बुढियॉं और मॉं JUGAL KISHORE SHARMA द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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बुढियॉं और मॉं

मां के स्वरूप की व्याख्या अनंत काल से चिरस्थाई जीवन्त के अनन्त सोपान है, है ही कमाल भी, सत्य, शाश्वत, चिरन्तर प्रखर वैचारिकी पर सोच पर बेलगाम विस्तार से परे रह कर भी! हर, समय, देश-काल परिस्थिति में विभिन्न भाषाओं की दीवारों में या परे भी अकथनिय सांझा विरासत से सांगोपांग, सानिध्य सत्कार और पोषण पर चिंतन किया गया है और लिखा भी गया है, संभवत यह कि है भावनाएं हैं, कभी कचौटति तो जो ह्दय की गहराईयों में लौ भी जगा दे, जो कागजों पर उकेरी कर जीने का प्रयास किया है। चित्रकार ने अपने ढंग से लाखो लाख स्थायी प्रयास पहुंच कर उसको बनाया है, और रिश्तो को भक्तों द्वारा पूजा गया है। पर मॉं तो मॉं ही है । महत्वपूर्ण यह है कि जिस किसी ने भी जिस ढंग से समझने की कोशिश की है उसका स्वरूप उसके विचारों में हमेशा परिलक्षित हुआ है, देखा गया है, कुछ ऐसा ही एक किस्सा संभवत है, आम है...............

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मैंने अपने ढंग से जिसको लिखने का प्रयास किया है, संभवतः आप सभी को यह पसंद आएगा भी और अपने सोच पर भी प्रभाव डालेगा बात कुछ ऐसी है और कुछ पुरानी भी

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बचपन में हम जब गलियों से निकलते हुए स्कूल की तरफ दौड़े-दौड़े जाते हैं और उसी ढंग से वापस आते हैं तो छोटी मोटी शरारत हैं, मस्ती से पैदल पर जाते समय स्कूल बिलुखुआ कदमताल से लय का दृष्य आम था। परन्तु स्कूल से छूटटी तो भागम भाग पत्थरो को एक दूसरे से निषाने से मार, तो कुत्तो की भी खैर नहीं, जहॉं मिला वही सीधा निषाना, लड़किया को सीधे सी जैसे सुबह स्कूल में पहुॅंच तो छुटटी दोपहर में वैसे ही अनुषासन से घर वापसी । परन्तु हमस बन के कुछ ऐसे ही पिताजी तो गुस्से लोट पोट तो मॉं के हाथ में सुई तागा, टूटे बटन अथवा फटे हाफ पेंट की सिलाई या तुरन्त धुलाई क्यों ड्रेस तो ले दे एक ही सुबह 8बजे जाना भी है । मॉं की निरन्तरता में कभी कमी नहीं आई, सर्दी गर्मी वर्षा में हमेषा ताजा खाना तो टिफन तो वापसी में अपने से हिसाब तो ताजा दुपहरी, यानी लाईफ में प्रायः क्यूं ऐसा ही होता है कि सबकुछ जानते तो है पर कहॉं नहीं जा सकता है तो लिखा तो बिलकुल भी नहीं । यह उसकी डयूटी में शुमार है अथवा हमारा बर्थ राईट पर  शैडयूल ने मॉं को बनाया होगा, या मॉं शैडयूल के अनुसार फॉलो कर रही है, क्या वह भी बिना र्फलु के । कुल मिलाकर जहन कभी जगा भी नहीं, सामान्य तौर पर मिला ही ।
स्कूल से घर करीब दो किलोमीटर से ज्यादा ही था करीब आधा घण्टा वापसी में तो हम यह समय ज्यादा लग ही जाता । पॉंच छ आगे पीछे के क्लास के साथी, सरकारी स्कूल के साथी कोई मजबूत कदकाठी का तो कोई दुबलपतल पर सभी मेरे घनिष्ठ दोस्त जो ठहरे, बीच रास्ते में एक गली छोड़ बुढी माई का बड़ा सा मकान उसमें घर के अन्दर दिवार से सटी बड़ी बैर सघन झाड़ी पर नजर की ही ली । दुपहर में की तो सब कुछ ऐसा ही एक मकान बीच में रहता था हमारी नजर उसके पैरों पर रहती थी जो कि साल में कम से कम चाहे कुछ, बैर हर हाल में जरूर, चाल, दिवार की आहट और कानों की ताकत की गेट की हल्की आहट पर तुरंत भागम भाग, लगी रहती थी बूढ़ी मां की कोशिश यह रहती थी कि घर के अंदर या दीवार के बाहर सड़क की तरफ जो भी बेर