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बाबु-राही



बाबु-राही
मंजिल की तलाश
सन् 1970 की बात, माइग्रेशन आम बात थी,
पॉच-दस जमात पढा-क नहीं पढा, जाना
ही पड़ता परदेश रोजगार की तलाश में ।
मिटटी-आबो-हवा की तजवीज का फला है,
या जीवन ओ जिने कसावट का
फलसफा, यदि इससे आगे तो यह भी ठीक
ही रहेगा कि बेंटरमेंट आफ लाईफ, वैसे
मारवाड़ में माईग्रेसन आम ही है, लाखों
कुरजा हिमालय के उस पार से आती भी तो
है, खास समझें तो ठीक ठाक यह जीवन है
जिसमें बेढगे पत्थरें को गढा जाता है,
जीवन के खास कुछ पहलू भी जिसमें
आसानी से लडकपन में गाठ दी जाती है,
वह किस और जायेगा,लकब जरूरी भी है,
सरकारी नौकरी की ज्यादा मारामारी नहीं
प्रायः घृणा का भाव, कुछ पढना-लिखना
सिखा,पन्द्रह बरस पूरे पड़ें की नहीं, काम की
तलाश चालू, घर में डेढ दो साल में एक
बच्चा, नया मेहमान आ ही जाता,छः से आठ
बच्चे होना आम ही कही तो दस बारह तक
और उसके आगे जरूरते भी बड़ी नहीं,
सरकारी इदारों-कवरेज से परे, स्वतःदहन,
हनन का तुच्छ सा इतिहास, कारण मेलजोल
से निपट जाया करे, दलाल तो नहीं ना ! जे
चौर को कहै घुस, साहूकार से मुस्स, पैर
फेलाता तो जा रही है, से कुछ हद तक
बची सी-से परे भी, व्यवस्था स्थानीय, जो
मिल जाये वो सर्वश्रेष्ठ ही था, राजस्थान में
देहाती इलाकों में शुद्ध-खान-पान की
भरमार। दही,दूध,घी,छाछ आम सी थी,
केवल घी-दूध तो जरूर बिकता पर
छाछ का कोई मोल नहीं, छाछ के
हजार उपयोग,शहरों में जो दूध मिल
रहा है उससे लाख दर्जे बेहतर, कारण
भी था, दही दूध को मिटटी के बर्तनों में
ही पकाया-जमाया जाता था, परन्तु
धातु के बर्तन तो नाम के थे, पितल,
ताबा,कांसा और लोहा बस, लोहे का घ्
ाड़ा हो तो आदमी ठीक ही, मिटटी
का 60 साठ : लोहे का एक घड़ें की
खरीद के बराबर, माना जाता, बाकी
काम तो सारा का सारा मिटटी के
लोकल सप्लायर्स के बर्तन
आम-सर्व-सुलभ, बाजरे की रोटी के
ढेरों उपयोग, ताजी, सुबह की शाम
तलक, बासी एक से एक अव्वल टेस्ट,
बासी-ठण्डी बाजरे की रोटी को दो
चार दिन बाद भी गर्म-सेक कर खाओं
तो बिस्कूट से भी ज्यादा स्वादिष्ट, गुड
की एक डली, प्रायकरः खाने में यही
सब, घृत का उपयोग तो नाममात्र का
ही था, दूध से दही,दही से घी शेष रही
छाछ जो कि आम सी था, लय को
तोड़ा कम ही जाता। पर हर व्यक्ति
तदरूस्त मजबूत, सर्दी गर्मी बरसात हर
मौसम में फिट, यही कारण के इस धरा
से पूरे दुनिया कें कोने कोने में लोग
बसे में भी, तन्दरूस्त में अपूर्वत के
कारण खाया कमाया, तथा सामाजिक
सरोकर में अग्रेणी रहे, चाहत
भी रहती थी, अपने देश का
मानूस का दायरा भी बढें,
साख लेकर या देकर काम
को अंजाम लिया भी जाता।
बटेर सिस्टम में फायदें भी,
नुकसान भी, ठीक ठाक का
सेटअप पर बदमाशिया की
गुंजाईस भी कम, लोभ
लालच, छोटी छोटी जरूरतें,
पर एक ही प्रकार का ट्रेड
की मारवाड़ी की
व्यापार-व्यवहार में न.1 पर
तो ही है, काम भी सुरक्षित,
पीढी दर पीढी एक गद्दी पर
जमाव, सारे वक्त बेवक्त की
सारी मुश्किलात का एक ही
हल, और उसके आगे,
जिन्दगी की शान्त-सलिकें से
निर्वाहन,......
