गोलू भागा घर से - 22 Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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गोलू भागा घर से - 22

22

बिग बॉस!

पर ये लोग करते क्या होंगे? कोई फैक्टरी वगैरह तो ये लोग चलाते नहीं हैं? फिर कहाँ से आता है इतना पैसा, इतनी दौलत...?

गोलू फिर से हॉल की सजावट पर गौर करने लगा। यह तो पुराने जमाने के किसी राजा-महाराज का महल लगता है।

“अच्छा, तो क्या तुम्हीं गोलू हो?” एक गूँजदार आवाज सुनाई दी, तो गोलू चौंका। मिस्टर पॉल मुसकराकर उससे पूछ रहे थे।

“जी...!” गोलू को लगा कि उसकी जीभ तालू से चिपक गई है और बड़ी मुश्किल से शब्द निकल पा रहे हैं।

फिर हिम्मत करके उसने कहा, “सर, मेरा असली नाम तो गौरव कुमार है, पर सभी गोलू कहते हें। अब तो मुझे भी यही अच्छा लगने लगा है।”

“ओह, यू मीन, गोलू...उर्फ गौरवकुमार!” मिस्टर पॉल खिलखिलाकर हँसे।

“यस सर...यस!” गोलू ने भी इसी तरह हँसकर जवाब दिया। अब उसकी झिझक काफी कम हो गई थी।

“कैसा लगा हमारा घर...?” मिस्टर पॉल ने पूछा।

“जी, अच्छा है, बहुत अच्छा...लाइक ए ब्यूटीफूल ड्रीमलैंड!” गोलू ने बेझिझक उत्तर दिया।

इस पर मिस्टर विन पॉल ने मुसकराकर कहा, “तो अब तुम भी यहीं रहोगे—हमारे ड्रीमलैंड में! क्यों, ठीक है न!”

“लेकिन मैं जिस फैक्टरी में काम करता हूँ, वहाँ...अभी मैंने रिजाइन भी नहीं दिया!” गोलू ने झिझकते हुए कहा।

“भूल जाओ उसे!” मिस्टर पॉल ने कहा, “अब तो यही तुम्हारा घर है, यही तुम्हारी फैक्टरी। सोचो कि तुम्हारी दुनिया बदल गई! और अब बदली हुई दुनिया के हिसाब से तुम भी बदलो।” फिर एकाएक उन्होंने पूछा, “वहाँ तुम्हें कितनी तनखा मिलती थी?”

“सात सौ रुपए।” गोलू ने थोड़ा सकुचाकर कहा।

“तो ठीक है, इस पर एक जीरो और लगा लो। यानी सात हजार रुपए।...क्यों ठीक है न! अब तो खुश हो...या कम लगती हो तो बताओ।” मिस्टर विन पॉल ने गौर से उसे देखते हुए कहा।

“नहीं सर, यह तो बहुत है...बहुत ज्यादा!” गोलू के चेहरे पर चमक थी।

“मेहनत से काम करोगे—जिम्मेदारी से, तो साल भर के अंदर तनखा दूनी।” विन पॉल हँसे।

“थैंक्यू सर! पर मुझे काम क्या करना होगा?” गोलू ने पूछा। वह जान लेना चाहता था कि जो काम उसे सौंपा जाए, वह उसके साथ न्याय कर पाएगा या नहीं?

“वह भी बताएँगे...आराम से। धीरे-धीरे सब सीख जाओगे। कोई जल्दी नहीं है। बहुत जिम्मेदारी वाला काम तुमसे लेना है।” विन पॉल मंद-मंद मुसकरा रहे थे।

“हाँ, एक बात है, तुम्हारी अंग्रेजी अच्छी होनी चाहिए। आज से ही अंग्रेजी की किताबें, अखबार और मैगजीन पढ़ने शुरू कर दो। बढ़िया अंग्रेजी बोलने की भी प्रैक्टिस करो। हमार काम ज्यादातर विदेशी दूतावासों से पड़ता है...इसलिए अंग्रेजी बहुत अच्छी होनी चाहिए।”

“जी, ठीक है। मुझे बस एक महीने का समय दे दीजिए।” गोलू ने भरपूर आत्मविश्वास के साथ कहा।

“ठीक है, जाओ गोलू। कोई कोई परेशानी हो तो मुझे या मि. डिकी को बताना।...अब तुम भी इस ड्रीमलैंड के एक पार्ट हो।” मि. विन पॉल के चेहरे पर चौड़ी मुसकान थी।

गोलू ने सिर झुकाकर मिस्टर विन पॉल को धन्यवाद दिया और बाहर चला गया।.

