कोट - २२ महेश रौतेला द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कोट - २२

कोट-२२
खेल-कूद पर बातों का अपना एक स्वरूप और आनंद होता है।
खेलकूद/स्पोर्ट्स के बारे में जब बात करते हैं तो बड़े खेलों का चित्र मन में आता है जैसे हाकी,फुटबॉल, क्रिकेट, वालीबॉल, बैडमिंटन ,टेनिस आदि। लेकिन हम बहुत छोटे खेल बचपन में खेलते हैं। खेल तो खेल ही होते हैं जो जीवन में उल्लास और आनंद भरें। बचपन में खेल "लुकाछिपी" से आरंभ होता है या घुघुती-बासुति से या अन्य से। अंटियों का खेल,दाणि,अड्डू भी होता था। बाघ-बकरी।बाघ को घेरा जा सकता था,बकरी को मरना होता था। "चोर पकड़" खेला जाता था। पिरुल( चीड़ की नुकीली सूखी पत्तिया) पर "घुसघुसी"। बर्फ पर घुसघुसी। पहाड़ों में घराट तब चलते थे। उसी की नकल पर घराट खेलते थे। फिर स्कूल में कबड्डी और ग्वाला जाने पर गुल्ली-डंडा। कभी-कभी गुल्ली-डंडे में इतना व्यस्त हो जाते थे कि गायें फसल चरने खेतों में चले जाती थीं। और घर में डाट पड़ती थी। थोड़े बड़े हुये तो गिर( हाकी जैसा खेल) खेलते थे। जो जाड़ों की शाम को खेतों में खेला जाता था। आम के पेड़ों के नीचे घंटों खेलते थे। तैरना नदी में सीखते थे।पहले किनारे में फिर गहराई में।डूबने का भय रहता था,गहरे नीले पानी में जाकर। कक्षा ८-१० से फुटबॉल, वालीबॉल से परिचय होता था। कक्षा ११-१२ में एक दिन क्रिकेट का बल्ला भी थामा था। बी.एससी., एम.एसी. में कोई खेल नहीं खेला। क्रिकेट की कामेंट्री सुनते थे और हाकी की भी। जसदेव सिंह हाकी कामेंट्री के अभूतपूर्व कमेंटेटर थे। कहा जाता है उनकी कमेंट्री सुनकर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उनसे कहा था," इतना अद्भुत और तेज कैसे बोल लेते हो!" नैनीताल के खड़ा बाजर में खड़े-खड़े आधा-एक घंटा कमेंट्री सुना करते थे।दुकानदार भी अपनी मस्त रौ में दिखता था। रेडियो कमेंट्री का उस समय आनंद अनिर्वचनीय हुआ करता था। धनबाद में क्रिकेट विश्व कप, कपिल देव की कप्तानी में जीतना और मास्को ओलंपिक में हाकी का स्वर्ण पदक जीतना, ट्रांजिस्टर पर सुनना सम्पूर्ण आनंद का स्रोत था।
खेल, खेल होता है,आनंद का स्रोत। स्पर्धा भी है। व्यक्तित्व भी बनाते हैं। लेकिन हाल में संयुक्त राज्य अमेरिका से एक रिपोर्ट आयी है और हम भी देख रहे हैं, बच्चों के जीवन से स्वभाविक खेलों का अभाव होता जा रहा है जो चिन्ताजनक है।
बड़े होकर भी बचपन के खेल कौतुक बने रहते हैं।
जोरहट में " हिमगिरि" एक संस्था थी। जो सांस्कृतिक कार्यक्रम, विदाई समारोह और पिकनिक आयोजित करती थी। एकबार पिकनिक के लिए ब्रह्यपुत्र नदी के पार एक सुन्दर स्थल पर गये थे। नदी को नाव से पार कर, कुछ दूर पैदल जाते थे।वहाँ अन्ताक्षरी, किक्रेट,रस्साकसी आदि बचपन के खेल, खेले जाते थे। हर कोई बढ़चढ़ कर इन खेलों में भाग लेता था।हर प्रतियोगिता में, सबमें बचपन नजर आने लगता था।जीत का जोश पचास-पचपन की उम्र में भी देखते ही बनता था। खेल के बाद विदाई आती है।
विदाई में लोकप्रिय लोकगीत-"बैड़ु पाको...।" ( बैड़ु (फल) पकता है---) गाया जाता है और मैंने गाया था-
" पारा का भिड़ा को छै घसियारी, मालु वे तु मालु न काटा....।( दूसरी ओर ढलान(पहाड़ के) पर घसियारी तू कौन है, ओ मालु, तु न काट( घास) "।

* महेश रौतेला