बिखरे ना किसी को देवे मैं खाने देवे कोशिश यही रहेगी गाली गलौज को डांट डपट करके गुस्से से दौड़ती हुई बच्चों को भगा दे हम बहन भाई और संगीसाथी चौथी पांचवी छठी क्लास तक इसी प्रकार से उसको परेशान करते रहे और मौका मिलते ही दोपहर में आधा घंटा 15 मिनट बैर के झाड़ पर नजर जरूर, यह भी लम्बा चला करीब तीन साल तक । माई चाहे जितने की 20 कदम चल कर आये, बीस से ज्यादा तो बैर चुनने ही है चाहे दिवार से इस और या उस और, जिदौजहद में चुगना और उसका स्वाद जरूर खाने! यह सब निराला और अद्भूत, तो है ही, चाहे किसी भी स्तर तक जाना पड़े धीरे से पत्थर मारते कुछ झाड़ी से अदर की और गिरते तो कुछ गली में पर शोर तो जरूर ही करेगें । सघन झाड़ी भी कई दफे पत्थर अपने अन्दर कैच कर ही लेती है, रोकलेती भी है, इसलिए अगली बार पत्थर चले तो शायद वापिस अपने पर हा ही जावे ।़ घर के अंदर गिरते कुछ हमारी तरफ आती, गिरते उठाते और बस्ते जैब जल्दि जल्दी उठा पटक में जिसे कुछ मिले, इसमें कच्चे-पक्के जैसा भी मिला मिट्टी से सने हुए हाथों से कपड़े में डालते, प्रायः इस धिगा मंस्ती झमेले में ड्रेस की बुरी गत, गन्दी तो होगी, पर उधड़ना,फटना बटन टूटना आम बात थी,
पर ले देकर वही एक ड्रेस और उसमें जेबों में भर के उभार, बस जाते भागते हुए कई बार जुते उखड़ टूट जाती है कई बार जूते निकल जाते बड़ी जीत और शहद स्वाद, चलता रहा कि काफी समय तक हमने भी कोशिश की कि घरस्वामीनी मां से सुलह हो जाए चालाकी भी बनाई लेकिन मां तो मां है समझती थी अब हमारे यह समझ में आया कि वह हमें क्यों ऐसा करने से रोकती थी पत्थर नहीं मरने देती थी । अकेली तिनकी सी काया पर पहुच की देर सवेर सफाई यह सब यक्ष प्रष्न है, जिसे अब पिता के दायित्व पर बच्चों के शैतान निषान पर क्रोध स्वाभाविक है । बेतरतीब ड्रांयगरूम में उकेरीकलाकृतियॉं शायद दो तीन बरस का बच्चा ही बता सकता है कि इसके मायने क्या है और मेरे लिए इन शैतानिया क्यूंकर परेषानियों का सबब भी । पर आज और कल में भी फर्क है, क्या खूब फर्क है, शायद मॉं ने मुझे इस लायक बनाने की कसम जो खा रखी थी कि मेरा ही बेटा डाक्टर बनेगा, मेरा नाम रोषन तो करेगा ही, जिन्दगी भी संवारेगा ।
मॉं ने हर रोज कभी जुते ठीक करवाये तो कभी कपड़ें हाथ में सुई धागा सिलाई पास उनके बना ही रहा । हर वह वह भी शानदार करीने से, खाना ड्रेस बस्ता किताबे कापियॉं सब कुछ कारीगरी क्या गजब, भी मेरे लिए पर वह सब याद अब किस काम की, जरा सा कटा फटा नहीं कि नया तैयार लाने के लिए दस हाथ, बिना जरूरत की वस्तु लाने के लिए, पर शायद बच्चे के लिए हनुमान को मॉ सीता की दी हुई माला जो केवल पत्थरों से तोड़ तोड़ केवल राम का नाम ढूढें । पर उसकाल के सवाल पर, उस समय आखों में उमंग और संरबस जीवन की जीवटता की टेर या कही दिखावे का रत्ती पर की सरोबार नहीं संभवतः सभी को चुनने और उपलब्धता संषाधनो ंकी अति सीमितता से कुछ और तक जरा भी नहीं। वह बेर भी क्या कमाल है बेर की झाड़ियां जब पैरों से लग जाती तो कुछ ऊंची हो जाती है जो फलों से लगते हैं वह झुक जाते हैं जमीन की तरफ आ जाते हैं लेकिन ऐसा नहीं है पैरों में तो उनका अलग दस्तूर है कांटों से सनी और पत्थर भी फेंके तो कई बार उसी के अंदर ही अटक जाते थे तो दोपरह प्रायः चिड़िया कमेड़ी उडती तो कुछ आधुनिक संगीत का श्रवण कर ही देती । कभीकभार राहजन या पड़ौसी भी बकता रहता था बेचारा कोई इधर से निकलेगा तो उसके सिर्फ ना गिर जाए कई बार यह भी रहता