आँख की किरकिरी - 33 Rabindranath Tagore द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

श्रेणी
शेयर करे

आँख की किरकिरी - 33

(33)

बिहारी को देख कर आशा को थोड़ा भरोसा हुआ। बोली - तुम्हारे जाने के बाद से माँ और भी अकुला उठी हैं, भाई साहब। पहले दिन जब तुम न दिखाई पड़े तब उन्होंने पूछा - बिहारी कहाँ गया? मैंने कहा - वे एक जरूरी काम से बाहर गए हैं। बृहस्पति तक लौट आएँगे। उसके बाद से वे रह-रह कर चौंक-चौंक पड़ती हैं। मुँह से कुछ नहीं कहतीं लेकिन अंदर-ही-अंदर मानो किसी की राह देख रही हैं। कल तुम्हारा तार मिला। मैंने उन्हें बताया, तुम आ रहे हो। उन्होंने आज तुम्हारे लिए खास तौर से खाने का इंतजाम करवाने को कहा है। तुम्हें जो-जो चीजें अच्छी लगती हैं, सब मँगवाई हैं, सामने बरामदे पर रसोई का प्रबंध कराया है, अंदर से वह खुद बनाती रहेंगी। डॉक्टर ने लाख मना किया, एक न सुनी। अभी-अभी जरा देर पहले मुझे बुला कर कहा, बहू, रसोई तुम अपने हाथों बनाना, आज बिहारी को मैं अपने सामने बैठा कर खि लाऊँगी।

 सुनते ही बिहारी की आँखें छलछला उठीं। पूछा - माँ हैं कैसी?

 आशा ने कहा - तुम खुद चल कर देखो, मुझे तो लगता है, बीमारी और बढ़ गई है।

 बिहारी अंदर गया। महेंद्र खड़ा अचरज में पड़ गया। आशा ने मजे में गृहस्थी सम्हाल ली है - कितनी आसानी से महेंद्र को अंदर जाने से रोक दिया। न संकोच किया, न रूठी।

 महेंद्र आज कितना सकुचा गया है! वह अपराधी है - चुपचाप खड़ा रहा, बाहर। माँ के कमरे में न घुस सका।

 फिर भी यह अजीब बात - बिहारी से वह कैसे बे-खटके बोली। सलाह-परामर्श सब उसी से। वही आज इस घर का सबसे बड़ा शुभचिंतक है, एकमात्र रक्षक है। उसको कहीं रोक नहीं, उसी के निर्देश पर सब-कुछ चलता है। कुछ दिनों के लिए महेंद्र जो स्थान छोड़ कर चला गया था, लौट कर देखा, वह स्थान अब ठीक वैसा ही नहीं है।

 बिहारी के अंदर जाते ही राजलक्ष्मी ने पूछा - तू आ गया, बेटे?

 बिहारी बोला - हाँ माँ, लौट आया।

 राजलक्ष्मी ने पूछा - काम हो गया तेरा?

 खुश हो कर बिहारी बोला - हाँ माँ, हो गया। अब मुझे कोई चिंता नहीं रही।

 और उसने एक बार बाहर की तरफ देखा।

 राजलक्ष्मी- बहू आज तेरे लिए खुद खाना पकाए गी- मैं यहाँ से उसे बताती जाऊँगी। डॉक्टर ने मना किया है - मगर अब काहे की मनाही, बेटे! मैं क्या इन आँखों से एक बार तुम लोगों का खाना भी न देख पाऊँगी!

 बिहारी ने कहा - डॉक्टर के मना करने की बात तो समझ में नहीं आती - तुम न बताओगी तो चलेगा कैसे? छुटपन से तुम्हारे हाथ की ही रसोई हमें भाई है - महेंद्र भैया का जी तो पश्चिम की दाल-रोटी से ऊब गया है - तुम्हारे हाथ की बनाई मछली मिलेगी, तो वह जी जाएगा। आज हम दोनों भाई जैसे बचपन में करते थे, होड़ लगा कर खाएँगे। तुम्हारी बहू जुटा सके, तब जानो।

 राजलक्ष्मी समझ तो गई थीं कि बिहारी के साथ महेंद्र आया है, फिर भी उनकी धड़कन बढ़ गई।

 बिहारी ने कहा - पछाँह जा कर महेंद्र की सेहत बहुत-कुछ सुधर गई है। आज सफर से आया है, इसलिए थका-माँदा लगता है। नहाने से ठीक हो जाएगा।

 राजलक्ष्मी ने फिर भी महेंद्र के बारे में कुछ न कहा। इस पर बिहारी ने कहा - माँ, महेंद्र बाहर ही खड़ा है। जब तक तुम नहीं बुलाओगी वह नहीं आएगा।

 राजलक्ष्मी कुछ बोलीं नहीं, सिर्फ दरवाजे की तरफ नजर उठाई। उनका उधर देखना था कि बिहारी ने कहा -महेंद्र भैया, आ जाओ!

