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विविधा - 8

8-मेरे नाटक व्यवस्था विरोधी हैं।

मणि मधुकर 

मणि मधुकर एक नाम जो हमेशा चर्चित और विवादास्पद रहा। हर विधा में लिखा। खूब लिखा। खूब पुरस्कृत हुए। 1942 में राज्स्थान में जन्में। 1995 में दिल्ली में दिवंगत हुए। इस बीच नाटक, उपन्यास, कविताएं, कहानियां जमकर लिखें छपे। 1982 में मेरी उनकी बातचीत इस प्रकार हुई-

 आपकी प्रिय विधा कौन -सी है ?

 मेरे सामने असली मुद्दा हमेशा यह रहा है कि मैं कहना क्या चाहता हूं विधा का खयाल बाद में आया है ओर जब आया है तो मैंने चाहा है कि जहां तक हो सके ‘उस’ विधा की रचनात्मक गहराइयों तक पहुंचूं, तल को पहचानने की कोशिश करूं और फिर पूरी तरह उसे ‘एक्सप्लायट’ करूं। इसी बुनावट के दौरान शिल्प तय होता है, भाशा एक रूख अख्तियार करती है और उनके अन्तर्जीवन में मेरा वह कथन और प्रयोजन होता है, जिसे मैं पाठक के सामने स्पश्ट करना चाहता हूं। विधा एक रास्ता है, जिससे हो कर आप गन्तव्य पाते हैं। और मुझे तो वे तमाम रास्ते प्रिय हैं जिन पर चलकर मैं अपने भीतर की दुनियां से बाहर की दुनियां से जुड़ता हूं। यह जुड़ना ही मेरे होने को एक सार्थकता से भरता है। 

 नाटकों का शौक कब से लगा ? अपने नाटकों के बारे में बताइयें ?

 नाटक में शुरू से ही मेरी दिलचस्पी रही है। जब छात्र था, तो एक अच्छे अभिनेता के रूप में आसपास मेरी एक पहचान थी। इसी दौर में, मैंने यहां-वहां की लाइब्रेरी में रंगमंच से संबंधित किताबें पढ़ीं। निर्देशन का शैक लगा और उसे कतिपय प्रयोगों के माध्यम से पूरा किया। गर्मी की छुट्टियों में राज्स्थान के ‘ख्यालों ’ का संकलन करता था, उन्हें मंचित होते देखता था, उनके कलाकारों के रू-ब-रू बैठकर बतियाता था। इसी बिन्दु पर, मन में एक निर्णय लिया कि पारंपरिक लांकमंच और आधुनिक रंगकर्म को एक जमीन पर खड़ा करना है। जब अपना पहला नाटक ‘रसगन्धर्व ’ लिख रहा था तो यह आकांक्षा बहुत तीव्र थी। इालिए संभवतः मैं यक्षगान और ‘ख्याल ’ के सांगीतिक शिल्प को अपने समय की भावभूमि पर प्रतिश्ठित कर सका। इससे एक नयी बात पैदा हुई और सभी तरफ ‘रसगन्धर्व ’ को व्यापक प्रशंसा मिली। प्रकाशन से पूर्व ही नाटक मराठी, कन्नड़ और बंगला में अनूदित होकर खेला गया। आज तो खैर, यह कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी है-एक प्रयोगधर्मी समकालीन नाटक के रूप में। 

 ‘ रसगन्धर्व ’ के बाद मैंने राजस्थान के कुचामणी, सुरध्याणीआदि ख्यालों को नये धरातल पर रंगविधान देना चाहा और ‘ बुलबुल सराय ’, ‘खेला पोलमपुर ’ और ‘ दुलारी बाई ’ जैसे नाटक लिखे। मैंने देखा की यदि सधे हुए हाथों काइस्तेमाल किया जाये तो पारसी थियेटर में भी कुछ संभावनाएं हैं- ‘दुलारी बाई’ में मैंने उसे अपनाया। नतिजा अच्छा निकला। आज ‘दुलारी बाई ’शायद हिन्दी का एकमात्र आधुनिक नाटक हैजिसके पांच हजार से भी अधिक प्रदर्शन हो चुके हैं- विभिन्न भारतीय भाशाओं में। 

 प्रयोग करते हुए अक्सर लोग डरते हैं या हिचकिचाते हैं। ऐसा माध्यम को ठीक ठीक न समझ पाने के कारण भी होता है। यदि आपकी ‘पकड़’अच्छी है तो घबराने की कोइ्र वजह नहीं। हमारे सामने यह साफ होना चाहिए कि हमें कहां जाना है, किस तरह से जाना है?