था कि यार अपने एक पत्थर फेंक रखा है वह पत्थर, पहले से ही पेड़ों की डालियों में फंसा हुआ है पत्तों की ओट में न जाने कब अपने ऊपर गिर जाए और अभी कांटे भी हाथों में पैरों में अटके ही रहते थे परंतु बेर बड़े स्वादिष्ट और जो इस प्रकार की दोपहर लड़ाई झगड़े और शरारत उसमें जौर जबरदस्ती से मिलते हैं । घर पहुचने तक वह सब खत्म - वह दुनिया का सबसे बढ़िया हिस्सा है, जो अपने को तथाकथित मेहनत से मिला है । ऐसा मानते हैं ऐसी समझ भी थी या नहीं या फकत मन का अटकाव तो भटकाव। पर कभी भी लगाव नहीं रहा । मॉ ने कभी टोका नहीं, पर बुढिया मॉं ने भी कहॉं पिछा छोड़ा एक दिन उलाहना देने घर आ ही गई मै चुपचार चारपाई पर अति चतुर की भॉति पढाई में मगन, पर गन रूपी कान मॉं के जवाब के इन्तजार में । खैर अन्त में मॉ ने उसे राजी कर लिया कि चार छ अल्हड़ बच्चों दूर रखने एंव मुझे समझाने एंव निरन्तर वॉंच करने का भी भरोसा दिलया । पर मुझे यही जानपड़ा की मॉं ने अन्तततोगत्वा बुढियॉं को मेरे लिए मना लिया है । शायद यह मॉं का स्वभाव का भाग य या जरा सा बुढ़िया में मॉ का ममत्व । खैर मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि उसने हमारे घर का पता कर लिया हम चार छ जो बच्चे हैं बच्चे हैं यह सबसे कौन सबमें ज्यादा बदमाश है । यह राग हमेषा लगा रहता कि उसने पता करते करते करते एक डेढ़ किलोमीटर हमारा दूर जाना तो जाना कैसे । जबकि हम भी शेर घुम घूमा कर घर कर था। तो उसे मेरी मां से उनका परिचय हो गया और प्रायः 10-15 दिन में देखा तो वह मेरी मां के पास गुड़िया बैठी मिलती थी और शिकायत कर रही थी मां तो मां है मां ने कहा भाई अब बच्चे हैं किस-किस को रोकेंगे इसको रोक लेंगे तो इसके साथ में हो रहे हैं । बात घूम फिर की गई है आप भी तवज्जो मत दो और इनको भी मेटर ही क्यों परंतु उसका यह कहना था कि मैं इन जो झाड़ियों पर पत्थर मारते हैं दिन भर उसके कांटे और पत्ते पूरे घर में बिखर जाते हैं तो मैं अकेली रहती हूं मुझे बड़े परेशानी होती है तो मैं इनको ही है ना आपके पास बेर लाकर दे दूंगी पर ये सब हुड़दंग कम से कम करे । जल्दी जल्दी पत्थरों को फेंकना कम समय पर सब इकटठा करना यह संभव नहीं । पर उस लड़पन बाल सुलभ कहॉं को भाये, पर बुढिया दर पर पन्द्रह बीस दिन में मॉं को कटौरा भर बैर जरूर पहुचाती, शायद मॉं से दोस्ती जो हो गई । पत्थर नहीं मारे मेरे को सफाई करने में बड़ी दिक्कत होती है । बालक मन चंचल कहना किसका ने माने जीवन बड़ा अमीर अन्य के मन की कभी ना सुने । वैसे मेरा धुन आल्हा मस्ती के बस । दिल की जाने फुल तेरा समय निकल।
समय का चक्र पर बड़ा विचित्र सहज जीवन में मॉं की लगन ही काम आई पढ़ाई में अनवरत ध्यान, और राजा बेटा की फिक्र उसे एमबीबीएस करवा ही दि ।
पता बता गया मैं भी पढ़ लिख कर उसी शहर में उसी माई के घर के पास सरकारी अस्पताल में एक अदना सा डॉक्टर लग गया एक दिन लकड़ी हाथ में था में बुढ़िया वहां आई तबीयत खराब थी । तो मैंने पहचान लिया उनको मैंने कहा माता जी स्वास्थ्य कैसा है, बोली उम्र का तकाजा है आस-पड़ोस के लोगों पर निर्भर है, अकेली रहती हूं, बच्चे कभी कबार आते हैं चले जाते हैं, यह जो बड़ा सा मकान उसमें जीवन की यादे है उसमें कई कहानियॉं है । शायद मन का मनन सहज ही चित्रण कर गया है 15 साल कोई ज्यादा समय भी नहीं । जब चीजें मन को झकझोरती है तो एचडी टीवी की भॉंति सटिक दृष्य आखों को आ ही जाते है । जमीन जायदाद है यह दुनिया का