(31)
गाड़ी यमुना के निर्जन तट पर सुंदर ढंग से लगाए एक बगीचे के सामने आ कर रुकी। महेंद्र हैरत में पड़ गया। किसका है यह बगीचा? इसका पता विनोदिनी को कैसे मालूम हुआ?
फाटक बंद था। चीख-पुकार के बाद बूढ़ा रखवाला बाहर निकला। उसने कहा - बगीचे के मालिक धनी हैं, बहुत दूर नहीं रहते। उनकी इजाजत ले आएँ तो यहाँ ठहरने दूँगा।
विनोदिनी ने एक बार महेंद्र की तरफ देखा। बगीचे के सुंदर घर को देख कर महेंद्र लुभा गया था - बहुत दिनों के बाद कुछ दिनों के लिए रुकने की उम्मीद से वह खुश हो गया। विनोदिनी से कहा - चलो, उस धनी के पास चलें। तुम बाहर गाड़ी पर रहना, मैं अंदर जा कर किराया तय कर लूँगा।
विनोदिनी बोली - मैं अब चक्कर नहीं काट सकती। तुम जाओ, मैं तब तक यहीं सुस्ताती हूँ। डरने की कोई बात नहीं।
महेंद्र गाड़ी ले कर चला गया। विनोदिनी ने उस बूढ़े ब्राह्मण को बुला कर उसके बाल-बच्चों के बारे में पूछा; वे कौन हैं, कहाँ काम करते हैं, बच्चियों की शादी कहाँ हुई है। उसकी स्त्री के देहांत हो जाने की बात सुन कर करुण स्वर में बोली - ओह, तब तो तुम्हें काफी तकलीफ है। इस उम्र में दुनिया में निरे अकेले पड़ गए हो, कोई देखने वाला नहीं!
और बातों-बातों में विनोदिनी ने पूछा - यहाँ बिहारी बाबू न थे?
बूढ़े ने कहा - जी हाँ, थे कुछ दिन। माँजी क्या उनको पहचानती हैं? विनोदिनी बोली - वे हमारे अपने ही हैं।
बूढ़े से बिहारी का जो हुलिया मिला, उसे विनोदिनी को कोई शुबहा न रहा। घर बुला कर उसने सब कुछ पूछ-ताछ लिया कि बिहारी किस कमरे में सोता था, कहाँ बैठता था। उसके चले जाने के बाद से घर बंद पड़ा था, इससे लगा कि उसमें बिहारी की गंध है। लेकिन यह पता न चल सका कि बिहारी गया कहाँ - शायद ही वह फिर लौटे।
महेंद्र ने किराया चुका कर मालिक से वहाँ रहने की इजाजत ले ली।
हिमालय की चोटी यमुना को जो बर्फगली अक्षय जल-धारा देती है, उस यमुना में युगों-युगों से कवियों ने जो कवित्व का स्रोत ढाला है, वह भी अक्षय है। उसकी कल-कल में कितने ही अनोखे छन्द गूँजते हैं और उसकी लहरों की लोल लीला में न जाने कितने युगों के पुलकाकुल भावों का आवेग उफन-उफन आता है।
साँझ को महेंद्र जब उस यमुना के तट पर जा बैठा, तो प्रेम के आवेश ने उसकी नजरों में, साँसों में, नस-नस में, हड्डियों के बीच गाड़े मोह रस का संचार कर दिया आसमान में डूबने सूरज की किरणों किरणों की सुनहरी वीणा वेदना की मूर्च्छना से झरती जोत के संगीत से झंकृत हो उठी!
बारिश जैसा हो रहा था। नदी अपने उद्दाम यौवन में। महेंद्र के पास निर्दिष्ट कुछ नहीं था। उसे वैष्णव कवियों का वर्षाभिसार याद आया। नायिका बाहर निकली है; यमुना के किनारे वह अकेली खड़ी है। उस पार कैसे जाए? अरे ओ, पार करो, पार कर दो। महेंद्र की छाती के अंदर यही पुकार पहुँचने लगी - पार करो।
नदी से उस पार बड़ी दूर पर वह अभिसारिका खड़ी थी - फिर भी महेंद्र उसे साफ देख पाया। उसका कोई काल नहीं, उम्र नहीं, वह चिरंतन गोपबाला है, मगर महेंद्र ने उसे फिर भी पहचान लिया - पहचाना कि वह विनोदिनी है। सारा विरह, सारी वेदना यौवन का सारा भार लिए वह उस युग के अभिसार के लिए चली थी और आज के युग के किनारे आ निकली है। आज के इस सूने यमुना-तट के ऊपर आकाश में वही स्वर सुनाई पड़ रहा है। अरे ओ, पार करो, पार कर दो!
