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गुरूदक्षिणा...

आज से लगभग चालिस साल पहले की बात है,मैं एक गाँव की सरकारी पाठशाला में मास्टर था,गाँव के लोंग मेरी बड़ी इज्जत करते थे,बच्चे बूढ़े सभी मुझे सम्मान देते थे,गाँव के ज्यादातर लोंग पढ़े लिखे नहीं थे इसलिए जब भी उनकी कोई चिट्ठी या सरकारी कागज आता तो वें मुझसे पढ़वाने आ जाते थे,
मेरा घर तो शहर में था लेकिन नौकरी गाँव में,रोज रोज शहर से गाँव जाना मुश्किल था,क्योंकि उस समय ना तो सड़के पक्की होतीं थीं और ना ही इतने वाहन चलते थे, इसलिए मैनें गाँव में एक किसान की कोठरी किराएं पर ले लीं,हफ्ते भर में गाँव में हाट लगा करती थी इसलिए मैं वहीं से हफ्ते भर का सामान खरीद लिया करता था,मेरे पास एक खटारा साइकिल थी जो मेरे लिए किसी हवाई जहाज़ से कम नहीं थीं,
गाँव का स्कूल भी इतना विकसित नहीं था,ज्यादा बच्चे भी पढ़ने नहीं आते थे,कमरें के नाम पर एक बरामदा था जिस पर छत थी बस,मैं बच्चों को खुले में पेड़ की छाया के नीचें पढ़ाया करता था,वहीं पर मैनें ब्लैकबोर्ड जमा लिया था ,ना जाने कहाँ से वहाँ एक सरकारी हैंडपंप लग गया था जिसका पानी बच्चों के पीने के काम आता था,मैनें स्कूल के विस्तार के लिए शहर में शिक्षा अधिकारी के पास अर्जी भी लगाई थी लेकिन अभी तक कोई सुनवाई नहीं हुई थी.....
गाँव से शहर लगभग सत्रह किलोमीटर पड़ता था और मैं अपने घर शनिवार की शाम को अपनी खटारा साइकिल पर रवाना हो जाता था,घर से आते वक्त कुछ सामान भी संग ले आता था,इस तरह गर्मियों की छुट्टियाँ पड़ीं,पहले छुट्टियाँ चार महीने तक पड़ा करतीं थीं,मार्च से जून तक,सो चार महीने मैनें अपने घर में खूब आराम किया और फिर जून के आखिरी सप्ताह में मुझे गाँव लौटना था पढ़ाने के लिए,सो अपनी खटारा साइकिल पर कुछ सामान बाँधकर मैं गाँव की ओर निकल पड़ा,उस समय आज की तरह बोतल नहीं चलतीं थीं,इसलिए मैं पानी लेकर नहीं चला,सोचा रास्तें में कहीं पानी मिल जाएगा तो पी लूँगा,
मैं निकला तो जल्दी था लेकिन तब भी सत्रह किलोमीटर साइकिल चलाते चलाते समय लग गया,मैंने अपनी हाथघड़ी देखी तो ग्यारह बज रहे थें,जून(आषाढ़) का महीना धूप अपने शबाब पर थी,उसे अपने आगें किसी की सूझ ही नहीं रही थीं,उसने तो सोच लिया था जो भी घर से बाहर निकला उसे झुलसा कर ही दम लेगी,ऐसी बात नहीं है कि सड़क पर पेड़ नहीं थे,पेड़ भी बहुत थे दोनों ओर, लेकिन खेत सूखे पड़े थे,हमारे तरफ मई और जून में फसलें नहीं उगाई जातीं थीं,लेकिन अब उगने लगीं हैं....
मैं पसीने से लथपथ साइकिल खींचे चला जा रहा था,अब तो प्यास भी बहुत लग आई थीं,एक जगह कुआँ दिखा तो मैं साइकिल से उतरकर उस ओर गया लेकिन उसके आस पास मुझे कोई नज़र नहीं आया और ना ही कुएँ पर कोई बाल्टी या रस्सी थी जिससे खींचकर पानी पिया जा सकता था,मैं वहाँ से आगें बढ़ गया,फिर आगें चलते चलते एक रेलवें क्रासिंग पड़ी ,वहाँ मुझे एक हैंडपम्प दिखा,मैं जल्दी से साइकिल से उतरा और उसके पास पहुँचा,लेकिन बहुत देर तक चलाने के बाद उसमें पानी नहीं निकला,मैं निराश और हताश होकर फिर अपनी खटारा साइकिल पर चढ़ गया,बड़ी मुश्किल से मैं पक्की सड़क से गाँव की कच्ची सड़क तक पहुँच पाया,लेकिन अब मेरा प्यास के मारे बुरा हाल था,ऐसा लग रहा था कि बस अभी दम निकला जा रहा है...