आम ही था कि
रिश्तेदारों-जानकारों के पास
काम सिखने,अवसर की
तलाश,कामखोज कर रखने
कुछ ऐसा ही था, पोस्टकार्ड
जो प्राप्त हुआ, तुरन्त तैयारी,
आधी-अधूरी आस, पुराने
बुसर्ट को ठीक किया, दर्जी
से दिनरात चक्कर के
बाद, एक हाफपेंट जन्म से
ही विकंलाग बढें भाई से,
व एक पेंट, सुती तिरपाल का बटन वाला
बैंग, मिटटी पुरानी सुराही, डाक आती साथ
में काफी कुछ पढा रहा, तरबियत से जमा,
बिना की फयूजन के छोटी सी आशाओं को
इकटठा किये, मन-बेमन का सवाल ही
कहा, यहॉ से काफी ठीक होगा ही, काम तो
मिलेल, पोस्टकार्ड को संभाल कर रखा, कई
बार पढा, बैग में सुरक्षित, रवानगी के लिए
कदमताल, जॉचा-लिखा कि काम देख रखा
है, रहना खाना तथा रू चालिस महीना, दूर
देशान्तर यात्रा, क्या भी तैयारी, जाना-रवाना
शुरू क्योकर पहुंच की मांइण्डसेट भी तो,
दो-रात तीन दिन बाद पहुचना ही था,
रास्ते भर में जनरल डिब्बा खचाखच, रोटी
पानी का बन्दोबस्त, खुले कुल जमा
पन्द्रह रूपये, सात भाईबहिन की याद, पर
किसी ना गम और ना ही उमंग, जिल्लत
जहालत से यदि बाहर निकलते है तो, काफी
कुछ यायावरी में रास्ते में ठीक ही मिलता,
कहावत ’’.......को देशाटन’’ कभी नींद,ऊघ,
अपने देश में सहयात्रीयों से कान में आ रही
आवाजें, चढती-उतरती सवारिया कुछ कुछ
भाषायी भेद से लग ही जाता नया स्टेशन
रेल का हाल्ट, काफी कुछ नया ही था,
कपड़ें की बोल, गेडी(स्टीक) से आगे जीवन
में कुछ नया नहीं था, पर गांठ-आंट पर
खून में रचा बसा होना ही, कारण की
जिन्दगी पानी से लेकर अनाज सबकुछ बचत
के खेल का रेला ही है, पिछले पचास
पैसे में 5केले, आवाज ने जगा दी दिया,
भुसावल स्टेशन कुछ आगे पीछे भीड़ में दिख
ही जाता, किसी ने यहॉ के प्रसिद्ध है
ताजे हरे केले मीटठे, सोच रहा था
ज्यादातर मेने गहरे पिले,चितरीदार देखे
है, बीस,बीस,दस के तीनसिक्के को तीन
बार गिन कर टोकरी वाले को दिये,
पॉच केले! जीवन में पहली बार स्वाद
चखा।
पेट में कुछ जाते ही ग्यारह बजे दुपरी
हल्की, तपत- चली रेल में हवा बहाव
सी लहर की बढते लय में कुछ हल्की
की झपकी आ गई, सोच भी रहा । क्या
कुछ पिछे छुट रहा, पिताजी का
गुस्सा.........रोज की पिटाई, मॉ के बारे में
कुछ सोचा भी नहीं थाली में रोटी
जमाती रही, दो जोड़ी कपड़़े पुराने,
ओछे करने हेतु पारिवारिक दर्जी से
कमोबेश फिट नई डिजायन की कॉलर
की समझ फड़ने से लेकर आज तक
कुल यही चलता रहा डेढ कोस सरकारी
स्कूल में झूमते जाना, झूमते आना, कभी
कभी तो दो भाटो कों मारते घर से
स्कूल तक मस्ती में साथियों के साथ
पहुॅच जाना, कुल आम सा था, यह सब
शिकायते घर पर पहुचने से पहले ही
पहुॅच जाती, पिताजी मुनीमाई की कठोर
जिन्दगी सुबह से देर रात तक घड़ी का
कोई काम नहीं, सनातन सा चलता रहा,
करते क्या थे मुझे कुछ पता नहीं,पर घर
इनसे चलता था, दो साल पहले बड़ी
बहन की शादि की थी, तकाजे हर
समय लगे रहे थे । खैर रेलगाड़ी
पहुची, पोस्टकार्ड को निकाल
कर तांगे वाले को बताया
भाड़ा तीन रूपया, पर
सात रूपये में यहॉ तक
पहुचा हूॅ, पुलिस वाले से
पूछा तो उसने कुछ ठीक
ठाक बता दिया घण्टे सवा घ्
ाण्ट में पहुॅचा पर अन्धेरे में
कुछ समय थम सा गया,
मन्दिर के पास की दीवार से
निकले पिलर, कम यातायात,
पैदल आते जाते राहगीर को
निहारते, चौकी पर बैठ गया
पता व स्थान का दोनो को
अकेला निहारता रहा । आस
पास काफी कुछ लिखा था,
पर भाषा का भ्रम व
नासमझ.......मन में आया कि
दोड़ कर पोस्ट आफिस से
पोस्टकार्ड लाकर और दो
लाइने लिख दूॅ । एक
सोच यह थी कि रिश्तेदार न
जाने कब आ जावे और तभी
टहलते एक सज्जन आ गये
नाम पता पूछा, खैर-ख्वाह!
कमाने के लिए आए हो, हॉ
हूॅ कुछ ज्यादा नहीं । जाते
जाते सज्जन बोल गये आ
जायेगा रात में आठ बजे
तक। सोच तो यह थी आठ
बजेगी कब, दो ठीक ठाक

रोटी कुछ गंध सी मार रही थी, एक छोटा
टूकड़ा आम का अचार, ओट लेकर गोधुली
में दो रोटी भा गई, नलके पास पानी भर
मिटटी की सुराही एक और रख दी, अगोछे
से कुछ गन्ध साफ की । महाशय पैर
पटकते आ गये दुर्गन्ध आ रही थी, आते ही
बोले पोस्टकार्ड मिला था, तू आया है चल
कमरे चलते है लड़खड़ाते झेपते कमरे में
पहुचे । कुछ नहीं-बेतरतीब बिखरा पड़ा
सामान, निवार की चारपाई, सिल्वर का घड़ा
खाली पड़ा, नीचे पड़ी चटाई पे बैठ गया, वो
चार पाई लेटा, बड़बडाते कब नींद आ गई
पता ही नहीं चला, सुबह चाय वाला चाय
लेकर आया, तब उसने झकझोर कर मुझे
उठाया चाय दी, लेकर पहली दफा ब्रेड का
भी स्वाद चाय के साथ चखा ठीक भी लगा,
चार दिनों से पहली बार आराम से सोया
।चाय की चुस्की लेते बोला तेरी दाड़ी मुॅझ
आई की नहीं पर इतनी जल्दी काम को
निकल आया, कुछ बोल नहीं पाया, चाय
खत्म की, इशारे से बोल सामने एक तरफ
टायलेट है निपट आ, फिर चलते है, पंसारी
की दुकान जहॉ पर तुझे काम पर लगा देता
हूॅ बात कर रखी है, मैने भी जल्दी जल्दी
दातुन कुल्ला सब खत्म कर साफ जोड़ी
कपड़े बेग से निकाल पुराने कपड़े वापिस
बेग में जमा दिये, बैंग वही जमा कर चल
दिये, दोनो साथ । आधा कोस चले पर,
रास्ते में बातचीत के दौरान केवल एक
गुरूज्ञान तो ठीक भेजे में बैठा, रात की
सुबह आएगी ही, कौन क्या खा -पी रहा,
कहॉ सोता उठता है, बड़ें शहरों के अपने
अडजेस्टमेंट होते है, जो कुछ उसी में
जमें तो ठीक नहीं तो, किसी भी काम
धाम में नहीं, ठीक है अपने ऐम
में ध्यान-बैकार की दर्शन में सर
बिलकुल नहीं खफाना, जो काम है उसे
अनुसार सार और अपने मतलब
पर ध्यान..। दुकान आ गई, दोनो
बतियाने लगे टूटी फूटी हिन्दी आराम से
समझ रहा था, सेठ ने नाम पूछा बताया
जगमोहन! ठीक है काम समझ ले, मुझे
लोग मुला भाउ कहते कोई परेशानी
नहीं है, बाकी सब दासु कुछ देर में
आयेगा वो तेरेको बता देगा घर से
खाना बैंक को जाना आदि दो तीन में
ठीक से सब समझ जाना, साईकिल
कभी मिल जाये तो ठीक नहीं तो पैदल
ही आनाजाना पड़ेगा रात को दुकान में
अन्दर से बन्द कर सोना है । पॉच छह
लोकल बन्दें उसमें से दिन भर दो बड़ें
गौदामों माल लाना, बाहर से केवल
में एक ही बाकी सब, पर उन सबमें
राजेश का व्यवहार एंव शान्त एंव
शालिन था, बाकि तो आयाराम गयाराम,
से बडें शहरों में काफी कुछ माहौल
काफी कुछ इंसारों से ही हलक जाता
है, समय का अभाव है, साईकिल के
पिछें वाले पहिये पर चैन-पैडल है, तो
आगे वाले में अपने आप बल मिलेगा ही
!
