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खोखले रिश्ते

आराध्या अनमनी सी सोफे पर बैठी विगत जगत में विचरण कर रही थी, सामने टेबल पर रखी चाय भाप उड़ाकर कोल्ड टी में बदल चुकी थी।अभी 14 दिन पहले तो सब ठीक ही प्रतीत हो रहा था या शायद सामान्य रहने का भ्रम मात्र था।

आराध्या और उससे बड़ी बहन,दो संतान थीं अपने माता-पिता की।सरकारी नौकरी में क्लर्क के पद पर कार्यरत पिता ने रिटायरमेंट से पूर्व एक तीन कमरों का छोटा सा मकान बनवा लिया था।बड़ी बहन के विवाह के समय वह बीएड कर रही थी।सौभाग्य से बीएड करते ही सरकारी स्कूल में वह अध्यापिका हो गई।बहन की सास ने प्रयास करके अपने छोटे बेटे से आराध्या के विवाह के लिए उसके पिता को सहमत कर लिया,हालांकि वह दीदी के देवर से विवाह हेतु इच्छुक नहीं थी,क्योंकि देवर बेरोजगार थे,किंतु पिता के समझाने पर तैयार हो गई।

पिता के रिटायरमेंट के पश्चात आराध्या ने वहीं स्थानांतरण करवा लिया, जिससे वह उनकी देखभाल कर सके।बहन अपने परिवार के साथ दूसरे शहर में व्यवस्थित थी,जीजाजी कॉलेज में व्याख्याता के पद पर कार्यरत थे, दीदी भी प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका थी।बाद में आराध्या के पति एक प्राइवेट फर्म में दूसरे शहर में कार्य करने लगे।अवकाश मिलने पर कभी वे चले आते,कभी वह छुट्टियों में चली जाती।समय के साथ उसके परिवार में एक बेटी एवं एक बेटा सम्मिलित हो गए।उम्र बढ़ने के साथ माता-पिता की देखभाल एवं बच्चों की जिम्मेदारी के कारण अब पति ही आते थे।बीच-बीच में दीदी भी कभी सपरिवार,कभी अकेले मिलने आती रही।आराध्या को कभी भी इस बात का अफसोस नहीं रहा कि वह ही अकेले माता-पिता की जिम्मेदारी क्यों उठाती रहे।पिता का पेंशन उनके एकाउंट में जमा होता रहा,कभी-कभार वे स्वेच्छा से कुछ पैसा बच्चों पर खर्च कर देते थे।समय अपनी गति से गुजरता रहा।पिछले साल माँ का देहांत हो गया।

दो माह पूर्व घर में थोड़ी मरम्मत करवानी थी।उसके लिए पिता के अकाउंट से कुछ रुपये इस्तेमाल किया उसने।ज्ञात होने पर अविलंब दीदी ने उससे कैफ़ियत मांगा, तब उसने प्रत्युत्तर दिया कि मकान पिता का है, उनके खर्च तो मैं ही उठा रही हूँ तो अगर मरम्मत में उनके थोड़े पैसे लगा दिए तो क्या गलत किया।खैर, बात आई-गई हो गई।लेकिन वह कहाँ जानती थी कि धन-संपत्ति आजकल रिश्तों पर भारी पड़ जाती है।बीस दिन पहले दीदी आई,उसने कहा कि कोरोना के कारण उसका स्कूल बंद है,मैं यहाँ पिताजी की देखभाल कर लेती हूँ, तुम अपने पति के पास रह आओ।आराध्या अपने दोनों बच्चों के साथ सहर्ष पति के पास चली गई।वापस आने पर दीदी ने पिताजी को अपने साथ ले जाने की इच्छा व्यक्त की, उसे कुछ भी असहज नहीं लगा।उसने सोचा कि पिताजी का मन बहल जाएगा।

अभी दो दिन पहले उसके पड़ोसी ने बताया कि दीदी पिताजी को लेकर कचहरी गई थी, वे वहीं वकील थे।जब आराध्या ने पता करवाया तो ज्ञात हुआ कि दीदी ने मकान की रजिस्ट्री अपने नाम करवा लिया है।फिर उसने पिताजी का एकाउंट चेक किया तो ज्ञात हुआ कि अधिकांश पैसा भी दीदी ने ट्रांसफर करवा लिया है औऱ नॉमनी भी स्वयं को बनवा लिया है।

अभी तक वह दुनिया में ऐसे किस्सों को सुनती आई थी लेकिन उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसकी बहन भी ऐसा कर सकती है। दुःख तो उस धोखे का है जो दीदी ने उसके साथ किया है।सम्पत्ति बड़ी बात नहीं थी,अगर वह कह देती तो वह बिना बहस के अपना हिस्सा उसे दे देती।जबकि दीदी की आर्थिक स्थिति उससे कहीं बेहतर थी।गैर विश्वासघात करते हैं तो तकलीफ़ कम होती है लेकिन जब अपने बेईमानी करते हैं तो दिल टुकड़े- टुकड़े हो जाता है।हालांकि वह चाहे तो कोर्ट में केस कर सकती है लेकिन उसका मन इसकी इजाजत नहीं देता।उसे ईश्वर पर पूर्ण विश्वास है कि माता-पिता के प्रति उसके निःस्वार्थ सेवा एवं कर्तव्यपरायणता का सुफल एवं आशीष उसे अवश्य प्राप्त होगा।जीवन आए दिन एक अनुभव प्रदान करता है।एक गहरी सांस लेकर वह अपने नित्यप्रति के कार्यों को निबटाने के लिए उठ खड़ी हुई।

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