 कृतज्ञ हूं कि आपको ‘इकतारे की आंख’ अच्छा लगा। मैंने इसमें कबिर को ‘वातावरण’ के रूप में देखा है’, व्यक्ति के रूप में नहीं। इस नाटक के अनेक प्रदर्शन हुए हैं, किन्तु हर बार मुझे लगा है कि हमारे मौजूद निर्देशक एक बंधे-बंधाये ढ़ाचे से बाहर निकलते हुए कतराते हैं। अलबत्ता, पूना के राकेश आनंद थियेटर का मंचन मुझे कई स्तरों पर संतोशजनक प्रतीत हुआं 

 आपकी रचनाओं में ‘काम-संबंधों’ का विशद वर्णन होता है क्यों? 

 काम-संबंधों से जो नक्शा बनता है, मैं उसे समूची दुनिया का वास्तविक नक्शा मानता हूं- बाकी सब झूठे और दिखावटी हैं। किसी भी मनुश्य को उसके यौन-आचरण से ही सही समझा जा सकता है। यदि वह पुरूश है तो देखना होगा कि स्त्री के साथ किस तरह पेश आता है। और अगर वह स्त्री है तो इाकी पड़ताल जरूरी होगी कि पुरूश को वह कैसे ग्रहण करती है। आप इस सच्चाई पर बारीकी से सोचिए। हिटलर ‘ फासिस्ट ’ था और चेग्वारा ‘ कम्युनिस्ट ’-किन्तु ये दोंनो बातें जितनी उनके यौन-आचरण से प्रमाणित होती हैं, उतनी अन्या किसी चीज से नहीं। उनकी जिन्दगी में आयी हुई स्त्रियों ने जो संस्मरण लिखे हैं, वे आंखें खोलने वाले हैं। इसलिए मैंने कई दफा स्त्री पुरूश संबंधों के चित्रण को ‘ एक वैचारिक आधार के प्रतिपादन’ के लिए आवश्यक मान कर चुना है। 

 आपके नाटक का मूल स्वर क्या है ? 

 मेरे तमाम नाटक व्यवस्था-विरोध और एक स्पश्ट परिवर्तन की कामना वाले नाटक हैं। जाहिर है कि सत्ता को, चाहे वह किसी भी दल की हो, ऐसा नाटककार आंख की किरकिरी लगता है। पग पग पर इन खतरों को झेलना मेरी नियति हैै किन्तु यह भी सही है कि अब मेरा एक विशाल पाठक वर्ग है, दर्शक वर्ग है-और उसका नैतिक समर्थन मुझे हमेशा बल देता है। 

 हिन्दी मे अच्छे नाटककारों की कमी क्यों है ? 

 हिन्दी में अच्छे नाटककार गिने चुने हैं। एक अच्छा नाटककार होने की पहली और अनिवार्य शर्त है-रंगकर्म का व्यवहारिक ज्ञान। इस ‘ज्ञान’ को हासिल करते रहने का मतलब है, बराबर कुछ सीखने की ‘ललक’ को जगाये रखना। हिन्दी के नये लेखक मेहनत से बचना चाहते हैं और जो प्रसिद्ध हो चुके हैं अन्य विधाओं में, उनकी कुद सीखने की ललक बुझ गयी है। इसी वजह से एक ‘वेक्यूअम’ हैं 

 विदेशों में हिन्दी साहित्य की स्थिति कमजोर क्यों है ? 