तभी मुझे कच्ची सड़क के उस ओर एक खेत दिखा,उस के पास एक टपरी छाई थी जो शायद उस खेत के मालिक ने खुद को धूप से बचाने के लिए बनाई थी,मेरे मन में एक उम्मीद की किरण जागी और मैं अपनी खटारा साइकिल को कच्ची सड़क के एक ओर खड़ा करके उस खेत की ओर चल पड़ा,मैं उस खेत के पास पहुँचा तो देखा वहाँ एक पोखर भी है,लेकिन उसका पानी बहुत ही गंदा था क्योंकि उसमें भैसें नहा रहीं थीं,तभी मुझे किसी बच्चे के गुनगुनाने की आवाज़ आई जो कि टपरी से ही आ रही थी,मैं टपरी के पास गया और उस बच्चे से पूछा....
बहुत प्यास लगी है थोड़ा पानी मिलेगा,
उसने मुझे देखा तो खुशी से उछल पड़ा और बोला....
मास्टर साहेब!आप!यहाँ!हमारे खेत में और उसने फौरन मेरे चरण स्पर्श किए,उस की इस क्रिया पर मैनें प्रतिक्रिया देते हुए कहा....
तुम मुझे जानते हो?
और क्या!आप को कौन नहीं जानता,उसने कहा।।
मैनें कहा,पहले पानी पिला दो,फिर बात करते हैं।।
उसने कहा,आपके लायक पानी तो नहीं है,हम तो उसी पोखर का पी लेते हैं।।
मैनें कहा,मुझे पानी ना मिला तो मैं मर जाऊँगा।।
उसने कुछ सोचा फिर बोला,ठहरिए मैं कुछ करता हूँ।।
और वो खेत में से एक तरबूज ले आया और मुझसे बोला....
इससे आपका काम बन जाएगा,माँ कह रही थी आज एक ही तरबूज पका है,मुझे तोड़कर दे गई थी,कह रही थी घर आते समय ले आना,इसे बेचकर कुछ सामान आ जाएगा...
फिर उसने उस तरबूज में एक पत्थर से दो तीन वार किए,तरबूज टूट गया और उसने मुझे एक बड़ा सा टुकड़ा थमाते हुए कहा....
लीजिए!अब आपकी प्यास बुझ जाएगी।।
देखते ही देखते मैं सारा तरबूज चट कर गया और उससे खाने को पूछा ही नहीं,जब मैं तरबूज खा चुका तो उसने मुझसे पोखर में जाकर हाथ धोने को कहा,मैनें हाथ धोएं और उसे उस तरबूज के दाम देने लगा तो उसने लेने से मना कर दिया और बोला....
ये तो आपकी गुरूदक्षिणा थी।।
मैनें उससे पूछा,वो कैसें भला? गुरूदक्षिणा किस बात की।।
तब वो बोला....
जब आप पाठशाला में बच्चों को पढ़ाते है ना!तो मैं वहीं के मैदान में अपनी भैंसें चराता हूँ,वो इसलिए कि मैं पढ़ना सीख पाऊँ,आप जो पढ़ाते हैं तो फिर मैं वो सब एक लकड़ी की सहायता से धरती पर लिखता रहता हूँ,मेरे पास तख्ती और किताब खरीदने के पैसें नहीं है और ना ही पाठशाला की फीस देने के,दूसरों की भैसें भी चरानी पड़ती है तभी खर्चा निकलता है,ये देखिए मैं वही सब तो धरती पर लिख रहा था,आपने जो जो पढ़ाया है आज तक ,मैनें सब सीख लिया,ये तरबूज उसी की गुरूदक्षिणा है....
उसकी बातें सुनकर मेरी आँखेँ भर आईं....

समाप्त.....
सरोज वर्मा....


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