41-आदिवासी असंतोप: कारण-निवारण
आदिवासी-चार अक्षरों का एक छोटा सा नाम, लेकिन सामाजिक व्यवहार के रुप में अनेक समुदाय, जातियां और किस्मों में बंटा संसार। और इस संसार की अपनी समस्याएं, अपना परिवेश, अपने रीतिरिवाज। सामान्यतः शांत और सरल, लेकिन विद्रोह का नगाड़ा बजते ही पूरा समूह सम्पूर्ण प्रगतिशील शहररियों के लिए एक ऐसी चुनौती, जिसे सह पाना लगभग असंभव। एक चिंगारी जो कभी भी आग बनकर सबको लपेटने की क्षमता रखती है।
आदिवासियों के उपयुक्त संबंधों, रंगबिरंगी पोशाकों, संगीत, नृत्य और संस्कृति के बारे में हमारी अपनी कल्पनाएं हैं। हम उन्हें पिछड़ा, असभ्य, गंदा और गैर-आधुनिक न जाने क्या-क्या कहते हैं।
अंग्रेजी राज ने भारतीय आदिवासियों को दूसरे दर्जे का नागरिक समझा।जिसके अन्तर्गत उनके जीवन, संस्कृति और सामाजिक संसार को बाकी दुनिया से अलग- अलग रख कर उसे अध्ययन और कौतुहल का विपय बना दिया गया है। लेकिन भारतीय समाज में अंग्रेजों को पहली चुनौती सन् 11825-30 में भीलों ने दी और बाद में 1855-56 में संस्थलों ने अंग्रेजों के छक्के छड़ा दिए।
आजादी के बाद हमारे इस नजरिए में परिवतैन आए। पं. नेहरु ने आदिवासियों से पूर्णतया अलगाव के बजाय उनसे सम्पर्क रखने का सिलसिला बनाया। संविधान में उनके लिए विशेप सुविधाएं रखी गई। लेकिन इन प्रशासनिक प्रयासों के बावजूद आदिवासी अलग-थलग रहा और चतुर महाजन इनका शोपण और उत्पीड़न करते रहे।
लगभग 10 करोड़ आदिवासी इस देश के विभिन्न राज्यों में बिखरे पड़े हैं। मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, उड़ीसा, केरल आदि इलाकों में आदिवासियों की बहुत संख्या है। पिछले कुछ वर्पों से आदिवासियों के प्रति एक नई चेतना का विकास हुआ है। प्रधानमंत्री के दौरों से भी इनमें एक लहर आई है।
वास्तव में आदिवासियों की इस दुखद स्थिति का प्रमुख कारण उनका गरीब होना है, इस आर्थिक पिछड़ेपन के साथ-साथ वे सामाजिक सांस्कृतिक रुप से भी अलग हैं। पूरे देश का आदिवासी समुदाय एक सामाजिक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। इसके कारण आदिवासियों में अलगाव और मुख्य धारा से अलग रहने की प्रवृति का विकास हो रहा है। शोपण, असंतोप, गरीबी और सामाजिक बदलाव के कारण आज आदिवासी स्वयं को उद्वेलित और असंतुप्ट महसूस करता है।
आदिवासी असंतोप के प्रमुख कारण आर्थिक और सामाजिक हैं। ईसाई मिशनरियों तथा धर्म परिवर्तन की घटनाएं भी एक कारण है। जब-जब बाहरी लोगों ने इनके जीवन और जीवन पद्धति तथा इनकी परम्पराओं में घुसपैठ की, इन आदिवासियों ने हथियार उठा लिए। जब-जब इनका दमन और शोपण हुआ, ये चुप नहीं रहे, इनकी मजबूरियों का फायदा उठाने की हर कोशिश का उन्होंने विरोध किया है। आदिवासी आंदोलनों की पृप्ठभूमि को देखना, समझना एक उचित आधार होगा।
वास्तव में आदिवासी आंदोलन अंग्रेजों के जमाने से काफी पहले से चल रहे हैं। मुगल शासनकाल से औरंगजेब ने जब धर्म परिवर्तन और जजिया कर चलाया तो इन आदिवासियों ने इसका विरोध किया।
सन्1817 में भीलों ने खान देश पर आक्रमण किया। यह आंदोलन 1825 में सतारा और 1831 में मालवा तक चला गया। 1846 में जाकर अंग्रेज इस विद्रोह पर काबू पा सके। इस पराजय से भीलों में चेतना जागी और वे हिन्दुओं की तरह रहने लगे और इसी दौरान भीलों में धार्मिक आंदोलन शुरु हुए। डूंगरपुर से ललोठिया तथा बांसवाड़ा, पंचमहाल ‘गुजरात’ में गोविंद गिरी ने धार्मिक आंदोलन चलाए। 1812 में गोविंद गिरी को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया।