*

उसके बाद तो गोलू के लिए जैसे एक नई दुनिया के द्वार खुल गए। सारे दिन वह अंग्रेजी के अखबार पत्रिकाएँ और किताबें पढ़ता रहता। पढ़ने का शौक तो उसे पहले से ही था, पर अंग्रेजी की पत्रिकाएँ और किताबें उसने बहुत कम पढ़ी थीं।

इधर पढ़ना शुरू किया तो तो शुरू-शुरू में दिक्कत आई। फिर उसे अच्छा लगने लगा। कभी-कभी अकेले में ही धीरे-धीरे बुदबुदाकर अंग्रेजी बोलने का अभ्यास करता। उसे लगता, थोड़ी मुश्किल भले ही आए, पर वह अंग्रेजी बोलना सीख जाएगा, जल्दी ही। और अंग्रेजी पढ़ने और समझने में तो उसे जरा भी मुश्किल नहीं आती थी।

कुछ रोज बाद एक साँवले रंग की दुबली-पतली महिला उसे अंग्रेजी पढ़ाने आने लगी। उसने कहा, “मिस्टर विन पॉल का आदेश है, मैं आपकी मदद करूँ।”

गोलू उस महिला के साथ अंग्रेजी बोलने का अभ्यास करता और वह महिला उसे प्रोत्साहित करती। अच्छा बोलने पर शाबाशी भी देती।

गोलू को मालूम पड़ा, उस साँवली स्त्री का नाम है, मिसेज ब्राउनी। उसे हैरानी हुई, ये तो एकदम सीधी-सादी हिंदू औरतों की तरह लगती है। वैसी ही साड़ी, यहाँ तक कि बिंदी भी। तो फिर इसका नाम मिसेज ब्राउनी कैसे?

तभी एक बात पर उसका ध्यान गया कि ज्यादातर लोगों के नाम यहाँ अजीबोगरीब हैं। कोई मिस्टर एक्स है तो कोई मिस्टर वाई। कोई मिस्टर डब्ल्यू...! काली पैंट, सफेद कमीज वाला जो आदमी उसे कार में बिठाकर लाया था, उसका नाम था मिस्टर डिकी!...यह भी कितना अटपटा नाम है। भारतीयों के ऐसे नाम कहाँ होते हैं! जबकि देखने-भालने में सब यहीं के लगते हैं। बस स्टेशन पर मिले रफीक भाई का नाम ही उसे कुछ ठीक-ठाक लगा। पर ऐसा नाम तो किसी और का है नहीं। यहाँ तो लगता है, किसी भी आदमी का नाम असली नहीं है। जैसे नाम न हों, सिर्फ नाम के ठप्पे हों।

जो भी हो, मिसेज ब्राउनी सचमुच अच्छी थीं और बहुत प्यार से उसे अंग्रेजी बोलना सिखाने लगीं। मिसेज ब्राउनी का अंग्रेजी बोलने का ढंग इतना अच्छा था और वह इतनी अच्छी अंग्रेजी बोलती थीं कि गोलू हैरानी से उन्हें बस देखता ही रह जाता था। उसकी इच्छा होती मिसेज ब्राउनी दिन भर अंग्रेजी बोलती रहें और वह बस सुनता रहे, सुनता रहे।

लेकिन मिसेज ब्राउनी सिर्फ एक घंटा पढ़ाकर चली जाती थीं। घड़ी की सूइयों से बँधा एक घंटा जिसके लिए वह बाकी तेईस घंटे इंतजार करता था।

जो भी पाठ मिसेज ब्राउनी पढ़ाकर जातीं, वह दिन भर उसी का अभ्यास करता रहता और खूब अच्छी तरह याद कर लेता था, ताकि अगले दिन मिसेज ब्राउनी की आँखों में अपने लिए शाबाशी और प्रशंसा के भाव देख सके।

महीने भर में ही गोलू काफी फर्राटे से अंग्रेजी बोलने लगा था। कभी-कभी उसे अपने पर अभिमान भी होने लगता था। सोचता, ‘योग्यता की कोई कमी तो है ही नहीं मुझमें। काश, किसी ने पहले मेरी योग्यता को परखा होता! तो मैं कुछ न कुछ तो ऐसा करके दिखा देता कि...आखिर मैं भी किसी से कम नहीं हूँ।’

लेकिन जब एक महीने के बाद मिस्टर विन पॉल ने खुद बुलाकर उसकी हथेली पर सौ-सौ रुपए के नए-नकोर सत्तर नोट रखे, तो उसकी आँखों में आँसू छलछला आए!