महेंद्र मतवाला हो गया। विनोदिनी उसे ठुकरा देगी, चाँदनी रात के इस स्वर्ग-खंड को वह लक्ष्मी बन कर पूरा न करेगी, वह सोच भी नहीं सका। वह तुरंत उठ कर विनोदिनी को ढूँढ़ने चल दिया।
सोने के कमरे में गया। कमरा फूलों की खुशबू से महमहा रहा था। खुली खिड़कियों से छन कर चाँदनी सफेद बिछौने पर आ पड़ी थी। बगीचे के फूलों से सजी वह बसंत की बिखरी लता-जैसी चाँदनी में बिस्तर पर लेटी हुई थी।
महेंद्र का मोह दुगुना हो गया। उसने रुँधे गले से कहा - विनोद, मैं यमुना के तट पर तुम्हारी राह देख रहा था और तुम यहाँ इंतजार कर रही हो, यह संदेशा मुझे चाँद ने दिया। इसी से मैं यहाँ आ गया।
यह कह कर महेंद्र बिस्तर पर बैठने ही जा रहा था कि विनोदिनी उठ बैठी और दायाँ हाथ बढ़ा कर बोली - जाओ; इस बिस्तर पर मत बैठो। पाल वाली नाव मानो चौंर में अटक गई - महेंद्र कहा न माने, इसीलिए विनोदिनी बिस्तर से उतर कर खड़ी हो गई।
महेंद्र ने पूछा - तो तुम्हारा यह शृंगार किसके लिए है? किसका इंतजा कर रही हो?
विनोदिनी ने अपनी छाती को दबा कर कहा - मैं जिसके लिए सजी-सँवरी, वह मेरे अंतस्तल में है।
महेंद्र ने पूछा - आखिर कौन? बिहारी।
विनोदिनी बोली - उसका नाम तुम अपनी जबान पर मत लाओ!
महेंद्र - उसी के लिए तुम पछाँह का दौरा कर रही हो?
विनोदिनी - हाँ, उसी के लिए।
महेंद्र - उसका पता मालूम है?
विनोदिनी - मालूम नहीं, मगर जैसे भी हो, मालूम करूँगी।
महेंद्र - तुम्हें यह हर्गिज न मालूम होने दूँगा।
विनोदिनी - न सही, मगर मेरे हृदय से उसे निकाल नहीं पाओगे।
यह कह कर विनोदिनी ने आँखें बंद करके अपने हृदय में एक बार बिहारी का अनुभव कर लिया।
फूलों से सजी विरह-विधुरा विनोदिनी से एक साथ ही खिंच कर और ठुकराया जा कर महेंद्र अचानक भयंकर हो उठा; वह मुट्ठी कस कर बोला - छुरी से चीर कर मैं उसे तुम्हारे कलेजे से निकाल बाहर करूँगा।
विनोदिनी ने दृढ़ता से कहा - तुम्हारे प्रेम से तुम्हारी यह छुरी मेरे हृदय में आसानी से घुस सकेगी।
महेंद्र - तुम मुझसे डरती क्यों नहीं? यहाँ तुम्हें बचाने वाला कौन है?
विनोदिनी - बचाने वाले तुम हो! तुम्हीं मुझे अपने से बचाओगे।
महेंद्र - इतनी श्रद्धा, इतना विश्वास अब भी है!
विनोदिनी - यह न होता तो मैं खुदकुशी कर लेती, तुम्हारे साथ परदेस न आती।
महेंद्र - क्यों न कर ली खुदकुशी? उस विश्वास की फाँस मेरे गले में डाल कर मुझे देश-देशांतर में घसीट कर क्यों मार रही हो? सोच देखो, तुम मर जाती तो कितना कल्याण होता!
