आँख की किरकिरी - 20 Rabindranath Tagore द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आँख की किरकिरी - 20

(20)

मुझसे तुम क्या चाहते हो? प्यार! यह भिखमंगी क्यों आखिर? जन्म से तुम प्यार-ही-प्यार पाते आ रहे हो, फिर भी तुम्हारे लोभ का कोई हिसाब नहीं!

 मेरे प्रेम करने और प्रेम पाने की संसार में कोई जगह नहीं - इसीलिए मैं खेल में प्यार के खेद को मिटाया करती हूँ। जब तुम्हें फुर्सत थी, तुमने भी उस झूठे खेल में हाथ बँटाया था। लेकिन खेल की छुट्टी क्या खत्म नहीं होती? अब गर्द-गुबार झाड़-पोंछ कर वापस जाओ। मेरा तो कोई घर नहीं, मैं अकेली ही खेला करूँगी - तुम्हें नहीं बुलाऊँगी।

 तुमने लिखा है, तुम मुझे प्यार करते हो। खेल-कूद में यह बात मान ली जा सकती है - मगर सच कहना हो तो इस पर यकीन नहीं करती! कभी तुम यह सोचते थे कि आशा को प्यार करते हो। वह भी झूठा है। असल में तुम सिर्फ खुद को प्यार करते हो।

 प्यार की प्यास से मेरी छाती तक सूख गई है और वह प्यास मिटाने का सहारा तुम्हारे हाथ में नहीं, यह मैं अच्छी तरह देख चुकी हूँ। मैं बार-बार कहती हूँ, मुझे छोड़ दो, मेरे पीछे मत पड़ो, बेशर्म हो कर मुझे शर्मिंदा न करो! मेरे खेल का शौक भी पूरा हो चुका, अब पुकारोगे भी तो जवाब नहीं मिलेगा। खत में तुमने मुझे निर्दयी लिखा है - शायद यह सच हो, लेकिन मुझमें थोड़ी दया भी है, इसलिए आज मैंने दया करके तुम्हें त्याग दिया। कहीं तुमने मेरे इस पत्र का जवाब कोई दिया, तो समझूँगी कि यहाँ से भागे बिना तुमसे बचने का कोई उपाय नहीं।

 चिट्ठी का पढ़ना था कि लमहे भर में आशा के चारों तरफ के सहारे टूट गिरे, शरीर की सारी शिराएँ मानो एकबारगी थम गईं, साँस लेने के लिए हवा तक मानो न रही - सूरज ने उसकी आँखों के सामने से जैसे सारी रोशनी समेट ली। आशा ने पहले दीवार थामी, फिर अलमारी, और फिर कुर्सी पकड़ते-पकड़ते जमीन पर गिर पड़ी।

 अंत में कलेजा दबा कर उसाँसें भरती हुई बोल पड़ी - मौसी!

 स्नेह के इस संभाषण के उमड़ते ही उसकी आँखों से आँसू छलकने लगे। रुलाई पर रुलाई, और फिर रुलाई - आखिर जब रुलाई थमी तो वह सोचने लगी - लेकिन इस चिट्ठी का क्या मैं करूँगी? कहीं उन्हें पता चल जाए कि यह चिट्ठी मेरे हाथ लग गई है तो! ऐसे में उनकी शर्मिंदगी की याद करके आशा बेतरह कुंठित होने लगी। सोच कर आखिर यह तय किया कि चिट्ठी को उसी कुरते की जेब में रख कर उसे खूँटी पर लटका देगी - धोबी को न देगी।

 इसी विचार से चिट्ठी लिए वह सोने के कमरे में गई। इस बीच मैले कपड़ों की गठरी से टिक कर धोबी सो गया था। वह कुरते की जेब में चिट्ठी डालने की चेष्टा कर रही थी कि आवाज सुनाई दी - भई किरकिरी!