“ये तो ज्यादा हैं, बहुत ज्यादा। मैंने ऐसा किया ही क्या है!” गोलू ने झिझकते हुए कहा।

“नहीं, यह ज्यादा नहीं हैं। तुम्हारी प्रतिभा की यह सही कीमत नहीं है। तुम्हारी प्रतिभा इससे कहीं ज्यादा ऊँची है। तुम अभी जानते ही नहीं हो कि तुम क्या कर सकते हो।” कहकर मिस्टर पॉल हँसे।

फिर बोले, “जाओ, ये नोट सँभालकर अपनी अलमारी में रख लो। उसे लॉक करके रखना। चॉबी तुम्हें मिल गई है न! और भी जिस सामान की जरूरत हो, कहना। मँगवा दिया जाएगा। और हाँ, मिसेज ब्राउनी तुम्हारी बहुत तारीफ कर रही थीं कि तुम बहुत इंटेलिजेंट चैप हो और बिल्कुल अमेरिकन स्टाइल में अंग्रेजी बोलना सीख गए।...गुड ब्वाय! अब जल्दी ही हम तुम्हें काम पर भेजेंगे।...घबराओगे तो नहीं?”

“नहीं, बिल्कुल नहीं।” गोलू ने दृढ़ता से कहा।

“ठीक है, जाओ।” कहकर मिस्टर विन पॉल ने उसके कंधे थपथपा दिए।

फिर अपने कमरे में आकर गोलू अखबार पढ़ने में लीन हो गया। इधर ‘टाइम’ जैसी पत्रिका भी उसे मिलने लगी थी, जिसे पढ़ने में उसे बहुत मजा आता।...सचमुच उसके ज्ञान के अनंत दरवाजे-खिड़कियाँ खुल रही थीं। एक ऐसी दुनिया—एक ऐसी खूबसूरत दुनिया उसे मिलेगी, यह तो कभी उसने सोचा ही नहीं था।

फिर उसे याद आया, कीमतीलाल का होटल जहाँ उसे जूठे बर्तन साफ करने का काम भी नहीं मिला था।

याद आए वे भूख से कुड़मुड़ाते दिन, ठंड से ठिठुरती रातें जब उसरने आखिर कुलीगीरी का काम करने का निर्णय किया था। याद आए मास्टर गिरीशमोहन शर्मा। याद आया रंजीत...याद आए मम्मी-पापा और घर के लोग। और उसके चारों ओर यादों के ऐसे चक्कर पर चक्कर बनने लगे, चीजें इतनी तेजी से घूमने लगीं कि उसकी समझ में नहीं आया कि उसके साथ हो क्या रहा है और क्या होने वाला है!

यह कैसी दुनिया में वह आ गया जहाँ महीना भर तो उसे अंग्रेजी सीखने में ही लगा। और इस अंग्रेजी सीखने की उलटे कीमत मिली—सात हजार रुपए। ऐसी यह अजब-गजब दुनिया है! गोलू को हैरानी हुई। क्या यहाँ आने से पहले मैं इसकी कल्पना भी कर सकता था?

अब जल्दी ही उसे काम पर भेजा जाएगा। कैसा काम...? गोलू कुछ भी सोच नहीं पा रहा था। ओर उसे लगा कि एक काला-डरावना बिंदु उसकी आँख के आगे आकर ठहर गया है।

“घबराओगे तो नहीं?” यह क्यों कह रहे थे मिस्टर विन पॉल।

एक क्षण के लिए गोलू के चेहरे पर सचमुच भय और घबराहट के भाव झलकने लगे। पर जल्दी ही उसने उन्हें परे झटक किया। “ठीक है, देखा जाएगा।” कहकर वह चुटकी बजाने लगा।