वास्तव में भीलों की आजीविका का मुख्य साधन कृपि था और भूमि पर साहुकारों व्यापारियों ने कब्जा कर लिया। वनों की लगातार अंधाधुंध कटाई के कारण वनों पर आश्रित वनवासी, गिरिजन और अन्य समुदायों के आदिवासियों को खाने के भी लाले पड़ गए।
इन्हीं कारणों से लगातार आदिवासी आंदोलन होने लगे। उडी़सा से ‘मल का गिरी’ का कोया विद्रोह 11879-80 में हुआ। फूलबाने का खांडे विद्रोह‘1850’ में तथा साओरा का विद्रोह ‘1890-1940’ में हुआ। ये विद्रोह आर्थिक शोपण के कारण हुए।
सन् 1853 में संथाल-विद्रोह हुआ। 1895 में मुंडा विद्रोह हुआ। 1994 में उंरावों का ताना-भगत विद्रोह हुआ। मिजो आंदोलन लंबे समय तक चला और लालडेंगा मुख्यमंत्री बने।
पिछले डेढ़ सौ वर्पों के आदिवासी असंतोप और व्यग्रता से पता चलता है कि अभि भी आदिवासी अपने हकों के लिए लड़ रहे हैं।
वास्तव में शासन के विरुद्ध आदिवासियों की लड़ाई शासक और शासित की लड़ाई है, जिसमें बेचारा शासित और दब जाता है। उसके उपर और दुखों का पहाड़ आ जाता है। शासन को आदिवासियों के बारे में विवेकशील जानकरी हो और वे आदिवासियों के प्रति संवेदनशील रहे तो आदिवासियों को समझने में आसानी होगी।
प्रारम्भ में ही आदिवासियों के साथ ष्शोपण की प्रकृति तथा सौतेला व्यवहार हुआ है इसी बात को मुद्दा बनाकर अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग आंदोलन पृथक राज्यों की मांग को लेकर लंबे समय तक चलते रहे। छोटा नागपुर ‘बिहार’, संथाल, आदिलबाद ‘आंध्र प्रदेश’ आदि ऐसे ही स्थल थे।
महाजनी चक्र के कारण आदिवासियों, मजदूरों, खेतिहरों का शोपण लंबे समय से होता आया हे। गरीबी और मजबूरी का मारा आदिवासी बनिये के पास जाता है और अपना शोपण कराता है। आज कल आदिवासियों में खुद एक तबका बन रहा है, जो महाजनों की तरह ही अपने समाज का शोपण कर रहा है और स्वयं महाजन बन बैठा है।
अकाल, बाढ़, बीमारी, चिकित्सा आदि ऐसे तात्कालिक कारण होते हैं, जब आदिवासी को महाजनों की शरण में जाना पड़ता है, या ईसाई मिशनरियों के पास धर्म परिवर्तन कराना होता है।
आदिवासियों से व्याप्त असंतोप, विद्रोह या आंदोलनों के तथा उनकी समस्याओं को समझने और सुलझाने के लिए हमें हमारे नजरिए में परिवर्तन करना होगा। उन्हें उपेक्षित, बेसहारा और मजबूर समझने के बजाय एन्हें हम में से एक समझना होगा।
उन्हें राप्टीय धारा से जोड़ने के लिए उनकी भापा, उनके रीति रिवाज, उनके रहन-सहन, उनकी संस्कृति, उनकी पद्धति को समझना होगा। उनकी सामाजिक बनावट का व्यापक और समग्र अध्ययन किया जाना उचित होगा।
आदिवासियों को केवल केलेंडर या उन्मुक्त सेक्स के रंगीन चश्मे से देखना बंद करना होगा।
उन्हें देखने, समझने और परखने के लिए हमें अपनी आंखों पर लगे चश्मे के नम्बर बदलने होंगे। अंधविश्वास या पूर्वाग्रहों की दीवारों को तोड़ कर जो प्रकाश आएगा, उसमें ये आदिवासी हमें हमारी जमीन से जोड़ेंगे।
आर्थिक शोपण, सामाजिक शोपण, वनों की कटाई और खेती को महाजनी सभ्यताओं से मुक्त कराने से ही आदिवासियों की काफी समस्याओं का हल हो सकता है और वे हमारी मुख्य धारा में जुड़कर राप्टीय विकास में योगदान देसकते हैं, क्योंकि उनके पास लोक साहित्य, लोक चिकित्सा और लोक कलाओं का एक सम्पन्न और समग्र संसार है।
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