विनोदिनी - जानती हूँ, मगर जब तक बिहारी की उम्मीद है, मर न पाऊँगी।
महेंद्र - जब तक तुम नहीं मरतीं, तब तक मेरी आशा भी नहीं मरने की, मैं भी छुटकारा नहीं पाने का। आज से मैं हृदय से भगवान से तुम्हारी मृत्यु की कामना करता हूँ। तुम मेरी भी न बनो, बिहारी की भी नहीं! जाओ, मुझे मुक्ति दो। मेरी माँ रो रही है, स्त्री रो रही है, उनके आँसू दूर से ही मुझे जला रहे हैं। जब तक तुम मर नहीं जातीं; मेरी और दुनिया-भर की आशा से परे नहीं हो जातीं, तब तक मुझे उनके आँसू पोंछने का अवसर नहीं मिलेगा।
इतना कह कर महेंद्र बड़ी तेजी से बाहर निकल गया। अकेली पड़ी विनोदिनी अपने चारों तरफ माया का जाल बुन रही थी, उसे वह फाड़ गया। विनोदिनी खड़ी-खड़ी चुपचाप बाहर देखती रही - आकाश-भरी चाँदनी को खाली करके उसका सारा संचित अमृत कहीं चला गया? वह क्यारियों वाला बगीचा, उसके बाद रेती-भरा किनारा, उसके बाद नदी का काला-काला पानी, उसके बाद सारा पार का धुँधलापन - सब मानो एक सादे कागज पर पेंसिल का बना चित्र हो - नीरस, बेमानी।
उसने महेंद्र को किस बुरी तरह अपनी ओर खींचा है खौफनाक तूफान की तरह कैसे उसे जड़ समेत उखाड़ लिया है- यह अनुभव करके आज उसका हृदय मानो और भी बेचैन हो गया। उसमें यह सारी शक्ति तो है, फिर भी बिहारी पूर्णिमा की रात में उमड़े हुए समुद्र की तरह उसके सामने आ कर पछाड़ क्यों नहीं खाता? क्यों बे-मतलब प्यार की कचोट रोज उसके ध्यान में आ कर रोती है?
उसे लगा सब बेकार और निरर्थक है। इतनी व्यर्थता के बावजूद जो जहाँ है, वहीं खड़ा है - दुनिया में किसी बात का कोई कार्यक्रम नहीं। सूरज तो कल भी उगेगा और दुनिया अपने छोटे-से काम को भी न भूलेगी। और बिहारी जैसे दूर रहा है, वैसे ही दूर रहेगा और उस ब्राह्मण के बच्चे को किताब का नया पाठ पढ़ाता रहेगा।
उसकी आँखों से आँसू फूट कर झरने लगे। अपनी इच्छा और शक्ति लिए वह किस पत्थर को ढकेल रही है? उसका हृदय लहू से नहा उठा, लेकिन उसकी तकदीर सुई की नोक के बराबर भी न खिसकी।
रात में महेंद्र सोया नहीं - थकावट के मारे सुबह-सुबह उसे नींद आई। सुबह आठ-नौ बजे के करीब जग कर वह झट उठ बैठा। पिछली रात की कोई अधूरी पीड़ा नींद के भीतर-ही-भीतर घूमती रही थी। सचेतन होते ही महेंद्र उसकी तकलीफ महसूस करने लगा। कुछ ही देर में रात की सारी घटना मन में जाग पड़ी। सुबह की उस धूप में, पूरी नींद न आ पाने की थकावट से सारी दुनिया और जिंदगी बड़ी सूखी-सी लगी। घर छोड़ने की ग्लानि, धर्म छोड़ने का परिताप और इस उद्भ्रांत जीवन की ये जिल्लतें आखिर वह किसके लिए झेल रहा है! मोह के आवेश से रहित सुबह की इस धूप में महेंद्र को लगा, वह विनोदिनी को प्यार नहीं करता। उसने रास्ते की ओर झाँका - सारी दुनिया परेशान-सी काम के पीछे भाग रही है और आत्म-गौरव को कीचड़ में डुबो कर एक बेरुखी औरत के पैरों से लिपटे रहने की जो नादानी है, वह महेंद्र की निगाहों में