 चिट्ठी और कुरते को झट-पट पलँग पर डाल कर वह उस पर बैठ गई। विनोदिनी अंदर आ कर बोली - धोबी कपड़े बहुत उलट-पुलट करने लगा है। जिन कपड़ों में निशान नहीं लगाए गए हैं, मैं उन्हें ले जाती हूँ।

 आशा विनोदिनी की ओर देख न सकी। चेहरे के भाव से सब कुछ जाहिर न हो जाए, इसलिए खिड़की की ओर मुँह करके वह आसमान ताकती रही। होंठ से होंठ दबाए रही कि आँखों से आँसू न बह आएँ।

 विनोदिनी ठिठक गई। एक बार आशा को गौर से देखा। सोचा, ओ, समझी, कल का वाकया मालूम हो गया है। लेकिन सारा गुस्सा मुझी पर! मानो कसूर मेरा ही है।

 उसने आशा से बात करने की कोशिश ही न की। कुछ कपड़े उठा कर जल्दी-जल्दी वहाँ से चली गई।

 एक बार मिला कर देखने की इच्छा हुई।

 वह खत खोलने लगी कि इतने में लपक कर महेंद्र कमरे में आया। जाने क्या उसे याद आया कि लेक्चर के बीच से ही अचानक उठ कर चला आया।

 आशा ने पत्र आँचल में छिपा लिया। आशा को कमरे में देख कर महेंद्र भी सहम गया। उसके बाद व्यग्र दृष्टि से कमरे के इधर-उधर देखने लगा। आशा ताड़ गई कि महेंद्र क्या ढूँढ़ रहा है, लेकिन चिट्ठी को चुपचाप जहाँ थी, वहाँ रख कर वह कैसे भाग खड़ी हो, यह न समझ सकी।

 महेंद्र एक-एक करके मैले कपड़े उठा-उठा कर देखने लगा। महेंद्र की उस बेकार कोशिश को देख कर आशा से न रहा गया। उसने कुरते और चिट्ठी को फर्श पर फेंक दिया और दाएँ हाथ से पलँग के डंडे को थाम कर मुँह गाड़ लिया। महेंद्र ने बिजली की तेजी से चिट्ठी उठाई। एक पल को आशा की ओर कुछ न बोलते हुए लेकिन कुछ कहने के अंदाज में उसने देखा मगर कुछ कहा नहीं।

 फिर तुरंत आशा को ससीढ़ियों पर उसके तेज कदम की आहट मिली। इधर धोबी ने पुकरा - माँ जी, कपड़े देने में और कितनी देर करेंगी? बड़ी देर हो गई, मेरा घर भी तो पास नहीं।

 राजलक्ष्मी ने आज सुबह से विनोदिनी को बुलाया नहीं। रोज की तरह विनोदिनी भंडार में गई। राजलक्ष्मी ने सिर उठा कर उसकी ओर नहीं देखा।

 यह देख कर भी उसने कहा - बुआ, तबीयत ठीक नहीं है, क्यों? हो भी कैसे? कल रात भाई साहब ने जो करतूत की! पागल-से आ धामके। मुझे तो फिर नींद ही न आई।

 राजलक्ष्मी मुँह लटकाए रहीं। हाँ-ना कुछ न कहा।

 विनोदिनी बोली - किसी बात पर चख-चख हो गई होगी आशा से। कुछ भी कहो! बुआ, नाराज मत होना, तुम्हारे बेटे में चाहे हजारों सिफ्त हों, धीरज जरा भी नहीं। इसीलिए मुझसे हरदम झड़प ही होती रहती है।

 राजलक्ष्मी ने कहा - बहू, झूठ बकती जा रही हो तुम, मुझे आज कोई भी बात नहीं सुहाती।

 विनोदिनी बोली - मुझे भी कुछ नहीं सुहा रहा है, बुआ। तुम्हारे दिल को ठेस लगेगी, इसी डर से झूठ से मैं तुम्हारे बेटे का गुनाह ढँकना चाहती थी। लेकिन इस हद को पहुँच गया है कि अब ढँका नहीं रहना चाहता।

 राजलक्ष्मी - अपने बेटे का गुण-दोष मुझे मालूम है, मगर तुम कैसी मायाविनी हो, यह पता न था।

 विनादिनी न जाने क्या कहने जा रही थी कि अपने को जब्त कर गई।

 बोली - यह सच है बुआ, कोई किसी को नहीं जानता; अपने मन को ही क्या सब कोई जानते हैं? कभी क्या तुम्हीं ने अपनी बहू से डाह करके इस मायाविनी के जरिये अपने बेटे का मन मोहने की कोशिश नहीं कराई थी? जरा सोच कर देखो!