ये कोई लगभग 10 बजे होगे दुकान में
काम की शुरूवात कर दी, अच्छे से
झाडू लगाया, स्टोर्स-डिब्बे
ठीक ठाक किये बोरियों के
मुह को ठीक किया । काम
चल रहा कि वासू आ गया
जो कि करीब पिताजी की
उम्र का था लगभग पचास
के पार । घर ले गया
सेठानी को बताया कि इसका
नाम जगमोहन है नया
लड़का है, कुछ दुरी पर बैंक
में सभी से परिचय दिया।
खैर चीज-बस्त धीरे धीरे
समझ पड़ी, दुकान सुबह से
ही ग्राहकों लाईन को ’’तेल
चाय चीनी दाल चावल मिर्च
ग्रोसरी’’ नमक तौलना पैक
करना चलता ही रहता, आस
पास के बस्ती के छोटे
दुकानदार भी खरीद हेतु पर्ची
पैसा दे देते, पेंकिग ढुआई
चलती ही रहती, दिन में
केवल एक बार बाहर जाने
का मौका मिले वह बारह बज
जावे और पैदल टिफन को
चलू, मालकिन खाना भी
तैयार कर लेती कभी कभार
इन्तजार, सीढियों से बाहर
देखते देखते टिफन व
हालचाल में कुछ समय
व्यतीत हो जाता ।

दस पन्द्रह रोज क्रम चल रहा था, एक दिन
सेठ ने आवाज दी की टिफन लाते वक्त एक
अध्धा भी ले आना, समझाया तु लेता है क्या,
मुझे तो आज तक इसका रंग, डिब्बा भी नहीं
देखा! कोई बात नहीं मेरा नाम बोल देना दे
देगा । आते समय खिड़की में झाक कर
चौकी पर बैठे का ठेके पर बोला- मल्लू
भाउ भेजा, झठ से अखबार में लपेट के दे
दिया, खाने के साथ दोपहर में सेठ जी
का रूटीन था, सेठ जी एक आध धण्टे में
खत्म करते तब तक गल्ला पैसा सब ठीक
से करता गद्दी सही से करता । जो भी कोई
अपनी भाषा से सेठ को मेरे व्यवहार
ईमानदारी पर बोल जाता, पर मुझे समझ
नहीं आ पाती, उपर खाचे में बनी कोटरी में
रात को मै, दिन में सेठ जी आराम
फरमाते, एक दो औरते आती सेठ जी ने
बोल रखा था कि ऊपर भेज देने का बोल
रखा था, काफी कुछ मुझ पर इन सबका
उस समय कोई मोल भाव नहीं । चलता
रहा दो ढाई महिने बाद घर के लिए पैसा
भिजवाने दिवाली की याद सेठ जी को
दिलवाई, सेठजी बोल कल डाकिया आयेगा
वह पैसे भिजवा देगा,
सैठ जी ने डाकियें को इनाम के साथ मेरे घ्
ार के पते पर पॉच सौ रूपये भिजवाने के
लिए पता पैसे दे दिये, मैने पहले मॉ का
नाम, फिर पिता का नाम लिखाया बोला
रसीद तो आवेगी, हॉ 15 दिन तो लग ही
जावेगी । खैर में निश्चित रहा । दिन में
दुकान को भली प्रकार से जचॉता, रात को
दिन भर की बिक्री व पर्ची को नत्थी
करता, भाउ एंव मेरा हिसाब का लयबद्ध
ही रहा हर चीज में मेरा परफेक्शन उसी
के साथ जम रहा है, पर बाकी किसी
को कुछ भी पता नहीं, पर मेरे आने के
छः आठ महिनें में ही खूब
आमद-गिरामद का चक्र ठीक ठाक, हर
चिज को नियंत्रण में
दोपहरी में एकबजे से तीन बजें ग्राहकी
में ना के बराबर ही रहती, पर सुबह
सात बजे से सांय नो बजे तक अपनी
धारा में रह-चलती।
मुकाम
गल्ले में एक दो पॉच दस के नोटो के
बण्डल बनाना, बताये अनुसार बैंक में
जमासात,रोज सेठ जी से चर्चा
सेठ जी धीरे धीरे पूरी तरह से निश्चित,
जिन्सों के भाव में ऊच-नींच में काफी
ज्ञान, पैसा भी बना रखा था। किस
चीज को कितने समय तक दबा के
रखना है, किसे तुरन्त निकालना है आम
बात थी, तेल चावल दाल में पूरा
जोड़-तोड़ बैठा रखा था,
आठ दस माह में पूरी तरह जमने लगी
जेसे दो दोस्त, बैक में खाता खुलवा
दिया, राशन कार्ड बनवा दिया, वोटर
लिस्ट में उम्र 21 कब दर्ज करवा दी,
पर खाते में दो सौ चार सौ, पॉच सौ
सेठ जी दोपहर में बालते बैठक में मेरे
नाम से जमा, बैंक में हमारे लिए अलग
सा काउण्टर जिसमें जाते ही बिना गिन
नोटो के बण्डल जमा, कर्मी
शाम को जाते वक्त दुकान
से सिगरेट के कस, पर्ची
पासबुक हाथ में, दुकान का
खाते तीन थे एक मेरा चारों
में रूटिन से पैसा जमा,हर
