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विविधा - 42

42-पुलिस, प्रेस, पब्लिक और पार्टियों का रिश्ता

 पिछले कुछ वर्पों में शांति व्यवस्था और कानून के मामलों को लेकर काफी बहस हुई है। अक्सर कहीं पर घटी घ्टना को लेकर पुलिस, प्रेस, जनता और पार्टियां एक दूसरे पर दोपारोपण करती हैं। कहीं पुलिस को दोपी बताया जाता है, कहीं पुलिस प्रेस को जिम्मेदार ठहराती है तो अक्सर जनता और राजनैतिक पार्टियां अपने स्वार्थों के कारण प्रशासन और पुलिस पर बरसती रहती है। इस नाजुक रिश्ते पर बहस तो काफी होती है, मगर कोई ठोस नतीजे नहीं आते हैं, और ये चारों एक दूसरे की टांगें खींचते रहते हैं। 

 अपराधों की रोकथाम में पुलिस की असफलता उस पर लगाने वाला एक बड़ा आरोप है। पुलिस की संरचना, इतिहास और वर्तमान वातावरण का इसमें बहुत बड़ा हाथ है। कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में पुलिस प्रशासन का वर्णन किया है। रामायण-महाभारत आदि ग्रन्थों में भी नगर रक्षकों, गुप्तचरों का वर्णन है। कोटपाल नामक शब्द बाद में कोतवाल हो गया। आईने अकबरी में भी गुप्तचर व्यवस्था का वर्णन है। पुलिस व्यवस्था मराठों ने भी बना रखी थी, लेकिन हमारी आज की पुलिस व्यवस्था, अंग्रेजों की देन है। ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी सुरक्षा और प्रशासन के लिए पुलिसका गठन किया। 1860 में पहला पुलिस आयोग बना। 1861 में भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय पुलिस संहिता लागू किए गए। 1902 में दुसरा पुलिस आयोग बना। अंग्रेजों ने पुलिस प्रणाली को मजबूत बनाया ताकि देसी लोगों पर नियंत्रण किया जा सकें। भय और डर का एक माहौल पैदा किया गया। इसी परंपरा पर पुलिस आज भी चलती जा रही है। 

 स्वाधीनता के बाद भी हमने उसे स्थानाय राजनीति और समस्याओं का एक मोहरा ही बनाए रखा। हमारी राजनैतिक पार्टियों ने अपने निहित स्वार्थ के कारण कार्यपालिका के इस महत्वपूर्ण स्तंभ का पूरा राजनैतिक उपयोग किया। पब्लिक बेचारी पिसती रही और प्रेस ने जब भी आवाज उठाई उसे गैर जिम्मेदार करार दिया गया। पुलिस अत्याचारों से समाचार पत्र भरने लगे। विधानसभाओं और संसद में लगातार पुलिस के बारे में बहसें होने लगीं। नतीजा यह रिश्ता लगातार विवादास्पद होता चला गया। 1970 में गोरे आयोग ने पुलिस प्रशिक्षण की दिशा में सुझाव दिए मगर सिफारिशों में कुछ महत्वपूर्ण कमियां रह गई। लेकिन हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था ही ऐसी है कि इसमें निहित स्वार्थ सहज ही पलते हैं और कानून पालन करने वाले कप्ट पाते है। 

 राजनैतिक दल हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था के आवश्यक अंग है। ये जनता के हितों के लिए चिल्लाते तो है मगर करते कुछ नहीं। ये दल अपने कार्यकर्ता जनता में से चुनते है और ये कार्यकर्ता उम्मीद करते हैं कि उन्हें अतिरिक्त लाभ मिलेगा। इन कार्यकर्ताओं का सीधा संपर्क बड़े नेताओं से होता है, वे साधिकार के साथ पुलिस से अपना कार्य कराते है। यहां पर प्रेस अपना रोप प्रकट करता हे। वह अन्याय के खिलाफ आवाज उठाता है। मगर क्या एक छोटे कस्बे में रहकर वहां के थानेदार या स्थानीय नेता से वैर मोल लिया जा सकता है ? 

