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हर स्त्री-पुरुष स्वयं में, स्वयं से पूर्ण होकर भी स्वयं के बिना कैसें अपूर्ण हैं?

लेखक और लेखन के संबंध में।

मेरी अभिव्यक्ति केवल मेरे लियें हैं यानी मेरी जितनी समझ के स्तर के लियें और यह मेरे अतिरिक्त उनके लियें भी हो सकती हैं जो मुझ जितनी समझ वाले स्तर पर हों अतः यदि जो भी मुझें पढ़ रहा हैं वह मेरी अभिव्यक्ति को अपने अनुभव के आधार पर समझ पा रहा हैं तो ही मुझें पढ़े क्योंकि समझ के आधार पर मेरी ही तरह होने से वह मेरे यानी उसके ही समान हैं जिसके लियें मेरी अभिव्यक्ति हैं और यदि अपनें अनुभवों के आधार पर नहीं समझ पा रहा अर्थात् उसे वह अनुभव ही नहीं हैं जिनके आधार पर मैं व्यक्त कर रहा हूँ तो वह मेरे जितने समझ के स्तर पर नहीं हैं, मेरे यानी उसके जितनें समझ के स्तर पर जिसके लियें मेरी यह अभिव्यक्ति थी है और अनुकूल रहा तो भविष्य में भी रहेगी। मेरी अभिव्यक्ति के शब्द मेरी उंगलियाँ हैं जो मेरे उन अनुभवों की ओर इशारा कर रही हैं जिन अनुभवों के आधार पर मैं अभिव्यक्ति करता हूँ यदि पढ़ने वाले के पास या सुनने वालें के पास वह अनुभव ही नहीं हैं या उनकी पहचान ही नहीं हैं तो जिनके आधार पर अभिव्यक्ति हैं तो वह खुद के अनुभवों से तुलना नहीं कर पायेगा जिनकी ओर मैंने इशारा किया हैं जिससें मेरी अभिव्यक्ति उसकी समझ से परें होगी नहीं तो फिर वह अनुभवों का ज्ञान नहीं होने से जिनके आधार पर अभिव्यक्ति हैं वह उसके किन्ही अन्य अनुभव से तुलना कर वह ही समझ लेगा जिनकी ओर मैं इशारा ही नहीं कर रहा यानी मुझें गलत समझ लेगा।

हर स्त्री-पुरुष स्वयं में, स्वयं से पूर्ण होकर भी स्वयं के बिना कैसें अपूर्ण हैं?

चैतन्य पुरुष हैं और धारणा स्त्री। जिन्हें हम पुरूष समझतें हैं और जिन्हें स्त्री उन सभी में चैतन्य के साथ वास करती धारणा भी समान अनुपात में हैं जो कि हर पुरुष को उतनी ही स्त्री और हर स्त्री को उतना ही पुरुष भी सिद्ध करते हैं जितने वह सभी पुरुष और स्त्री हैं अतः हर पुरुष स्वयं में पूर्ण हैं क्योंकि उसकी स्त्री का उसे सानिध्य हैं और हर स्त्री भी पूर्ण हैं क्योंकि उसे भी उसके पुरुष का साथ हैं और इस तरह संतुलन की निश्चिन्तता पूर्णता से सदैव सम्पन्न हैं परंतु जितना महत्वपूर्ण संतुलन पूर्णता से आवश्यक हैं उतनी ही समानता पर आधारित संतुलन की आवश्यकता हैं; इसी कारण से हर स्त्री को स्वयं में पूर्ण होने के पश्चात भी उससें मिलना पड़ता हैं जो पुरुष स्वयं भी उसकी स्त्री के सानिध्य से पूर्ण हैं, जिससे कि पूर्णता के साथ-साथ समानता से भी संतुलितता की व्यवस्था यानी संपन्नता या फलितता भी हो सकें क्योंकि संतुलन में पूर्णता हैं पर समानता नहीं तो भी वह उसी तरह अपूर्ण या असमान हैं जैसा कि उसमें समानता के होनें पर भी पूर्णता का आभाव अर्थात् समानता होने पर भी पूर्णता न होना।

जहाँ बात आकार की हैं वहाँ द्वेत तो सामान्य हैं, यही कारण हैं कि जो पुरुष जाना जाता हैं वह चेतना अर्थात् चैतन्य स्वयं में स्वयं की स्त्री या शक्ति यानी कल्पना कर्ता अंश के साथ होकर भी अपूर्ण हैं क्योंकि बाहर उसी का ऐसा अंश मौजूद हैं जो कि उसी की तरह स्त्री जाना जाता हैं पर वास्तविकता में जितनी स्त्री हैं ठीक उतनी ही पुरुष भी हैं।

- रुद्र एस. शर्मा (Asli RSS)
समय/दिनांक - ००:११/२३:०६:२२