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तन्हाई

"वीकेंड में कुछ जरूरी काम नहीं तो चलो कहीं घूमने!" मधु ने अपनी सहेलियों से पूछा।
"अरे नहीं यार ! बच्चे पिछले कई दिनों से पीछे पड़े हैं कहीं बाहर ले जाने के लिए। कल उनके साथ ही मॉल जाने का प्रोग्राम है।"
"मुझे भी सिस्टर के यहां लंच पर जाना है। बहुत दिनों से बुला रही थी!"
"और मेरे तो पतिदेव ने बच्चों को 2 दिन के लिए बुआ के घर भेज दिया है। अकेले में कुछ समय बिताना चाहते हैं वह मेरे साथ!" सुधा हंसते हुए बोली।
"फिर देखते हैं कभी!! " कह सभी दूसरी बातों में व्यस्त हो गए।
ऑफिस से घर पहुंचते-पहुंचते मधु को 8:00 बज गए। दरवाजा खोल उसने लाइट जलाई ।
आज काम से बहुत थक गई थी। चाय पीने का बहुत मन था लेकिन थकावट के कारण बनाने का नहीं!
घर में नजर दौड़ाई। सब कुछ वैसा ही था जैसे सुबह छोड़ कर गई थी। करीने से सजा। वैसे भी अब बिखेरनेवाला कौन था वहां!
पहले जब वह ऑफिस से आती तो नन्हे रिहान के कारण घर बिखरा हुआ मिलता।
उसके ऑफिस से आते ही कैसे उससे लिपट जाता था वो लेकिन वह उसे प्यार करने की बजाय उल्टा डांटना शुरू कर देती।
"अरे, क्यों डांट रही हो बहू इसको! सुबह की गई। शाम को मिलती है तू इसे!"
"मांजी घूमने तो जाती नहीं। काम करती हूं वहां। थक जाती हूं। ऊपर से यह! आते ही दिमाग खाना शुरु कर देता है।"
"बहू 3 साल का ही तो है । इसे कहा समझ। बस दो प्यार के बोल बोल लेंगी तो इसका मन बहल जाएगा।"
" मांजी, पहले में शांति से दो घूंट चाय के पी लूं।।"
" क्यों इतना चिड़चिड़ी रहती हो। किसी से तो सीधा मुंह बात किया करो। नौकरी करने का फैसला तुम्हारा ही था। मैंने तो मना किया था जरूरत नहीं लेकिन नहीं तुम्हें तो अपनी पहचान चाहिए थी फिर अब!!"
" मैं चिड़चिड़ी रहती हूं और तुम और तुम्हारी मां तो हमेशा फूल बरसाते हो! घर में रहूं । बच्चे पालूं !! चौका झाड़ू करूं!! तुम्हारी मां की चार बातें चुपचाप सुनूं! यही चाहते हो तुम लेकिन इस गलतफहमी में मत रहना।"
" मधु, खाने पीने से लेकर हमारे बच्चे की जिम्मेदारी भी मां उठा रही है और घर के बाकी काम कामवाली कर जाती है और क्या चाहिए तुम्हें!!!
" तन्हाई के दो पल चाहिए मुझे!! शांति से जीना चाहती हूं
मैं । बच्चे की मुझे नहीं तुम्हें और तुम्हारी मां को जल्दी थी तो पालो!!! उठाओ जिम्मेदारी!!!"
एक नहीं हर दिन की कहानी हो गई थी यह! पांच साल बाद आखिर तलाक के रूप में इस रिश्ते का अंत हुआ।
विवेक ने बच्चे की जिम्मेदारी खुद उठाने की बात कही। उसने खुशी खुशी हामी भर दी। वह तो हर जिम्मेदारी से मुक्त हो केवल अपने लिए जीना चाहती थी।
शुरुआती कुछ सालों में वह सफलता के पायदान चढ़ती रही और अपनी आजादी भरे जीवन का जश्न मनाती रही लेकिन धीरे-धीरे यह खुशियां बेमानी लगने लगी थी उसे।
उसके सभी साथी अपने परिवार के साथ अपनी खुशियां साझा करते और वह!!! वह अपनी तन्हाई के साथ!!!
पहले घर परिवार बच्चों के होते हुए भी तन्हाई के लम्हे ढूंढती थी और अब तन्हाई से उसका ऐसा अटूट नाता बंध गया की भीड़ में भी केवल उसकी तन्हाई उसके साथ रहती। पीछा छुड़ाना चाहती थी इस तन्हाई से लेकिन नहीं!! उसी ने तो इसे चुना था।
गैस पर चढ़ी जाए के उबाल के साथ उसकी तंद्रा टूटी।
हाथ में चाय का प्याला ले वह अपनी तन्हाई के साथ चाय के घूंट भरने लगी।
सरोज ✍️


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