 महेंद्र धीरे-धीरे अंदर आया। कलेजे की धड़कन कहीं एकाएक थम जाए, इस डर से राजलक्ष्मी तुरंत महेंद्र की ओर न देख सकीं। आँखें अधमुँदी रहीं। बिस्तर की तरफ ताक कर महेंद्र चौंक उठा। उसे मानो किसी ने पीटा हो।

 माँ के पैरों के पास सिर रख कर उनका पैर पकड़े पड़ा रहा। कलेजे की धड़कन से राजलक्ष्मी का सर्वांग काँपता रहा। कुछ देर बाद अन्न्पूर्णा ने धीमे से कहा - दीदी, तुम महेंद्र को कहो कि वह उठे, नहीं तो वह यहीं बैठा रहेगा।

 बड़ी मुश्किल से उन्होंने कहा - महेंद्र, उठ! बहुत दिनों के बाद महेंद्र का जो नाम लिया तो उनकी आँखों से आँसू की धारा फूट पड़ी। आँसू बहने से मन की पीड़ा कुछ हल्की हुई। महेंद्र उठा, जमीन पर घुटना गाड़, खाट की पाटी पर छाती रख कर माँ के पास बैठा। राजलक्ष्मी ने बड़ी तसल्ली से करवट बदली। दोनों हाथों से अपनी ओर खींच कर उन्होंने महेंद्र का सिर सूँघा, और ललाट को चूम लिया।

 महेंद्र ने रुँधे कंठ से कहा - मैंने तुम्हें बड़ी तकलीफ पहुँचाई है, माँ मुझे माफ करो।

 कलेजा ठंडा हुआ तो राजलक्ष्मी ने कहा - ऐसा मत कह बेटे, तुझे माफ किए बिना मैं जी सकती हूँ भला! बहू कहाँ गई? बहू!

 आशा पास ही दूसरे कमरे में पथ्य तैयार कर रही थी। अन्नपूर्णा उसे बुला लाईं।

 राजलक्ष्मी ने महेंद्र को जमीन पर से उठ कर बिस्तर पर बैठने का इशारा किया। महेंद्र बैठा, तो उसके बगल की जगह दिखाती हुई राजलक्ष्मी ने कहा -तुम यहाँ बैठो, बहू! आज तुम दोनों को मैं पास-पास बिठा कर देख लूँ, तभी मेरी तकलीफ मिटेगी। बहू, आज मुझसे शर्म न करो! महेंद्र के लिए जो मलाल है, उसे भी भुला दो। उसके पास बैठो।

 इस पर आशा घूँघट निकाले धड़कते दिल से लजाती हुई आ कर महेंद्र के पास बैठ गई। राजलक्ष्मी ने महेंद्र का दाहिना हाथ लिया और आशा के दाहिने हाथ से मिला कर दबाया। बोली - अपनी इस बिटिया को मैं तेरे हाथों सौंप जाती हूँ, महेंद्र - इसका खयाल रखना, ऐसी लक्ष्मी तुझे और कहीं नहीं मिलेगी। मँझली आओ, दोनों को आशीर्वाद दो, तुम्हारे पुण्य से ही दोनों का मंगल हो।

 अन्नपूर्णा उनके सामने गईं। दोनों ने आँसू-भरे नेत्रों से उनके चरणों की धुल ली। उन्होंने दोनों के माथे को चूमा - ईश्वर तुम्हारा मंगल करे!

 राजलक्ष्मी - बिहारी, आगे आओ बेटे, महेंद्र को तुम माफी दो।

 बिहारी ज्यों ही महेंद्र के सामने जा कर खड़ा हुआ, उसने उसे बाँहों में लपेट कर कस कर छाती से लगा लिया।

 राजलक्ष्मी ने कहा - मैं आशीर्वाद देती हूँ महेंद्र, बिहारी छुटपन से तेरा जैसा मित्र था, सदा वैसा ही रहे।

 इसके बाद राजलक्ष्मी थकावट के मारे और कुछ न कह सकीं। चुप हो गईं। बिहारी कोई उत्तेजक दवा उनके होंठों तक ले गया। हाथ हटा कर राजलक्ष्मी ने कहा - अब दवा नहीं बेटे, अब मैं भगवान को याद करूँ - वही मुझे दुनिया की सारी जलन की दवा देंगे। महेंद्र, तुम लोग थोड़ा आराम कर लो बेटे! बहू, रसोई चढ़ा दो!