पुलिस और प्रशासन को किस प्रकार राजनैतिक दबाव से मुक्त किया जा सकता है और प्रेस व पुलिस की इसमें क्या भूमिका हो सकती है ? क्या विरोध की खुली छाूट दी जानी चाहिए ? हर विवाद के दो पहलू होते है और दोनों ही पहलू शायद अपनी जगह सही होते हैं। शांति और व्यवस्था के लिए पुलिस को पूरे अधिकार दिए जाने चाहिए। मगर पुलिस इन अधिकारों का कार्यपालिका के साथ मिल कर अवैधता की सीमा तक दुरुपयोग करती है। 

 पुलिस की भूमिका के संदर्भ में एक सवाल और उठता है। पुलिस का मूल काम कानून की रक्षा है। कानूनों के संदर्भ में पुलिस की भूमिका का प्रश्न जटिल है। क्या सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक विकास के नाम पर सत्ता पक्ष या राजनैतिक पार्टियों को पुलिस का मनमाना उपयोग करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए ? सभी जानते है कि दहेज, नशा, वैश्यावृति, तस्करी, अश्लील साहित्य, बाल विवाह, मृत्यिु भोज जैसी सामाजिक बुराइयों के लिए कानून है, मगर इन कानूनों की पालना कितनी हो पाती है ? जनता का एक बड़ा वर्ग शायद यह मानता है कि इन सामाजिक बुराइयों से लड़ने में पुलिस का महत्व गौण रहा है। 

 प्रेस प्रजातंत्र का आधार है। शासन और जनता को सतर्क करना उसका कर्तव्य है। पर प्रेस की दृप्टि एकांगी नहीं होनी चाहिए। पुलिस की अपनी सीमाएं है तो प्रेस की अपनी। औसतन एक लाख की आबादी पर 50-60 पुलिस वाले होते हैं। 15-20 लाख की आबादी पर पुलिस अधिक्षक होता है। पुलिस के कांस्टेबिल की जिंदगी बोझ और तनाव की जिंदगी है। पुलिस जवान किन परिस्थितियों में रहते हैं, उनके रहने, खाने, सोने की स्थितियां क्या हैं, कितने सिपाहियों को आवास सुविधा है, क्यों उन्हें 8 घंटे के बजाय 15-20 घंटे काम करना पड़ता है- प्रेस को इन बातों की ओर भी ध्यान देना चाहिए। पुलिस प्रेस की संरचना और दोनों के आपसी रिश्तों की विस्तृत जांच पड़ताल आवश्यक है। प्रेस सच्चाई को ढूंढने की कोशिश करता है। उसे प्रकाश में लाता है और यहीं ये संघर्प शुरु होता है। फिर टकराते हैं राजनैतिक स्वार्थ, पनपता है अविश्वास और कानून व्यवस्था के नाम पर जुल्म ढाया जाता है। पुलिस का काम संविधान के अनुरुप काम करना है। मगर आज पुलिस एक स्वतंत्र इकाई के रुप में काम करने में असमर्थ है। बड़े लोगों की आवभगत, भीड़ और टेफिक नियंत्रण, अंधों पर लाठीचार्ज और आंदोलनों को कुचलना पुलिस के कार्य हो गए हैं। बदलते हुए समाज में पुरानी व्यवस्थाओं, मान्यताओं और परिभापाओं को भी बदलना चाहिए। आज समाज का एक बड़ा तबका भूखा और नंगा है। शोपण, अत्याचार के खिलाफ यह तबका खड़ा है। आंदोलन होते हें। पुलिस कुचलती है और संघर्प शुरु हो जाता हैं। 

 इस देश की मुख्य समस्या अपराधों का राजनैतिकरण है और राजनीति के अपराधीकरण से और ज्यादा मसीबत होती है। हिंसर, आरक्षण, धर्म परिवर्तन, आंदोलन, साम्प्रदायिकता, आदिवासी असंतोप आदि मुद्दे पुलिस और प्रेस दोनों के लिए महत्वपूर्ण हैं। वास्तव में स्वयं प्रेस रक्षक की भूमिका निभा सकती है। हमारे यहां कानूनों की कमी नहीं है। प्रस्तावित सजाएं भी कम नहीं है। मगर कानूनी प्रक्रिया इतनी जटिल है कि उसका कार्यान्वयन नहीं हो पाता। परिणाम, पुलिस की तमाम भागदौड़ बेकार और अपराधी रिहा। राजनैतिक दबाव सर्वोपरि है जो मामलों को लेकर ले-देकर निपटा देता है। 

 यह बात सत्य है कि पुलिस को जनता का विश्वास और सक्रिय सहयोग मिलना चाहिए। प्रेस को पुलिस के साथ-साथ जनता के रिश्ते को समझना चाहिए। पुलिस की दंडात्मक छवि को भी बदलने की कोशिश की जानी चाहिए। प्रेस को विपक्षी की नहीं, लोकतंत्र के चौथे पाए की भूमिका निभानी चाहिए। पुलिस के साथ बिगड़ते रिश्तों की जिम्मेदारी सिर्फ पुलिस की नहीं, राजनीति और प्रेस पर भी है, जो सही समाज व्यवस्था के बदलते तात्कालिक हल निकालने के लिए काम करते रहते हैं। 

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