 राजलक्ष्मी आग-सी दहक उठीं। बोलीं - अभागिन, लड़के के लिए तू माँ पर ऐसा आरोप लगा सकती है? जीभ गल कर नहीं गिरेगी तेरी?

 विनोदिनी उसी अडिग भाव से बोली - बुआ, हम हैं मायाविनी की जात - मुझमें कौन-सी माया थी मैं ठीक-ठाक नहीं जानती थी, तुम्हें पता था, तुममें भी क्या माया थी - इसका तुम्हें ठीक पता न था, मैं जानती थी। मगर माया जरूर थी, नहीं तो यह घटना न घटती। मैंने भी कुछ जानते और कुछ अजानते फंदा डाला था। और फंदा तुमने भी कुछ तो जान कर बिना जाने डाला था। हमारी जात का धर्म ही ऐसा है - हम मायाविनी हैं।

 क्रोध के मारे राजलक्ष्मी का कंठ जकड़ गया। वह तेजी से कमरे के बाहर निकल गईं।

 विनोदिनी सूने कमरे में जरा देर स्थिर खड़ी रही। उसकी आँखों में आग जल उठी।

 सुबह का काम-काज चुक गया तो राजलक्ष्मी ने महेंद्र को बुलवा दिया। महेंद्र समझ गया, कल रात की घटना के बारे में कहेंगी। इस बीच विनोदिनी से चिट्ठी का उत्तर पा कर मन बेकल हो गया। उसी आघात के प्रतिघातस्वरूप उसका लहराया हृदय विनोदिनी की ओर जोरों से दौड़ रहा था। इस स्थिति में माँ से सवाल-जवाब करना उसके लिए कठिन था। वह खूब समझ रहा था, जहाँ माँ ने विनादिनी के बारे में उसे फटकार बताई कि वह विद्रोही की तरह सच बता देगा और सच कहते ही भीषण गृह-युद्ध शुरू हो जाएगा। लिहाजा इस समय कहीं बाहर जा कर सारी बातों पर ठीक से गौर कर लेना ठीक है। महेंद्र ने नौकर से कहा - माँ से जा कर कह दे, आज कॉलेज में मुझे विशेष काम से, जल्दी जाना है; लौट कर मिलूँगा।

 और तुरंत कपड़े पहन कर बिना खाए-पिए वह भाग खड़ा हुआ। विनोदिनी की जिस सख्त चिट्ठी को वह आज सुबह से ही बारंबार पढ़ता और जेब में लिए-लिए फिरता रहा, जल्दी में वह चिट्ठी कुरते में ही छोड़ कर चला गया।

 एक झमक बारिश हो गई, फिर घुमड़न-सी हो रही। विनोदिनी का मन आज खीझा हुआ था। उसका मन भी जब ऐसा होता है तो वह काम ज्यादा करती है। इसीलिए आज घर भर में जितने भी कपड़े मिले सबको बटोर कर निशान लगा रही थी। आशा से कपड़े माँगने गई तो उसके चेहरे का भाव देख कर उसका मन और भी बिगड़ गया। संसार में अगर कसूरवार ही ठहरना है तो उसकी सारी जहमतें वही क्यों झेले, कसूर के सुखों से ही क्यों वंचित हो?

 झमाझम बारिश शुरू हो गई। विनादिनी कमरे के फर्श पर आ बैठी। सामने कपड़ों का पहाड़ लगा था। नौकरानी एक-एक कपड़ा उसकी ओर बढ़ा रही थी और वह स्याही से उस पर हरफ उगा रही थी।

 महेंद्र ने कोई आवाज न दी। दरवाजा खोल कर सीधा कमरे में दाखिल हो गया। नौकरानी घूँघट निकाल कर वहाँ से भाग गई।

 विनोदिनी ने अपनी गोद पर का कपड़ा उतार फेंका और बिजली-सी लपक खड़ी हुई। बोली - जाओ, मेरे कमरे से चले जाओ!

 महेंद्र बोला - क्यों, मैंने क्या किया है?

 विनोदिनी - क्या किया है! डरपोक, कायर! कुछ करने की जुर्रत ही कहाँ है तुममें! न प्यार करना आता है, न कर्तव्य का पता है। बीच में मुझे क्यों लोगों की नजरों में गिरा रहे हो?

 महेंद्र - तुम्हें प्यार नहीं किया, यह क्या कहती हो?

