विविधा - 3 Yashvant Kothari द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

विविधा - 3

3-व्यंग्य -दशा और दिशा

 हिन्दी साहित्य मे लम्बे समय से व्यंग्य लिखा जा रहा है, मगर आज भी व्यंग्य का दर्जा अछूत का ही है, इधर कुछ समय से व्यंग्य के बारे में चला आ रहा मौन टूटा है, और कुछ स्वस्थ किस्म की बहसों की २ाुरूआत हुई है। आज व्यंग्य मनोरंजन से उपर उठकर सार्थक और समर्थ हो गया है। आज व्यंग्य-लेखक को अपने नाम के साथ किसी अजीबोगरीब विशेशण की आवश्यकता नहीं रह गई है। 

 मगर स्थिति अभी इतनी सुखद नहीं है, आज भी कई बार लगता है, व्यंग्यकार छुरी से पानी काट रहा है। आवश्यकता व्यंग्य को समझने की है। बदली हुई परिस्थितियों में साहित्य की अन्य विधाओं की तुलना में व्यंग्य को शायद प्राथमिकता मिले, ऐसी स्थिति में व्यंग्य, और व्यंग्यकारों से यह मुलाकात वातावरण पर छसये कुहरे को दूर करने में मदद देगा। प्रश्नों की झोली में निम्न प्रश्न रखे गये है। 

 व्यंग्य-एक विधा के रूप में कहां तक प्रतिश्ठित हो पाया है ?

 हिन्दी आलोचक, व्यंग्यकार और पाठक के बीच का त्रिकोण ? 

 व्यंग्य की सार्थकता क्या है ? 

 व्यंग्य लेखन अपेक्षाकृत जोखिम का कार्य है, क्या आप सहमत हैं ? 

 यदि हैं तो आप के अनुभव कैसे हैं ? 

 व्यंग्य की शेली, कथानक तथा भविश्य के बारे में आपके विचार? 

 व्यंग्य को मूल रूप में अलग विधा नहीं मानता। इसे अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम कह सकते हैं। इस माध्यम से कविता,कहानी, निबन्ध,नाटक किसी का भी सृजन हो सकता है। 

 व्यंग्य के लेखक और पाठक के बीच एक सीधा रिश्ता होता है। कोई त्रिकोण नहीं। आलोचक इन दोनों से अलग चीज है।

 व्यंग्य की सार्थकता कहानी-कविता आदि से कहीं अधिक है। इसका पैनापन २ाब्दों और कथानक के मोहजाल में न फंसकर सीधा लिो-दिमाग से टकराता है और पाठक के अन्दर एक लहर-सी पैदा करके सोचने पर मजबूर कर देता है।

 मैं व्यंग्य कोई जोखिम नहीं मानता। यदि व्यंग्य के साथ हास्य की हल्की-सी चाशनी हो और किसी विशशे पर सीधा प्रहार न किया जाये, तो व्यंग्य सर्वप्रिय है। मुझे आज तक व्यंग्य से कोई जोखिम नहीं मिला। उल्टे मैं तो यह कहूंगा कि एक कहानिकार तथा नाटककार से भी अधिक मेरे पाठकों ने मुझे व्यंग्यकार के रूप में ग्रहण किया है और अपना स्नेह दिया है। व्यंग्य जोखिम तभी बनता है जब यह किसी व्यक्ति विशेश या सम्प्रदाय पर सीधा कटु प्रहार हो। 

 व्यंग्य की २ौली सीधी ग्गसर हो और कथानक आज के परिवश का आईना हो यही उत्तम है। ठेठ और ठोस भाशा में लिखे गए व्यंग्य एक वर्ग विशेश भले ही ग्रहण करले, पर जनसाधारण की अच्छी प्रतिक्रिया नहीं होती। अतः हम अपने आसपास जो जिन्दगी जद रहे हैं और जिन अभावों से त्रस्त हैं उन्हें सीधे सरल २ाब्दों में लपेट कर पेश करें, यही जरूरी है। 