स्पष्ट हो उठी। आवेग के किसी बड़े झोंके के बाद हृदय में अवसाद आता है, ऐसे वक्त थका-हारा हृदय अनुभूति के विषय को कुछ समय के लिए दूर हटाना चाहता है। भावों का ऐसा भाटा पड़ने के समय नीचे की सारी छिपी हुई गन्दगी ऊपर आ जाती है-मोह लाने वाली वस्तु से विरक्त हो आती है। महेंद्र्र क्यों अपने को इस तरह अपमानित कर रहा है, इसे वह आज न समझ सका। उसने सोचा, मैं हर तरह से विनोदिनी से बेहतर हूँ, फिर भी सब प्रकार की हीनता और झिड़कियाँ बर्दास्त करता हुआ घिनौने भिखमंगे-सा उसके पीछे मारा-मारा फिर रहा हूँ-ऐसा अजीब पागलपन किस शैतान ने मेरे दिमाग में भर दिया है। आज विनोदिनी महेंद्र्र के लिए महज एक औरत रह गई, और कुछ नहीं; उसके लिए चारों तरफ फैली धरती की सुषमा से, काव्यों से, कहानियों से लावण्य की जो एक ज्योति खिंच आई थी, उसकी माया-मरीचिका के गायब होते ही वह एक मामुली नारी-मात्र हो रही-उसका कोई अनोखापन न रहा।
फिर तो धिक्कार के इस मार-चक्र से अपने को छुड़ा कर घर जाने के लिए महेंद्र ललक उठा, बिहारी को निर्भर करने योग्य अडिग मिताई बड़ी बेशकीमती लगने लगी। महेंद्र मन-ही-मन कह उठा - जो वास्तव, गंभीर और स्थायी होता है, उसमें अनायास, बाधा-विहीन-सा अपने को पूरी तरह खोया जा सकता है, इसीलिए उसके गौरव को हम नहीं समझते। जो महज धोखा है, जिसकी तृप्ति में भी सुख का नाम नहीं, चूँकि वह हमें अपने पीछे घुड़दौड़-सी कराता है, इसलिए हम उसे अपनी चरम कामना का धन समझते हैं।
महेंद्र ने तय किया - मैं आज ही अपने घर जाऊँगा। विनोदिनी जहाँ भी रहना चाहेगी, वहीं उसका इंतजाम करके मैं मुक्त हो जाऊँगा - यह जोर से उच्चारण करते ही उसके मन में एक आनंद का उदय हुआ। लगातार दुविधा का जो भार वह ढोता चला आ रहा था, हल्का हो गया। अब तक होता ऐसा रहा कि अभी-अभी जो बात उसे रुचती न थी, दूसरे ही क्षण उसे मानने को मजबूर होना पड़ता था, हाँ-ना कहते न बनता; उसकी अंतरात्मा उसे जो आदेश देती, सदा बलपूर्वक उसे दबा कर वह दूसरी ही राह पर चला करता। अभी जैसे ही उसने जोर से कहा - मैं मुक्त हो जाऊँगा - वैसे ही शरण पा कर उसके झकझोरे हुए हृदय ने उसे बधाई दी।
महेंद्र बिस्तर से उठा, मुँह-हाथ धोया और विनोदिनी से मिलने गया। देखा, कमरा अंदर से बंद है। दरवाजे पर धक्का दे कर पूछा - सो रही हो?
विनोदिनी बोली - नहीं, अभी जाओ!
महेंद्र ने कहा - तुमसे जरूरी बात करनी है। ज्यादा देर न रुकूँगा।
विनोदिनी बोली - बात अब मैं नहीं सुनना चाहती, तुम जाओ, मुझे तंग मत करो- अकेली रहने दो।
और दिन होता, तो इससे महेंद्र का आवेग और बढ़ ही जाता। लेकिन आज उसे बेहद घृणा हुई। सोचा, इस मामूली औरत के आगे अपने-आपको मैंने ऐसा गया-बीता बना छोड़ा है कि अब उसमें मुझे बुरी तरह दुत्कार कर दूर कर देने की हिम्मत हो गई है? यह अधिकार इसका स्वाभाविक नहीं। मैंने ही यह अधिकार दे कर इसके मिजाज को सातवें आसमान पर पहुँचा दिया है।