 विनोदिनी - मैं यही कह रही हूँ - चोरी से, चुप-चुप, झोप-तोप, एक बार इधर तो एक बार उधर - तुम्हारी यह चोर-जैसी हरकत देख कर मुझे नफरत हो गई है। अब अच्छा नहीं लगता। तुम जाओ यहाँ से ।

 महेंद्र मुरझा गया। बोला - तुम मुझसे नफरत करती हो, विनोद?

 विनोदिनी - हाँ, करती हूँ।

 महेंद्र - अब भी प्रायश्चित करने का समय है। मैं अगर दुविधा न करूँ, सब-कुछ छोड़-छाड़ कर चल दूँ तो तुम मेरे साथ चलने को तैयार हो?

 यह कह कर महेंद्र ने जोर से उसके दोनों हाथ पकड़ कर उसे अपनी ओर खींच लिया। विनोदिनी बोली - छोड़ो, डर लगता है।

 महेंद्र - लगने दो। पहले बताओ कि तुम मेरे साथ चलोगी?

 विनोदिनी - नहीं! नहीं! हर्गिज नहीं।

 महेंद्र - क्यों नहीं चलोगी? तुमने ही मुझे खींच कर सर्वनाश के जबड़े में पहुँचाया। अब आज तुम मुझे छोड़ नहीं सकतीं। चलना ही पड़ेगा तुम्हें।

 महेंद्र ने बलपूर्वक विनोदिनी को अपनी छाती से लगाया और कस कर पकड़ते हुए कहा - मैं तुम्हें ले जा कर ही रहूँगा और चाहे जैसे भी हो, प्यार तुम्हें करना ही पड़ेगा।

 विनोदिनी ने जबरदस्ती अपने को उसके शिंकजे से छुड़ा लिया। महेंद्र ने कहा - चारों तरफ आग लगा दी है, अब बुझा भी नहीं सकती, भाग भी नहीं सकती।

 कहते-कहते महेंद्र की आवाज ऊँची हो आई। जोर से बोला - आखिर ऐसा खेल तुमने खेला क्यों, विनोद! अब इसे खेल कह कर टालने से छुटकारा नहीं। तुम्हारी और मेरी अब एक ही मौत है।

 राजलक्ष्मी अंदर आई। बोलीं - क्या कर रहा है, महेंद्र?

 महेंद्र की उन्मत्त निगाह पल भर को माँ की ओर फिर गई। उसके बाद उसने फिर विनोदिनी की तरफ देख कर कहा - मैं सब-कुछ छोड़-छाड़ कर जा रहा हूँ, बताओ, तुम मेरे साथ चलती हो?

 विनोदिनी ने नाराज राजलक्ष्मी के चेहरे की ओर एक बार देखा और अडिग भाव से महेंद्र का हाथ थाम कर बोली - चलूँगी।

 महेंद्र ने कहा - तो आज भर इंतजार करो! मैं चलता हूँ। कल से तुम्हारे सिवा मेरा और कोई न होगा।

 कह कर महेंद्र चला गया।

 इतने में धोबी आ गया। विनोदिनी से उसने कहा - माँ जी, अब तो जाने ही दीजिए। आज फुरसत नहीं है, तो मैं कल आ कर कपड़े ले जाऊँगा।

 नौकरानी आई - बहू जी, साईस ने बताया है, घोड़े का दाना खत्म हो गया है।

 विनोदिनी इकट्ठा सात दिन का दाना अस्तबल में भिजवा दिया करती थी और खुद खिड़की पर खड़ी हो कर घोड़ों के खाने पर नजर रखती थी।

 नौकर गोपाल ने आ कर खबर दी - बीबीजी, झाडूदार से दादा जी (साधुचरण) की झड़प हो गई है। वह कह रहा है, उसके तेल का हिसाब समझ लें तो वह दीवान जी से अपना लेना-देना चुका कर नौकरी छोड़ देगा।

 गृहस्थी के सारे काम-काज पहले की तरह चलते रहे।

 बिहारी अब मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहा था। ऐन इम्तहान के वक्त छोड़ दिया। कोई अचरज से पूछ बैठता, तो कहता- पराई सेहत की बात फिर देखी जाएगी, पहले तंदुरुस्ती का खयाल जरूरी है।