दो तीन महिने से घर
पर एक पॉच का मनीआर्डर
क्रम चलता रहा, सेठ जी दो
साल हो गये अब गॉव जाना
पड़ेगा सबकी याद आ रही
है, पिछे कौन देखेगा,
चमत्कार ही मुझे अपने देश
की यायावरी जो करनी थी घ्
ार से लगातार पोस्टकार्ड,
अन्तर्देशीय, पर सेटल लाईफ
का जिक्र, यह जो आवाजाही
का साधन है व्यक्ति को
जमाने में रफतार भी देता,
हंकमंक हो तो, या बिखेर भी
देता है, पर मुझ में कोई फर्क
नहीं, सब कुछ वही तो नहीं
रह गया, प्रतिदिन जोड़ी
कपड़ें साफ-धुले,प्रेस हुई
जो काम वाली बाई के
बदौलत या सेठ जी के, हर
महिने बीस दिन से मेरे नई
ड्रेस का आर्डर दर्जी एक
से एक बढ़िया ड्रेसे सिल कर
ला ही देता, एक दिन जिन्स
की फरमाईस क्या कर दी,

लाईन ही आ गई, एक सलेक्ट की!
दुकानदार ने सेठ जी को बोला वास्तव में
इसको जीन्स के टेस्ट का पता, ओरीजनल
रंगढगरंग का तो है ही, पर बनावट का भी,
रास्ते में सेठ जी ने पूछा तेरे को यह सब
जचता है, मेरे को भी, जब हम गद्दी पर
बैठते हे, तो यह कपड़ें रहने का सलिका,
फ्रेस माईण्ड, ग्राहक ना चाहते भी, बहुत कुछ
खरीदता है, आपसे आकृषित हो जाता
है, यह पहला मार्केटिग का सबक है, पर मेरे
लिए साफ सुथरा रहना, एक रूटीन था,
हॉ यहॉ पर सेठ जी ने एक और मुलम्मा
लगा दिया कि सीट पर बैठते टाईम आपको
परेशानी न हो इसके लिए अधिक से अधिक
सहूलियते, नोकर के लिए, द्वितीय सेठ बन
गया,
शाम को बैठकों में जाना, पर कुऑरा ही, हॉ
बहुत से सामानों की लिस्ट-पर्ची में प्रेम का
इजहार होता, पर वह फाड़ने तक ही......
टेक्सर की अंजीब फितरत है, मन में आये
तो ही भाये, कुछ कमर भी सीधी-साधी हुई
कि नहीं, मन हिलोर तो करे ही, बोलचाल
भाषायी पकड़ वाकपटूता रिझाने,मनाने के
साधन भी, किसी को यकायक घायल भी
कर देवे, लय का खेल या चाव, पर मोल
भाव या सेंलिग ट्रिक तक ही ।
आलय-निलय
पर गॉव की याद अपना मान रखती है,
इजाजत तामिर हुई तिमारदारी से पूरा
सामान सजाया, 15 दिन का मतलब 15
दिन, पर की यात्रा जिसमें सबकुछ चेन्ज
वी.....बैग, सूटकेस परिवार में सभी के
लिए कपड़ें उपहार, तरिके 20 तथा
50के नोटों का नया बण्डल, पढने के
लिए हिन्दी अग्रेंजी की मेंगजिन परिवार
में सबके लिए कपड़े, मेटल की सुराही
खास यह रास्तें की यात्रा में अलग
कपड़े, खाने का सामान रिजर्वेशन में
बुकिंग ठाट बाट से मुनिम जी का
लड़का मुनीम....बाबू कब गॉव में कब आ
गये लगभग सपना सा ही था, पिताजी
मॉ भाई बहन रिश्तेदार सब अंचभित की
बदमाश-आवारा यायावार कैसे जम-सा
गया, किस्मत की धार-वार, बहुत बाते
होने लगी, पर मै बिलकुल भी ध्यान दे
नही पाता, दोस्तों की रेल पेल हर और
से आ छोटी की सहेलिया खूब मजे
लेती, चकोटती पर मेरा मन तो केवल
दुकान शहरी विरासत पर ही जमा यही
शहरी विरासत का मैल,उपहास,पागलपन
या गॉव के लिए
वरदान,उपहास,दीवानगी गुमशुम दो तीन
दिन निकल गये, पिताजी का जोर चल
तेरे को सेठ जी से मिलाउ पर मेरा मन
चारपाई पुराने अखबार से दूर ही नहीं,
चुपचाप चार पॉच दिन यू ही निकल
गये, पिताजी एक दिन बोले दो-एक
हजार का ही कर्जा बचा है, छोटी की
शादी चार-छ माह में करनी है देख
केसे हो वे यह सारा काम, छोरा बराबर
का हो जावे तो घर का भार आ ही
जाता है, मै कुछ बोल ही नहीं पाया,
शाम को पण्डितजी को
बुलाया, भोजन करा कर मेरे
बारे में पिताजी ने बताया कि
यह दो साल से आया है,
इसका दिन-दशा कैसी चल
रही है टाईम तो ठीक है,
क्या परेशानी है कुछ भी यहॉ
पर इसका जम नहीं रहा है,
इधर-उधर भेरू-भोपा,
बुझागर के बाद, गॉव में
पण्डित जी की अन्त
में याद.............