 दुनिया के दूसरे मुल्कों में हिन्दी साहित्य लगभग‘न’ के बराबर उपलब्ध है। बढ़िया अनुवादों की कमी है। इसलिए वहां के आम आदमी या साहित्यकार के लिए तो ज्यादा कुछ सोचने की स्थिति ही नहीं है। किन्तु मुझे उम्मीद है कि धीरे धीरे कायदे के अनुवाद होंगे ओर एक अच्छी ‘इमेज’ बन सकेगी, हिन्दी साहित्य की। 

  बाहर के कुछ विशिश्ट प्रकाशन-संस्थानों और पत्रिकाओं ने जिस ढंग से अब काम करना आरंभ किया है, उससे लगता है कि इसी दशक में हिन्दी साहित्य का एक सही चित्र विदेशी पाठकों को मिल सकेगा।

 अलग अलग विधाओं में लिखते हुए कैसा अनुभव करते हैं ? 

 जैसा कि मैंने कहा है, अलग अलग विधाओं से मुझे एक किस्म का ‘आंतरिक’ रचनात्मक सहयोग मिलता हे। यह टुकड़ों में बंटने की बजाय एक ‘सम्पूर्णता’ को अर्जित करने का अहसास हैं 

 क्या आपका कवि गद्य रचनाओं पर हावी है ? 

 सिर्फ कहानी और उपन्यास ही क्यों, मेरे नाटक भी मेरा काव्य -संवेदना के अंग हैं। सदियों पहले, प्रख्यात फ्रेंच आलोचक ज्सासुंआ देगातों ने कहा था कि अच्छे और अर्थपूर्ण गद्य लिखने वाले के लिए यह जरूरी हे कि वह कवि भी हो। कविता भाशा की प्रकृति को विविध आयाम देती है।.... यह कथन, कदाचित् मुझे अपने पक्ष के मजबूत होने का आश्वासन देता हैं लेकिन मैं सभी विधाओं का ‘ऋणी’ हूं। मेरे नाटकों ओर मेरी कहानियों ने, मेरी कविता को भी बहुत-कुछ दिया हें अगर कोई्र गौर करे तो यह बात साफ नजर आती हें 

 आपके उपन्यास ‘मेरी स्त्रियां’ काफी चर्चित रहा, क्यों ? 

 ‘मेरी स्त्रियां’ की इधर जरूरत से ज्यादा चर्चा है और आपने भी मेरे अन्य उपन्यासों के बीच इसी का उल्लेख किया है। यह उपन्यास एक प्रयोग हें मैं कोई लम्बी-चौड़ी व्याख्या नहीं करूंगा। ऐसा करना मुझे सुहाता भी नहीं। किन्तु इतना कहना चाहूंगा कि ‘ मरि स्त्रियां ’ का एक स्पश्ट जीवन-दर्शन है, जिसमें सौंदर्यबोध की बुनियादी चीजों से लेकर क्रांति की चिंतना तक एक पगडंडी बनी है। इसमें जो ‘लेखक’ है-वह पत्रकारिता, चित्रकला, संगीत आदि दूसरी ‘स्थितियों’ से सम्बद्ध है और प्रत्यक्षतः ‘एक बुद्धिजीवी-वर्ग ’ का प्रतिनिधि है। .... मुझे खुशी है कि पाठकों की एक बड़ी बिरादरी ने इस छोटे से उपन्यास को लेकर मुझे सैकड़ों पत्र लिखे हैं और अपना मत जताया हैं 

इतना चर्चित । पुरस्कृत होने के बाद कैसा लगता हे ? 

चर्चित होना, पुरस्कृत और सम्मानित होना किसी भी रचनाकार के लिए घातक और मारक शस्त्र हैं। इन २शस्त्रों का एक उपरी ‘ ग्लैमर’ होता है और वह सबको दिखायी देता है, किन्तु इनकी ‘मार’ सिर्फ लेखक को महसूस होती है। वही उसे भोगता है। मेरी मानसिकता का अन्दाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि हर पुरस्कार-सम्मान के बाद मैं कई दिनों तक अस्वस्थ रहा हूं .... एक लेखक को ‘ग्लैमर’ की गिरफत में आने से बचना चाहिए। ग्लैमर को जीना मृत्यु की यंत्रणा से भी अधिक भयंकर होता है। चर्चा-प्रशंसा हमारे व्यक्तित्व के जो सर्जनात्मक अंश काट कर ले जाती है, उन्हें फिर कभी लौटाती नहीं हे। 

 

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