सबसे बड़ा कष्ट का कारण है मैंने उनको सबके सामने मरीजों की हसीं ठिठोली का मन पर पीछे जो मरीजों की जो लाइन लगी हुई थी किसका दुखड़ा कौन सुने, माजी में लंच के बाद आपको देखता जाउगा, आप न आया करे बस सन्देष करवा देवे । मैं अब सबके सामने कहा कि मैं बचपन में इनके घर में खूब पाथर चलाये, बैर तोड़ता था यह मेरे को मारने दौड़ी थी, पीछे भागती थी मेरी मदर को भी शिकायत की, कई बार मीठे बेर भी घर पर पहुंचाएॅं है। लेकिन हम अपनी आदतों से कभी बाहर नहीं आए तो बच्चों की जो हरकतें थी उसमें हमने हिमालय से ही बदमाशों की है । अब अब जीवन के उस मोड़ को पीछे देखते हैं तो बड़ा हास्यास्पद लगता है कि देखो वह क्या जमाना था, अच्छा था, बुरा था, ठीक साहब माता जी को कह दिया कि कभी भी आपके तकलीफ हो बता देना और कोई भी स्वास्थ्य संबंधी कभी भी तबीयत नासाज हो मुझे खबर करना मैं आपके पास आते जाते देख लूंगा । परन्तु मैरा अब दस पन्द्रह दिवस का रूटिन हो गया कि जाना जरूर है उपकार जो है ।
उस समय मॉं ने एक यू ही कह दिया बड़े बुढों को सताना नहीं चाहिए, ना ही दिल दुखाना चाहिए । इनका मन रोता है, मन ही मन गाली भी । खैर आधा अधूरा समझ में आया, सीख की रीत धीरे धीरे जीम, जीवन की गंभीरता की पटरी पर रैल जब चली तो सब बुरा भला भाव अभाव, कार्य व्यवहार आपसी सौहार्द की मायने निभाने पर मन में संतोष जम ही गया । शायद कभी मॉं ने कमी नहीं रखी, संस्कारों की अभाव में उमंगता, खूब सिखाया वह कभी किताबों में दिखा तक नहीं ।
जब भी मौका मिलता उस दीन पत्नी बच्चें व मॉं को साथ में बुढियॉं मॉं को सबको उनको लेकर घर पर जाता ही, अकेला भी गया माताजी को देखा खटिया में लेटी हुई थी दो चार जने आस पड़ोस में बैठे हैं उनको लगा क्या डॉक्टर साहब यहां कैसे आ गए उन्होंने भी मेरे लिए कुछ बैठने की व्यवस्था कि मैंने देखा कि करीब वर्ष की बुढ़िया अब अधिक भी नहीं रहेगी कुछ चाय पानी की व्यवस्था की खूब उनको बातें पुरानी बताई इस प्रकार से पत्थर मारते थे आज भी पत्थर झाड़ियों में फंसे होंगे माता जी की भी आंखों में चमक आ गई दवाई दी और कुछ उनको भी आस पड़ोस के लोगों को समझाया कभी भी मुझे बता देना स्वास्थ्य संबंधी मेरा इनके ऊपर बहुत बड़ा उपकार है अब जितना मैंने इनको परेशान किया है अब यह मेरे को परेशान करेगी हर मुकाम अब यह मुझे उस समय यह बताती थी अब मुझे यहीं बुला रही है इनका यह कार है और अब यह जो बूढा झाड़ है न जाने कभी भी गिर जाए लेकिन मुझे तो हमेशा आंखें इस पर दवा और उपचार की पूरी व्यवस्था करनी है चल तारा सपरिवार साल बाद में मेरा पीजी में एडमिशन हो गया और मुझे अध्ययन के लिए अस्पताल छोड़ना पड़ा दूसरा अनजान सहर चौबिसों घण्टो पढाई और अस्पताल में वार्ड में डयूटी दिनचर्या एक मषीन-मैकेनाईज्ड जीवन ।

                   शान्त भाव से आखे टापिक टिकाने की जी भर कोशिस, पर मन पर किसका जौर, चाय पीने का मन पर कप उठाना ही दूभर केवल मोबाइल पर मैसेज घर से एक खबर मैसेज बन आई बुढ़िया नहीं रही सौ बरस पुरे हुये, आखों में केवल वही चित्र वही बालपन के पत्थर पर खुब मजबूत हाथ, ताकत क्या मजाल उठा कर फैंक दे, या किताब को बन्द करने की हिम्मत नहीं, चाय आज सबमें दुष्मन जान पड़ी, मोबाइल वहीं थम गया, शायद स्क्रिन आफ ही हो गया । अफसोस मैनेज नहीं हुआ मैसेज हट गया, मन पे छाप गया और निरिह शान्त को खोजते खोजते मन भर गया, चष्में से देखते-देखते आंखों में आंसू आ गए ......................