पर पण्डित से मेरा छत्तिस
का आंकड़ा ही खूब परेशान
किया, कभी जरूरत का हश्र
हो ठीक भी पड़ें, हमेशा
प्रसाद पताशें की मारामारी,
चूरमा जिसमें दूर दूर घ्
ा-खाण्ड की किल्लत,
जातियता से कम,
अल्हड-आल्हान का
खुराफात, पर पण्डित जो
ठहरे जानते भी कि साल या
दो साल मस्ती, उसके बाद
जुआ पडे़गा तो खालिस्तन
जिन्दगी में वापिसी कहा,
कोल्हु के बैल के मुहाफिज,
ढर्रे या ढेरों की जिन्दगी,
ज्ञानी-ध्यानी में तो अव्वल,

चला के ही बोल देना, यानी
गफलत-सवालात सहज ही बन पड़ें
पण्डितजी
गालिया भी खाई, अल्हड़पन जिसमें किसी
के बाप की भी नहीं सुनना चाहे, मार कितनी
की पड़ जाए,
रोजब रोज घर पर नया बहाना, पर मार एक
जैसी......... खैर पण्डित भी पहुचें हुये कभी
कुछ नहीं...... श्राप-सा दिया होगा, कोई भी
पूछने गया हल जोतना हो, गॉय-भैस
खरीदनी हो या गॉव में पंचायती कभी किसी
को किसी काम के लिए मना नहीं किया,
बच्चा बच्ची, नामकरण समय सब कुछ
उंगली, हर साल एक शानदार सत्यनारायण
की कथा, पर पूरे गॉंव के लिए तो शानदार
खाने का प्रबन्ध करवाके पूरे आसपास के
गांवों के लिए भोजन रूत रूटीन सा था, पर
जिस और चलते उस और आगे पीछे
लाईन सी लग जाती, पूछने समझने
वाले........ हम सब साथियों इन जजमानों से
हुल्लड़ करने में खूब मजा आता,
एक बार नीची जाती बिरादरी में पंचायती में चले
गये, लड़की को लेने मुकालवे का प्रश्न था,
आस पड़ोंस के पॉचसात गॉव के पंचों एंव
उनके साथ लपकों,बटाईदारों की भीड़,
तादाद पंच परमेश्वर सब लड़के का पक्ष ले
रहे थे, गॉव के सब लडकीं भिजवाने ंके पक्ष
में केवल एक ही मुददा की ऐसी लड़किया
जो गौना जोड़ रखा, इसप्रकार छोड़ तोड़
आऐगी, कमोबेश सभी खानदानों में कितनी
तकलीफ आएगी, इस और भी तो लड़कों के
साथ तजबीज आज जाएगी, आज इनके
यहॉ कल हमारें यहॉ, समाज में क्या
मैसेज जाएगा, पर किसी नें भी एक भी
नहीं सुनी की लड़की क्या चाहती है,यह
समय के सिस्टम की उपज ही है, कि
औरत का भाग्य पति के साथ, नहीं तो
मारकाट, जायदाद जो ठहरी, चारों और
से पड़ी तोहमत पर पण्डित का
शान्त-गहरें समुद्री व्यक्तित्व में कोई
मुकाबिल ही नहीं... सफेद लटठें की
साफ-ओछी पिण्डी के काफी उपर की
बंधी धोती, हाफ बाजू का कुर्ता, कन्धें
पर लाल सूति गंमछा, झोला जिसमें
पंचाग आदि, हाथ में छड़ी, काले पटटें
पूनम का नाम लेकर पण्डित जी ने जौर
से पुकारा, सबके सामने लड़की को जोर
से पूछा तू क्या चाहती बेटा, तू जो
कहेगी वही होगा भले, ही मैं जान दे
दूॅगा पर इन सबमें कोई ताकत नहीं है
की तेरे को जबरदस्ती भेजना..............
पण्डित ने ऐसी छड़ी बीच में जमाई की
सबसे अलग पक्ष, लड़की की जा इच्छा
है वह प्रबल कोई भी इस उपर नही......
सब को मानना पड़ेगा.......लड़की से पूछा
पर इसने इहलोक से नफरत जताई,
बोल दिया जो चला गया, सो गया,
आगे मेरे तो केवल गिरधर गोपाल.....
सोलह सत्रह साल की लड़की से यह
सब बोलना नागवार रहा, केवल रामनाम
वह भी इसी गॉव में रह कर.................
’’आज वह आसपॉस के सेकड़ो गावों में
भजन-जागरण गायकों में
पहला स्थान भी, सन्त सा
रखती है’’ पण्डितजी ने
अन्तिम रूप से जता दिया
कि यह बच्ची इसी गॉव मेंं
रहेगी, इसके मॉ बाप रखे तो
ठीक नहीं तो इसके घर
के एक हिस्सें मेंं बाहर की
तरफ झोपड़ी कर बैठा दो
जिससे यह अपना जीवनधारा
में रह सके, रही बात खाने
पिने की मेरे घर से खाना आ
ही जायेगा, आप लोग
व्यवस्था नहीं करों तो ।
उसके बाद पण्डित जी कोई
बात काट देवे आस पास के
बीसएक गावों में, कोई बात
मजाक नहीं....