निशिकांत 

 इस बात से,साहित्य से जरा भी परिचित व्क्ति, इन्कार नहीं कर सकता कि व्यंग्य एक स्वतंत्र विधा ही नहीं, साहित्य की सबसे सशक्त विधा है। एक व्यंग्यकार होने के नाते मैं यह बात पूरे दावे के साथ कह सकता हूं व्यंग्य पूरी तरह से प्रतिश्ठित हो चुका है। कोई जरूरी नहीं कि जब तक कोई नामवर समीक्षक बांग न दे, तब तक व्यंग्य को विधा के रूप में प्रतिश्ठित माना ही न जाए। वैसे परिश्कार तो हर विधा का चलता रहता है। 

 रही बात आलोचक, व्यंग्यकार पाठक के बीच त्रिकोण का तो यही कहा जा सकता है कि व्यंग्यकार के निकट आलोचक से जदा पाठक है। पाठक अब व्यंग्य ज्यादा पसंद करते है, ज्यादा समजते हैं, और चाहते हैं कि व्यंग्य अधिक से अधिक लिखा जाए। मुझे शिकायत पाठकों से नहीं आलोचकों से है। वे या तो व्यंग्य परहेज करते हैं या उसे समझने-बूझने की तेलीफ नहीं उठाते, लिखने की बात तो दूर, अगर कभी लिखना ही पड़ा तो लिख देते हैं-‘लोग व्यंग्य भी लिखने लगे हैं।’ 

 लेकिन इधर यह उदासीनता टूट रही है। कुछ एक शोध ग्रन्थ व्यंग्य पर आए हैं, कुछ अच्छि पत्रिकाओं ने भी बहस शुरू कर दी है। ‘देर आयद, दुरस्त आयद’- चलिए बहस शुरू तो हुई। इससे व्यंग्यकार और आलोचक के बीच की दूरी कम होगी-आज नहीं तो कल।

 व्यंग्य की सार्थकता इसी में कि वह समाज के अंदर की विसंगतियों पर चोट करे, मुखौटों को बेनकाब करें, और लोगों के अंदर तिलमिलाीट पैदा करे। बात यहीं खत्म नहीं हो जाती।व्यंग्य सुधार की ओर भी प्रेरित करता है। जिस रचना में उपर वाले गुण न हों, उसे व्यंग्य की कोटि में नहीं रखा जा सकता। वैसे व्यंग्य सीधा - सादा, सरल और छोटा होना चाहिए, तभी वह असरदार होता है यानी कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक मीठी मार। और यह सब व्यंग्यकार पर निर्भर करता है। जितना ही वह समाज के प्रति सजग रहेगा, उसका व्यंग्य उतना ही सजग होगा। 

 मैं आपकी इस बात से पूरी तरह से सहमत हूं कि व्यंग्य लेखक जोखिम का काम है- क्योंकि व्यंग्यकार किसी का लिहाज नहीं करता। यहीं लिहाज नकरना उसके व्यक्ति के लिए नुकसानायक हो सकता है। वैसे अगर वह लिहाज करे तो व्यंग्य क्या लिखेगा ? अमुक अगर, मेरे निकट हैं तो उसका मतलब यह नहीं कि मैं उनके दोहरेपन पर चोट न करूं ? जोखिम तो है ही। फिर जोखिम के बिना मजा ही क्या है? दो-चार लोग गालियां दें, कुढ़ें और कहें कि ‘यह क्या लिख डाला?’ तो मुझे खुशी होती है कि मैं जो कुछ कहना चाहता था, ठीक से कह पाया हूं। 

 अपना व्क्तिगत अनुभव बस यही है कि कुछेक लोगों की नाराजगी जबानी सहनी पड़ी है। 

 व्यंग्य की शैली, कथानक तथा शिल्प में विविधता है। हर व्यंग्यकार की शैली अलग होती है। एक ही कथानक पर कई लोग, कई ढंग से लिखेंगे और कई बातें कह जायेंगे।आज का व्यंग्यकार नए से नए कथ्य को लेकर चल रहा है, वह पुरने प्रतीकों के माध्यम से नई विदूपताओं पर चोट कर रहा है। कहानी, कविता में इतने प्रयोग नहीं हुए हैं, जितने कि व्यंग्य में। वैसे यह प्रश्न आचार्यो के लिए है। मैं तो मात्र एक अदना-सा व्यंग्यकार हूं, क्या कहूं? छोटे मुंह बड़ी बात करने का इस समय मूड नहीं है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि मैं आचार्यो के आचार्यतव से त्रस्त हूं। 