 शाम को महेंद्र और बिहारी राजलक्ष्मी की खाट के पास नीचे खाने बैठे। परोसने का जिम्मा राजलक्ष्मी ने आशा को दे रखा था। वह परोसने लगी।

 महेंद्र का कौर नहीं उठ रहा था, कलेजे में आँसू उमड़े आ रहे थे। राजलक्ष्मी बोलीं - तू ठीक से खा क्यों नहीं रहा है, महेंद्र? खा, मैं आँखें भर कर देखूँ।

 बिहारी ने कहा - तुम तो जानती ही हो माँ, महेंद्र भैया का सदा का यही हाल है। वह खा नहीं सका। भाभी, जरा यह घंटो थोड़ा-सा और दो मुझे, बेहतरीन बना है।

 खुश हो कर राजलक्ष्मी जरा हँसी... मुझे मालूम है, बिहारी को यह बेहद पसंद है। बहू, भला उतने से क्या होगा, और दो।

 बिहारी बोला - तुम्हारी यह बहू अहले दर्जे की कंजूस है। इसके हाथ से कुछ निकलता ही नहीं।

 राजलक्ष्मी बोलीं - सुन लो बहू, तुम्हारा ही नमक खा कर बिहारी तुम्हारी ही निंदा करता है।

 आशा बिहारी की पत्तल में सब्जी डाल गई।

 बिहारी बोल उठा - हाय राम, मुझे तो सब्जी दे कर ही धता बतानी चाहती है, अच्छी-अच्छी चीजें सब महेंद्र भैया के हिस्से।

 आशा फुस-फुसा कर कह गई - कुछ भी करो, निंदक की जबान बंद नहीं होने की।

 बिहारी बोला - मिठाई दे कर देखो, बंद होती है या नहीं।

 दोनों दोस्त खा चुके तो राजलक्ष्मी को बड़ी तृप्ति मिली। बोलीं - बहू, अब तुम जा कर खा लो।

 आशा उनके हुक्म पर खाने चली गई। उन्होंने महेंद्र से कहा - तू थोड़ा सो ले, महेंद्र!

 महेंद्र बोला - सो जाऊँ अभी से!

 महेंद्र ने सोच रखा था, रात को वह माँ की सेवा में रहेगा। मगर राजलक्ष्मी ने धीमे से कहा - बहू, देख जाओ कि महेंद्र का बिस्तर ठीक भी है या नहीं। वह अकेला है।

 आशा लाज के मारे मरी-सी किसी तरह कमरे से बाहर चली गई। वहाँ केवल बिहारी और अन्न्पूर्णा रह गए।

 तब राजलक्ष्मी ने कहा - तुमसे एक बात पूछनी है, बिहारी। विनोदिनी का क्या हुआ, पता है। कहाँ है वह?

 बिहारी ने कहा - वह कलकत्ता में है।

 राजलक्ष्मी ने आँखों की मौन दृष्टि से ही प्रश्न किया। बिहारी समझ गया।

 बोला - उसकी तुम अब फिक्र ही न करो, माँ!

 राजलक्ष्मी बोलीं- उसने मुझे बहुत दुख दिया है बिहारी, फिर भी मैं अंदर से उसे प्यार करती हूँ।

 बिहारी बोला - वह भी मन-ही-मन तुम्हें प्यार करती है, माँ!

 राजलक्ष्मी - मुझे भी यही लगता है, बिहारी। दोष-गुण सब में होता है, लेकिन वह मुझे प्यार करती थी। ढोंग करके कोई उस तरह की सेवा नहीं कर सकती।

 बिहारी बोला - तुम्हारी सेवा करने के लिए वह तड़प रही है।

 राजलक्ष्मी ने लंबी साँस ली। कहा - महेंद्र, आशा, सब तो सोने चले गए। रात में उसे एक बार ले आओ तो क्या हर्ज है?

 बिहारी ने कहा - वह तो इसी घर के बाहर वाले कमरे में छिपी बैठी है, माँ। उसने प्रतिज्ञा की है कि जब तक तुम उसे बुला कर माफ नहीं कर दोगी, वह पानी भी न पिएगी।

 राजलक्ष्मी परेशान हो उठीं। बोलीं- सारे दिन से भूखी है? अरे तो जा उसे बुला लो!