क्या मजाल की हजारों की
भीड़-तमाम, पंच परमेश्वर
सब बेहाल लड़की-पूनम ने
क्या गजब से बोला सास
ससूर, पति नारकीय
जीवन....... के ससुराल हिल
जावे, सब कुछ
सामान्य....................हजारों
लोगों की बात नीची पड़ गई
पर पण्डित जी को फर्क नहीं
जजमानी -मस्ती यथावत
ही रही...............धमकी
मारकाट को चोधरी साहब ने

ही, ठहरे हुए यजमान हॉ में हॉ, ने बचा ही
ली, कारण भी भीड़ किस तरफ ही हो लेती
है, जरूरी नहीं आप के साथ मेरे साथ तो
कोई लीड करे उसके साथ,गुण दोष नहीं
देखती, पर जातिगत श्रृद्धा कहों या बात
की मजबूती के मायने, अन्त में सत्य की
विजय, खैर पण्डितजी के जीवन कर्म कमाई
में भलाई का अपना ही स्थान था, कभी
किसी को मना नहीं, कोई भी आये
फल-खुशी देकर ही भेजते, जात-पात नहीं
कोई दरवाजे के उस और या कोई इस और
चौकी पर सबके साथ एक सा व्यवहार, कही
कोई कमी नहीं या सन्तोषी, क्योंकी जो कुछ
जमता भिखारी साधुसन्त को दे ही देते,
ज्यादा हो गया, किसी सेठ या चोधरीजी
के यहॉ पर कोई मनाही ही नहीं,
लोग-लुगाई नाम में बरकत समझतें या
आर्शीवाद
बुलावे पर पण्डित जी हमारे घर को आ ही
गये
पण्डित ठहरे सत्तर से ऊपर के, सुर भी
अच्छे जमे ! चिन्ता न करे, बस यह निरोग
रहे, खाने का पूरा ध्यान रखना, हो सके तो
देशी ही खाना, पर पीना कभी मत बाकी
शिव की अराधना में कमी मत आने देना।
मुझे कुछ भी समझ नहीं आया चुप-चाप
दिवार की और पीठ कर बैठा रहा,
खीर-पुड़ी मॉ ने परोसी पण्डितजी एकटक
मुझे ही देखते रहे, चिन्तामत कर जगमोहन
की माई, खान-पान शु़द्ध रखेगा रोग कभी
इसके तेरे पास नहीं आयेगा, तेरा वजन है
उसने ज्यादा तो सोने से लाद देगा
तेरेको,
मै मन्त्र लिख देता हूॅ, सुबह शाम तो
जाप करना ही, फ्रि होवे तब भी करता
रहा कर, मन ही मन पता न चले ।
शराब से कोसो दूर ही रहना, गॉठ बांध
ले न तो पिना, न पिलाना
कुछ तो समझ थी, सब कुछ आखों के
सामने आ ही जाता, जो भी शाम सुबह
दुकान पर सामान-किराना लेने
मिलर-जमादार आता, उसमें कुछ रात
को ही सोते रह जाते कई बार तो दो
तीन तक, सेठ जी भी देवी जैसी पत्नि
के साथ छोड़कर डायन सी औरतों के
साथ शराब ......।
गुमसुम बेठा रहा पण्डित जी को, मन्दिर
के पास चुग्गे के चबुतरे का हाल खराब
है, हो सके तो ठीक करवा देना, फिर
तेरे को कहने में मिलू न मिलू, उम्र आ
चुकी है, मै तेरे को आर्शीवाद देता हूॅ
कि खूब फले-फूले जीवन में मेरा कहा
कभी मत छोड़ना ........।
कुछ आखें नमसी, सब बया कि भाषा
की क्यातक नहीं है दिल से निकलती है
तो सीधे दिल तक पहुचंती है, पण्डित
जी ने कहा मेने दिल में उतार दिया, मॉ
बोली क्या महाराज बेटे को आपने बुजुर्ग
बना दिया, इसकी उम्र क्या है........
मॉ मन्दिर में चबूतरा बनवा देना, मंदिर
को रंग रोगन भी, सेठ जी के नाम से
करवा देना पैसे दस पन्द्रह
दिन में आ जायेगें ।
मैं अपने जीवन में पण्डित जी
के इस रूप में पहली बार ही
मिला, पता नहीं दवाखाने
का महत्व बीमारी में ज्यादा
है, अथवा काफी कुछ समय
पर ही मिलता है, मिल रहा
हॅ । खैर आये हुये को आठ
रोज हो चुके थे, कल सुबह
प्रस्थाना था, मॉ बहिन काकी
सब मेरी रेल यात्रा तैयारी
कर रही थी
जब पहली बार गया तो
पिताजी ने टिकट व
दस रूपये दिये थे बाकि सब
ने मिला कर पॉच रूपये एक
थेला जिसमें कपड़े व कपडें
में ही लपेटी रोटी अचार,
मिटटी की सुराही कोई
उत्साह नहीं पिताजी स्टेशन
पर गाड़ी में साथा देकर छोड़
गये ।
समया का चक्र गजब है,
जरूरत हो तो कोई नहीं
मिलता, वेजरूरत दुनिया पड़ी
है। ट्रेन पर 10 जने छोड़ने
आये, पिताजी ने मेरी ओर से
सबको दो पॉच रूपये दिये,
मॉ को कहा पण्डितजी का
कहा कर देना मैं अगले हफ्तें

में मनीआर्डर कर ही दूॅगा। तू चिन्ता मत
कर हंसी खुशी से विदा हो, कहा सुना माफ
कर देना ।
आराम से बड़ी तबीयत से हिन्दी अग्रेजी
अखबार को देखते कब पहुचें पता ही नहीं
चला ।
सोनी
सीधे दुकान ही पहुचा, सेठ जी ने बोला
जा धर से नहा धो के आजा, खाना खाकर
मेरा भी टिफन ले आना, आज तू काम
निपटा ले कल सुबह तेल मिल ले ली है,
तेरे से हॉमी भरवानी है, और धीरे से कहॉ
वह सोनी रोज मुझे रोज पूछती है क्या तु
बता के नहीं गया,
जा पहले उससे मिल आ,
मैं तो जानता नहीं
हॉ यह तो सही है कि तू झूठ तो नहीं
बोलता, पर छुपा मत मेरे से
सच्ची बात भी कभी कभी झूठ से लगती है,
सेठजी जो ठहरे अव्वल सिद्ध हर मजमून को
भॉप लेते अथवा उम्र का तकाजा,
यार लड़की बहुत अच्छी है,
पर में जानता तक नहीं
कई दफे आप यूजवल हो तो भी गलत
है, ध्यान सब देते है, हमे भी ध्यान रखना
चाहिए, पर मायने एवं समय का फेर भी रहा
है
शाम का इन्तजार भी रहा
खैर पन्द्रह सोलह दिन में मुझ में काफी चेंज
भी लग रहा था, आने जाने वाले स्टाफ
दुकान पर काफी कुछउठापटक पहले सब
को ठीक ठाक किया सब कुछ रूटीन,
फिर गद्दी का ठीक.......पण्डित के लिखे
मन्त्र....................
