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एक छोटी-सी चिट्ठी
बहरहाल, अगला दिन। एक दुखभरे निर्णय का दिन।
गोलू ने बस्ते में अपनी रखीं तो उसमें कॉपी के पन्ने पर लिखी एक छोटी-सी चिट्ठी भी सरका दी। वह चिट्ठी उसने आज सुबह ही लिखी थी। उस चिट्ठी में लिखा था :
‘आदरणीय मम्मी-पापा,
चरण स्पर्श।
मैं जा रहा हूँ। कहाँ? खुद मुझे पता नहीं। कुछ बनकर लौटूँगा, ताकि आपको इस नालायक बेटे पर शर्म न आए। दोनों बड़ी दीदियों और आशीष भैया को नमस्ते।
—आपका गोलू’
कॉपी के ही एक पन्ने को फाड़कर उसने जल्दी-जल्दी में ये दो-चार सतरें लिख ली थीं। उस चिट्ठी को बस्ते में डालने से पहले उसने एक बार फिर नजर डाली। उसका मन भारी-भारी सा हो गया था, जैसे रुलाई फूटने को हो। चेहरा लाल, एकदम लाल हो गया। उसने मुश्किल से अपने आप पर काबू पाया और चिट्ठी को बैग के अंदर वाले पॉकेट में सरका दिया।
स्कूल जाते समय गोलू का चेहरा इतना उदास था कि जैसे महीनों से बीमार हो। बार-बार उसके मन में एक ही बात आ रही थी। अब यह घर छूटने को है। मम्मी-पापा छूटने को हैं...कुसुम दीदी, सुजाता दीदी, आशीष भैया, सभी! हो सकता है कि अब लौटकर कभी किसी से मिलना न हो। पता नहीं, मेरा क्या बनेगा? पता नहीं, जिऊँगा भी या नहीं?
एक बार तो उसके मन में यह भी आया कि वह बस्ते से निकालकर उस चिट्ठी को फाड़ दे। बस उस चिट्ठी को फाड़ते ही उसकी सारी समस्या हल हो जाएगी। जहाँ तक गणित की बात है, वह सब कुछ छोड़-छाड़कर दो महीने भी कसकर पढ़ाई कर लेगा, तो सारी समस्या सुलझ जाएगी। लेकिन...जो कदम आगे बढ़ चुके हैं, वे अब पीछे कैसे लौटें?
अब तो कुछ बनना ही है। बनकर दिखाना है, जिऊँ चाहे मरूँ! गोलू मन ही मन अपने आपको समझा रहा था।
“गोलू, क्या बात है? आज तू कुछ चुप-चुप सा है!” गोलू के बैग में लंच रखते हुए मम्मी ने एकाएक पूछ लिया।
“नहीं, मम्मी!” कहते-कहते गोलू ने अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया। उसकी आँखें गीली थीं। बड़ी मुश्किल से वह अपने आँसू रोक पाया था।
स्कूल जाकर अपनी बेंच पर बैठा गोलू। तो भी उसकी अजीब-सी हालत थी। आज उसे सब कुछ नया और अजीब-सा लग रहा था। साथ पढ़ने वाले लड़कों के चेहरे भी।
गोलू का मन कह रहा था, ‘आसपास जो कुछ है, उसे अच्छी तरह देख ले गोलू। कल तो यह सब कुछ छूट जाने वाला है।’
*
आधी छुट्टी की घंटी बजी और इसके साथ ही पूरे स्कूल में चहल-पहल छा गई। हर कोई इधर से उधर दौड़ रहा है। जल्दी-जल्दी खाना खत्म करके सबको खेलने के लिए मैदान में जाने की पड़ी है।
एक-दो लड़के क्लास में बैठकर होमवर्क भी निबटा रहे हैं या फिर किसी और की कॉपी से नकल टीपी जा रही है।
गोलू ने इधर-उधर निगाह दौड़ाई। उसके भीतर धुक-धुक, धुक-धुक बढ़ती जा रही है।
उसे याद आया, बैग में मम्मी का रखा हुआ लंच है। क्या मैं इसे खा लूँ या नहीं? उसने जैसे अपने आपसे ही सवाल किया।
‘नहीं, यह लंच मुझसे न खाया जाएगा। जब सब कुछ छूट रहा है तो यह भी सही!’ गोलू के भीतर से जैसे किसी जिद्दी बच्चे ने कहा।
गोलू की जिद अब बढ़ती जा रही है और धुकधुकी भी। स्कूल से बाहर आकर उसने रिक्शा लिया और बस अड्डे की तरफ चल दिया।
बस अड्डे पहुँचकर वह थोड़ी देर इधर-उधर खड़ा ताड़ता रहा और जैसे ही एक बस चलने को हुई। वह चुपके से उस पर सवार हो गया।
जैसे ही वह बस में चढ़ा और सीट ढूँढ़ने के लिए पीछे निगाहें घुमाईं, उसे सामने गोवर्धन चाचा दिखाई दिए। गोलू के पापा के पक्के दोस्त। गोवर्धन चाचा फिरोजाबाद में नौकरी करते थे और कभी-कभी छुट्टी के दिन घर भी आ जाया करते थे।
“क्यों गोलू, कहाँ...?” गोवर्धन चाचा की हैरान आँखें पूछ रही थीं।
“चाचा जी, फिरोजाबाद से साइंस की किताब लानी है।” गोलू ने जवाब दिया।
“अकेले...?”
“हाँ।”
“मुझसे कह दिया होता बेटा!” गोवर्धन चाचा ने लाड़ से कहा।
“कोई बात नहीं चाचा जी। अभी लेकर आ जाऊँगा, जैन बुक डिपो से।”
फिर गोवर्धन चाचा ने कुछ और नहीं कहा। पर लगता था, उन्हें गोलू की बात कुछ अटपटी लगी है।
गोवर्धन चाचा ने गोलू से दो-एक बातें और पूछीं। उसने संक्षिप्त-से जवाब दे दिए और फिरोजाबाद आने से पहले ही बस के गेट के पास आकर खड़ा हो गया।