 ज्यों ही विनोदिनी कमरे में आई, राजलक्ष्मी बोल उठीं - राम-राम, तुमने यह किया क्या बहू, दिन-भर बे-खाए-पिए बैठी हो। जाओ, पहले खा लो, फिर बातचीत होगी।

 विनोदिनी ने उनके चरणों की धूल ली। बोली - पहले इस पापिन को तुम माफ करो बुआ, तभी मैं खाऊँगी।

 राजलक्ष्मी - माफ कर दिया बिटिया, माफ कर दिया - अब मुझे किसी से भी कोई मलाल नहीं।

 विनोदिनी का दाहिना हाथ पकड़ कर उन्होंने कहा -बहू, तुमसे जीवन में किसी का बुरा न हो और तुम भी सुखी रहो!

 विनोदिनी - तुम्हारा आशीर्वाद झूठा न होगा बुआ, मैं तुम्हारे पाँव छू कर कहती हूँ, मुझसे इस घर का बुरा न होगा।

 झुक कर अन्नपूर्णा को प्रणाम करके विनोदिनी खाने गई। लौटने पर राजलक्ष्मी ने पूछा - तो अब तुम चलीं?

 विनोदिनी - मैं तुम्हारी सेवा करूँगी, बुआ। ईश्वर साक्षी है, मुझसे किसी बुराई की शंका न करो।

 राजलक्ष्मी ने बिहारी की तरफ देखा। बिहारी ने कुछ सोचा। फिर कहा - भाभी रहें, कोई हर्ज नहीं।

 रात में बिहारी, अन्नपूर्णा और विनोदिनी - तीनों ने मिल कर राजलक्ष्मी की सेवा की।

 इधर रात को आशा राजलक्ष्मी के पास नहीं आई, इस शर्म से वह तड़के ही उठी। महेंद्र को सोता ही छोड़ कर उसने जल्दी से मुँह धोया, कपड़े बदले और तैयार होते ही आई। तब भी धुँधलका था। दरवाजे पर आ कर उसने जो कुछ देखा, वह अवाक् रह गई। स्वप्न तो नहीं!

 स्पिरिट-लैंप जला कर विनोदिनी पानी गरम कर रही थी। रात को बिहारी ने पलकें भी न झपकाई थीं। उनके लिए चाय बनानी थी।

 आशा को देख कर विनोदिनी खड़ी हो गई। बोली - सारे अपराधों के साथ मैंने आज तुम्हारी शरण ली है - और कोई तो जाने की न कह सकेगा, मगर तुम अगर कह दो, जाओ, तो मुझे तुरंत जाना पड़ेगा।

 आशा कोई जवाब न दे सकी। वह यह भी ठीक-ठीक न समझ सकी कि उसका मन क्या कह रहा है - इसलिए वह हक्की-बक्की हो गई।

 विनोदिनी - मुझे तुम कभी माफ नहीं कर पाओगी - इसकी कोशिश भी मत करना। मगर मुझे अब कोई खतरा मत समझना। जिन कुछ दिनों के लिए बुआ को जरूरत है, मुझे इनकी सेवा करने दो, फिर मैं चली जाऊँगी।

 कल जब राजलक्ष्मी ने आशा का हाथ महेंद्र के हाथों में दिया तो उसने मन का सारा मलाल हटा कर सोलहों आने आशा को महेंद्र के हाथों सौंप दिया था। आज विनोदिनी को अपनी नजर के सामने खड़ी देख कर उसके खंडित प्रेम की ज्वाला शांत न हो सकी। इसे कभी महेंद्र ने प्यार किया था, शायद अब भी मन-ही-मन प्यार करता हो - यह बात उसके कलेजे में लहर की तरह फूल-फूल उठने लगी। जरा ही देर बाद महेंद्र जगेगा और वह विनोदिनी को देखेगा, जाने किस नजर से देखेगा।

 भारी हृदय लिए आशा राजलक्ष्मी के कमरे में पहुँची। बहुत शर्माती हुई बोली - मौसी, तुम रात-भर सोई नहीं, जाओ सो जाओ! अन्नपूर्णा ने एक बार अच्छी तरह से आशा के चेहरे को देखा। उसके बाद सोने जाने के बजाय आशा को साथ लिए अपने कमरे में गई। बोलीं - चुन्नी, खुल कर बात करना चाहती है, तू अब बातों को मन में मत रख। गैर को दोषी बनाने का जो सुख है, मन में दोष रखने का दु:ख उससे कहीं बड़ा है।