मुझे सेठ जी का व्यापार की
समझ-बूझ,सेठजीको मेरा सलीका
मिल में तेल वो कई प्रकार के पर
कपास्या तेल पहली दफा देखा, कपास
भेसों को देते रहे पर ऐसा काम............
बिजनेश में सब बिकता है, परिवर्तन
शाश्वत भी और सतत भी, चाह कर भी
आप गर्मी-सर्दी-बरसात को बुला नहीं
सकते, हटा नहीं सकते
जैसे आज रेडियों सब की जरूरत बन
गई ।
सेठ जी का वही जीवन की नैया, किसी
भी चीज से परहेज नहीं घर का टिफन
गटर में, बजारी चिकन बटर में । हर
चीज को गहरी समझ, कम बोलना, पर
पूरा तोल के लेना, सामान्य सा व्यवहार
था, वर्षो की तपस्या का फल, या
सिस्टम के साथ हंकमंक हो धन्धें में
अग्रगण्य तो मस्ती में भी, शायद मस्ती
है, या जीवन का दु-उपयोग
सामने की गली में एक लड़की सोनी
जिसका यदा कदा आना जाना लगा
रहता था, उसके पिता सेठ जी के मित्र,
पिने पिलाने के शोकिन या शाम के
साथी, पर वह घरेलू सामान के लिए
प्रतिदिन आना जाना लगा रहता था,
स्लिप जरूर अग्रेंजी में होती थी, धीरे
धीरे मुझें उसका वह रूख ही लगता,
मुझें भी लगाव सा था, पर
वह पहले अग्रेंजी ही
जानबुझकर स्लिप करती बाद
में धीरे-धीरे साथ में हिन्दी
अनुवाद भी लिखने लगी,
जिससें में उसका पर साईन
भी गजब की राईटिग अग्रेंजी
की चौथी वर्णमाला में जो
उममें शान-में-जान बन
आती, सामान्य कद, तीखे
नाक नक्श की मालकिन,
डार्क आखें रंग सांवला चेहरा
तीखा व गोल पर भरा हुआ,
रंग देखकर गुणों की पूजा
शायद न हो जिसके पिता
का अबूल नाम था रेल्वे में
नौकरी, दुकान में उसका
छोटा मोटा खाता चलता था
शाम को प्रतिदिन किराना
लेने आ ही जाती है, इन्तजार
भी करती आराम से सामान
की लिस्ट अग्रेजी में तैयार
कर देती, उसके आगे हिन्दी
में लिखती, रूटिन सा था,
खास सा था हर वक्त हजारों
से अलग हर बात में उमंग
उल्लास अदब, पर अल्हड़पन,
बहुत कुछ कह देती, कुछ तो
लड़कपन की सलायते या
सहज भाव ..जरूरते भी बन
पड़ती है ,

में भी सोचता कुछ समय तो और दे देवे, पर
भीड़ और भाव दो साथ साथ नहीं,
कुल जमा प्रतिदिन का हिसाब यह रहा कि
मुलाकातें आम रही, खाने के लिए कुछ न
कुछ जरूर ले आती, दोपहर एक बार जरूर
नजरे इनायत!
एक दिन शाम को ब्लेक में खरीद प्रिमीयर
पदमिनि, में बैठ ले चले बड़ी से बिल्डिग के
खाचों तेजी से घुसे उसमें, एक एक नजर,
उम्र का लिहाज नहीं, बहुत सी रंगी, रंगाई
सिस्टम से ट्रेण्ड, हावभाव बा.. से बोले
इसको भी कुछ दुनिया दारी सीखा, कुछ
करेगा, आगे बढेगा । शायद सेठ जी अधिक
जानकार होगी, या पुरानी परिचित, यह सब
पहले दफा, पर लिखा,सुना बहुत कुछ
लगभग वैसा ही जैसा माईण्ड में तस्वीर का
तसव्वुर का मिजाज, यह मानुस के
खयालात, खानों में विचरण दुश्वर का
तकल्लुफ या इससे आगे, शायद पैसों का
गुण-दोष,
पर हाथ मजबुती से पकड़ें भलमानस मुझे
वह पकड़ कर मुझे एक बेकार से अधनगे
तस्वीर के सजावटी कमरे में बेसुधी-सा
धकेल लाई, एक दो छोरिया फूलों के गुच्छो
को जमाए आती जाती, बाई पास में बैठ गई,
पिने के लिए ठीक ठाक सा अरेंजमेंट लॉ पर
मेने मना कर दिया, कुछ नहीं चाहिए, खूब
मनाया हाथ से सहलाया भी मै मन पूर्ववत,
वह नाराज हो गई यहॉ तो आता तो है,
जीवन एक बार या हजार बार बात बराबर
है, नाराजगी की कोई बात नहीं.......मेने बोल
दिया , इन सब के हाथ में लगाउगा
नहीं, बाकि सब ठीक, खूब मनुहार-मान
के बाद
चाय-काफी पिनें को मिल जाये तोठीक
नहीं को कोई नहीं नाराजगी नहीं,
सेठ तो बखिया उघेड़ ही देगा
रोज रोज नया ग्राहक कम ही मिलता
है,
इस बाजार में भी भाउ का पूरा ठसका
भी,
मै सेठ को कुछ नहीं बताउगा पर आगे
की छोड...बढिया सी कुछ पी पिने मंगवा
दे तो अच्छा रहेगा, यह सब नशा पता
अपने से बकवास, जो कुछ आसान हो
मंगवा दे मंगवा दो, मेहरबानी होगी,
हकलाते, माथा पशीने से तरबतर, किसी
भी चीज की शिकायत,फरियाद से परे,
दरवेशी मन, शायद उसे दिल में चुभ
गई,
पर मैने अपने मन की ही बात, पर मय
खाने में चाय, तो दूर की कोड़ी, भोड़ा
प्रदर्शन की दस्तक जो है, पर उसने मन
को सहज करते हुए बोल दिया यह तो
हमे भी नसीब नहीं होती पर, पर
तेरी यह बात दिल दिमाग में अटक गई,
ईमान से
मासूम को पास में बैठाकर पास के
खाचें में कोने में, जो कि कमरे का
ही एक सा अलग किया हुआ हिस्सा,
कोने में पत्थर का उभार लिया टूकड़ा ,
पर पर्दा किया हुआ, शायद झलक भी न
पड़ें, शायद किचन ही होगी
चाय बनाने चली गई , पर में
पलंग पर चुपचार बैठा रहा,
मूरत की तरह, सोचता रहा,
कुछ क्षण के कितना
आडम्बर, सब कुछ पर सबके
लिए न कोई अमीर न कोई
गरीब,सबसे के लिए
दर,जीवन में विविधताए भी
है, नींव भी है, शायद इनकी
जिन्दगी दस-बीस साला ही
होगी,सल-सल के सिसकी,
रि..त रह पाती है, आतुर
पतिता जो है, समाज का
अंग है, बुराई पर हजारों ताने
पर हम भी कारण है, हमसें
ही विरूपण, निवारण, पर
उससे के हरेक की
हिस्सेदारी कारण भी है,
सुरसुरासुन्दरी,दुनिवाईबाधाओं
के सम्पूर्ण नागावार के परे,
किसी को मनाही, अंसभव
असल में समाज जाति-पॉति,
गिलास की गन्ध को बन्द
करने का जरूर कहा ।
ताकि में सहज हो सकू।
तीनघण्टें साथ में ढेर सी
बाते, दया-धर्म-नीति एंव
पढाई खर्चा कैसा चलता,
बच्चे जब ताकत एंव शरीर

साथ दे रहा है ठीक ही चलेगा, बाद में वही
फटीचर का जीवन.......
