि मैं उसे कहूं कि तुम्हारी सारी बातें - कृष्ण के अलावा - शायद सही हैं पर, न जाने क्या सोचकर, चुप ही रहा. शाम हो चली थी उसने जाने की आज्ञा मांगी तो मैं शर्मिंदा हो गया. शायद वह मेरी मन:स्थिति भांप गया और जंगलों की तरफ चल दिया. जाते-जाते मैंने पूछा, ‘कहां जाओगे’? ‘पता नहीं’ और वह कहीं अंधेरे में विलीन हो गया.
‘सुनो, उठो, देखो, दिन चढ़ आया है, कब तक सोते रहोगे?’
सर भारी भारी हो रहा था पर पहली बार मुझे दुर्योधन, दुर्योधन न लगकर सिर्फ एक राजा ही लगा था जो अपनी व्यथा कथा रात भर कहता रहा. अगर उसने छल-कपट किये तो उसके साथ भी हुए और अपने वीरों से ही बार-बार धोखा खाकर वह हार गया. और एक बात यह कि कृष्ण उसके साथ नहीं थे पर वह शायद कभी ‘कृष्ण’ का महत्व नहीं समझेगा. ‘कृष्ण’ कोई व्यक्ति नहीं हैं, वे एक चेतना हैं, ज्ञान हैं, विवेक हैं और जिसके पास ‘कृष्ण’ हैं, वह किसी भी ‘महाभारत’ में, किसी भी काल में नहीं हार सकता.
नहीं जानता कि मेरे मन में दुर्योधन के लिए अब क्या है? और, क्यों है? हां, एक बात ज़रूर तय है कि महाभारत को मैंने इस तरह से कभी नहीं समझा था.
दुर्योधन, मुझे अफ़सोस है, तुम हार गए

समाप्त.....
अनुराग भारद्वाज.....


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