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आपका सामान मैं पहुँचा देता हूँ!
रात कोई आठ-नौ बजे का समय। गाड़ी आई तो स्टेशन पर खूब चहल-पहल और भागम-भाग नजर आने लगी।
गोलू ने देखा, प्लेटफार्म पर खादी का कत्थई कुरता, सफेद पाजामा पहने एक अधेड़ आदमी अपने परिवार के साथ कुछ परेशान सा खड़ा था। साथ में दो अटैचियाँ, एक थैला। शायद उसे कुली का इंतजार था।
प्लेटफार्म पर यों तो कुली थे, पर वे दूसरे यात्रियों का सामान उठा रहे थे। इस कोने पर कोई कुली नजर नहीं आ रहा था।
गोलू के भीतर अचानक जैसे हलचल-सी हुई। वह लपककर भद्र लगने वाले उस अधेड़ आदमी के पास गया।
“आपका सामान मैं पहुँचा दूँ अंकल?”
वह आदमी कुछ कहता, इससे पहले ही साथ खड़ी पीली साड़ी वाली औरत ने, जो उसकी पत्नी लग रही थी, चिड़चिड़ी आवाज में पूछा, “पैसे कितने लेगा?”
“कुछ भी दे दीजिएगा।” कहकर गोलू सामान उठाने लगा।
“ना भाई, अभी बोल दे। बाद में झगड़ा होने से पहले बात साफ करना अच्छा है। और सुन, स्टेशन के बाहर थ्री व्हीलर में सामान रखवाना पड़ेगा।” आदमी ने कहा। पर उसकी आवाज में चिड़चिड़ाहट नहीं, मृदुता थी।
“पाँच रुपए...!” काँपती हुई आवाज में गोलू ने कहा।
“चल ठीक है, उठा अब!” और ने फिर चिड़चिड़ी आवाज में कहा।
गोलू ने एक-एक कर दोनों अटैचियों को सिर पर रखा। हाथ में भारी थैले का बोझ।...इतना भार उठाने की उसे आदत तो थी नहीं। इसलिए पैर इधर-उधर पड़ते थे। बीच में दो-एक जगह सहारा लेने के लिए रुका, ठिठका भी।
यह तो भला हो उस आदमी का, जिसने गोलू के मन की हालत समझ ली। खुद आगे आकर थैला उसके हाथ से ले लिया, “ला, इधर दे!”
और जब गोलू ने सारा सामान ठीक-ठाक थ्री-व्हीलर पर रखवा दिया, तो उस आदमी ने दस का नोट गोलू की ओर बढ़ाया।
“टूटे पैसे दे दीजिए!” गोलू ने आग्रह किया।
“रख ले।” उस आदमी की आवाज में नरमी थी।
गोलू ने आँखें उठाकर देखा और चुपचाप अपनी कृतज्ञता प्रकट कर दी।
लेकिन तभी गोलू के भीतर से एक दूसरा गोलू निकला। उस पर व्यंग्य कसता हुआ बोला, ‘वाह गोलू, वाह...! इसीलिए आया था न तू दिल्ली में? तेरा भाई अभी कुछ समय में इंजीनियर बनकर आ जाएगा और तू ऐसे ही पाँच-पाँच रुपए की कमाई करके पक्का कुली हो जाएगा।...वाह-वाह!’
गोलू जैसे अंदर ही अंदर छटपटा उठा।
“कहाँ रहता है तू?...घर कहाँ है तेरा?” वह भला-भला सा आदमी अब पूछ रहा है।
अब तो वाकई रोना निकल आएगा, अगर खुद को रोका नहीं तो! गोलू ने किसी तरह होंठ भींचकर खुद को सँभाला।
“कहीं नहीं...कहीं नहीं है घर! अब तो यह स्टेशन ही मेरा घर है!” गोलू ने बताया।
“क्या तेरे माँ-बाप नहीं हैं?” अब के उस औरत ने पूछा। उसकी आवाज की सख्ती जाने कहाँ लोप हो गई। अब वह नरमी से पूछ रही है।
“नहीं, माता-पिता नहीं हैं।” उसने झटके से गरदन हिला दी है, “मर गए!”
“ओह!” आदमी ने जैसे दुख जताया। फिर कहा, “हमारे घर चलेगा?...घर का काम कर पाएगा?”
“वहाँ काम करना। पढ़ने का मन हो तो पढ़ना।” उस अधेड़ आदमी की ममता अब छलक रही है।
“ठीक है बाबू जी!” गोलू के मुँह से निकला। उसने मन ही मन जैसे ईश्वर को धन्यवाद दिया है।
इसी क्षण आदमी ने औरत की ओर देखा है, औरत ने आदमी की ओर—एक खास मतलब से। जैसे मौन में ही दोनों ने बात कर ली हो। वह बात ‘हाँ’ पर खत्म हुई। फिर गोलू भी सामान के साथ उस थ्री-व्हीलर में समा गया।
रास्ते में वह सोचने लगा—भला क्या काम करना पड़ेगा उसे? परिवार में कौन-कौन होगा?
अगर सिर्फ यही लोग हैं, तब तो काम कुछ ज्यादा न होगा।...उसने फिर से उस परिवार पर गौर किया। वह भद्र आदमी, कुछ भली, कुछ चिड़चिड़ी औरत और दो छोटी बेटियाँ। एक तीन-चार साल की, दूसरी साल-डेढ़ साल की।...
रास्ते में वह औरत गोलू से लगातार उसके बारे में पूछती जा रही थी और गोलू अपने बारे में एक कल्पित कहानी गढ़कर सुनाए जा रहा था। उसे खुद यह अच्छा नहीं लग रहा था, पर वह यह भी जानता था कि अगर इन लोगों को पता चला कि वह घर से भागकर आया है, तो तत्काल काम से छुट्टी!
पता नहीं, क्या-क्या काम करना होगा? वह रास्ते भर यही सोचता आ रहा था। शायद झाड़ू-पोंछा, सफाई वगैरह भी।
‘जो भी हो, कर लूँगा। अगर जीना है तो कुछ न कुछ काम तो करना ही पड़ेगा।’
लेकिन क्या यही काम करने के लिए वह दिल्ली आया है? ऐसे ही पूरा होगा बड़ा आदमी होने का उसका सपना? मम्मी-पापा को अगर उसकी इस हालत का पता चलेगा कि उनका लाड़ला दिल्ली में एक घरेलू नौकर...एक अदद ‘छोटू’ बनकर गुजारा कर रहा है, तो उन पर क्या बीतेगी?...
गोलू ने सोचा तो उसे लगा, उसका सिर भारी होता जा रहा है।