क्या यह सब जरूरी भी, मन का पता तो
चल ही जात है जब, मुझे हमेशा
सलिका-वलिका, मन को भाये यह शूरू से
ही है, नफासत सायद मेरे से है, या खून में,
क्योकर जहिन टेरेलिन को भी रेशमी सा
लपेटा है, नाकाबिल पर क्या लटट्ा भी
मिलेल ।
गंन्ध तो केवल प्रकृति की ठीक, बाकी तो
नकली बनावटी बेबसी ही झलकती है,
शायद जन्म से अबतक कभी भी इत्र-फुलेल
का मन नहीं, गुरेज भी नहीं ।
बढिया सी मन की चाय, मोहनी के हाथ की,
अलगाव-लगाव भी ......पता नहीं मुझे उससे
कैसज लगाव, झकास से कपप्लेट में यह
सब जरूरी भी, सिस्टम की पैदायस है
बातचित्त साथ में तबले पर आवाजे, पर
बहिन का साथ, जीवन भी अजब-गजब
रिश्ते चाहे, पर निभाना भी वाह वाह, दो
बच्च्े, एक अन्धें जगंल में खोया सा परिवार,
शायद छोटे भाई बाजरूरत या तकदीर का
खेल, सब कुछ प्रकृति में ही समाहित है, बस
कदर-बदर करनी तो आनी ही चाहिए,
समाज में क्या सबका का स्थान है, खैर
मोहिनी से रिश्ता कायम, किस्सा या कहानी,
आखों के सामने की सारी घटनाएॅ भाग्य से
भाग्य के सहारे की जरूरत,......यही की समय
कोई 12बजे का होगा सेठ ने आवाज लगाई
दोनो प्रिमियर में बैठ कर घर को चले, में भी
घर ही सोता हॅू बाहर बैठक मेंं पर सुबह
पॉच बजे उठ कर देनिक निवृत
पश्चात पण्डितजी के बताये रास्तेपर,
केवल उसी रास्ते पर।
मन को कठोर कर एक दिन दिल से
सेठजी को बोलना ही पड़ा मन के रास्तें
में कुछ ज्यादा ही सहज होकर सेठ जी
समझाया ताकि कुछ तन-मनधन का
ख्याल रखा जावे, जिससे आगे का
जीवन सुचारू रहे, चलता रहे, यह सब
आज की बुनियाद है कल को यह सब
इमारात की शक्ल लेगी, कमजोर या
मजबूत...
सेठ जी बड़ें विस्मय भाव से यार तू
बड़ा ज्ञानी निकला, तू संत कब हो गया,
साथ ही यह भी वह मोहिनी-कोठे.......
तब से बहिन सी है, और मै सोचता हूॅ
वह बहिन किस जन्म से ......
यदि तू सोचता है कि इस दुनिया-दारी,
जहॉन की मार-धाप से कोई बचा है,
तो वह गटर में सड़ रहा है या ठेके पर
लाईन में हमेशा खड़ा है या हिमालय
चला जावे ।
यह भी कि हजार झटके, बेटी कब घर
बार छोड़ गई इकलौति वह भी यह सब
उसका ही है, इसी सहर में खोली में
मुह छुपा कर मरने की तैयारी कर होगी,
घर में और औरत पर आखों में कभी
वफा नहीं, कोई आये जाये जीवन में
पता नहीं चलता 1947 से जब
पाकिस्तान में दरबदर होके आये तो
अगले पल पता नहीं, 18-18घण्टें की
जिहालत भरी मेहनत, पचासों
की हजूरी, प्रशासन से
परिवार तक, कब अगला पल
मौत का पैगाम हो, सब कुछ
कमाया 24 घण्टे काम और
मेहनत, पर परिवार-वार सब
छूट गया, दिल का सकु
स्याह साथ साथ है....
यह सब नहीं होता तो मैं तो
कम से कम आज उपर......
मोका भी दस्तूर भी मिल रहा
है, शरीर साथ दे रहा तो
क्या फिक्र का जिक्र क्यों!
जब होगा तो देखा जायेगा ।
जिन्दगी बोनस है या
मोजमस्ती बोगस है, फरेब के
चक्कर में ही नहीं, कुछ कह
नहीं पाये पर जाये किस और

पर अब मुझे चिन्ता नहीं मैरा
मन कहता है तू आगया
बुढापा सुधर ही जावेगा,
जीवन में पैसे से ज्यादा
जीवन का मोल है पर कब
तक और कैसे.......
जिस भी रास्ते में आदमी बढ
जाता है वापिस शायद आ
नहीं पाता, और आने में
शायद समय की खूब लग
जाता है, जो इस जिन्दगी में
नहीं।

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