 श्री कांत चौधरी

 व्यंग्य एक विधा के रूप में कहां तक प्रतिश्ठित हो पाया है, इसका निर्णायक उत्तर कम से कम एक व्यंग्य लेखक को देना मुश्किल है, क्योंकि वगैर इसकी चिंता किये कि मूर्धन्य समीक्षक, संपादक और लेयाक इसे विधा मान रहे हैं या नहीं, अपने लेखन 

की ईमानदारी निभाते जाना ही नये लेखक का धर्म है और यही उसके लिए श्रेयस्कर भी है, अन्यथा आज कल लेखक ही समीक्षक होने लगे हैं, शेश समीक्षक उपन्यासों, कहानियों, नाटकों और कविताओं के लिए टेंडर भरे बैठे हैं। बकौलकृ4 ग्परसाई जी, व्यंग्य में समीक्षेकों के पास समीक्षा की भाशा का अभाव है, और यह कथन सच है क्योंकि व्यंग्य के वजनदार हस्ताक्षरों की उपेक्षा कठिन जान पड़ने की त्रासदी ढोने से बचने के लिए कुछ समीक्षकों ने व्यंग्य को कहानी मानकर बाकायदा समीक्षा की है। मेरी विनम्र राय है कि व्यंग्य-विधा के रास्ते पर है, व्यंग्य की उपेक्षा, व्यंग्य पर तत्संबंधी विवाद इसका प्रमाण है और वैसे भी समीक्षा के नये मापदंडों पर ही इस विधा का निर्धारण होगा इस की जा सकती । मैंतो नहीं कर रहा। 

 आलोचक, खासकर व्यंग्य का है ही कहां ? व्यंग्यकार का सीधा रिस्ता और सबसे गहरा भी पाठक से ही है। इस सामान्य पाठक से जो अपने समय के सारे आर्थिक, नैतिक, सामाजिक और धार्मिक-घात-प्रतिघात को झेलता है। विस्फोट सिद्ध करना भर है। शूद्र- व्यंग्य के दिन फिरें। 

 व्यंग्य की सार्थकता का सवाल तो ऐसा ही है कि मरीजों की दुनियां में सर्जन की सार्थकता क्या है ? अब तो व्यंग्य मात्र ही ऐसी कड़वी औश्धि है जो व्यवस्था और व्यक्ति की सड़ांध और आडंबर को अपने तेजाब से गलाने में सीधे प्रयुक्त होती कई लोगों को तो इस बात का बड़ा सदमा है कि व्यंग्य में गीता और बाईबल के से शाश्वत् मूल्यें का अभाव है। 

 अन्य विधाओं के मुलाकाले तो व्यंग्य लेख्,ान निश्चय ही जोखिम का काम है। गत वर्श में परसाई जी तेंदुलकर जा आदि पर फासिस्ट मनोवृति के लोगों द्वारा किए गए हमले इसका बहुत बड़ा प्रमाण है। इस युग में सच बोलने से अधिक जोखिम भरा कार्य दूसरा है भी कौन-सा ? गनीमत है कि यहां के लोग साहित्य के मामले में अभी भी नौसिखिये हैं और मोटी चमड़ी से लैस हैं फिर भी कुछ गैरत वाले निकल ही आते हैं, पर वे इतने भले मानुश हैं कि मुझे पीटकर मेरा व्यंग्य लेखन अथवा मुझे ‘ ऑफ बीट’ नहीं होने देना चाहते। 

व्यंग्य की शैली, कथानक या शिल्प पर भला मैं नया खिलाड़ी क्यय कहूं ? हां, इतना जरूर है कि व्यंग्य में २शैली के कारण लेखक अपनी अलग पहचान बनाने में सफल हो जाता है। श्री परसाई, शरद जोशी, श्री लाल शुक्ल, रवरद्र नाथ त्यागी, राधाकृश्ण, फिक्र तौंसवी आदि अनेक व्यंग्यकार इसके अच्छे उदाहरण है। कहानी या कविता की तरह व्यंग्य में भी नये प्रयोग की काफी गुंजाइश हैं? लेनि कार्य और कारण की परख और वैज्ञानिक बुद्धि से सम्मन्न दृश्टि और सामर्थ्य मेरे ख्याल से अच्छे उंचे व्यंग्य की पहली २शर्त है। सच बात तो यह है कि इन सब बातो के लिए अभी कुछ और समय अपेक्षित है।  

000