34-बिन बचपन सब सून !
वाल्ट ह्विटमैन की प्रसिद्ध कविता ‘एक था बच्चा’ के निम्न अंश हमारे देश के बच्चों पर बहुत सटीक लगते हैं.....
तुम जो कोई भी हो. मुझे डर है कि. तुम स्वप्न में चल रहे हो
वे तथाकथित यथार्थ. तुम्हारे हाथ-पांव के नीचे से फिसल जायेंगे।
अभी भी तुम्हारे चेहरे. तुम्हारी. खुशियों. भापा. मकान.
व्यवसाय. व्यवहार. वेदनाएं. वेशभूपा. गुनाह. धुंधबन कर
उड़ते जा रहे हैं. तुम्हारी सच्ची आत्मा. तुम्हारी सच्ची काया.
मेरे सामने प्रकट हो रही है. तुम्हारी सारी दुनियादारी से अलग
हो गया है. रोजगार. धन्धा. दुकान. नियम. विज्ञान. काम-धाम.
कपड़े. मकान. दवादारु. खरीदना. बेचना. खाना-पीना. झेलनामरना-
सबसे निस्संग !
तुम जो कोई भी हो,
अब मैं अपना हाथ तुम पर
रखता हूं कि तुम मेरी कविता
बन जाओ।
आज भी हमारे देश की नई पीढ़ी के बच्चे बचपन विहीन जीवन जीने को मजबूर हैं।
सुबह उठ कर आंगन में छोटी गीता को बर्तन साफ करते देखता हूं तो आंखे भर आती हैं। गीता की उम्र बर्तन धोने की नहीं स्कूल जाने की हैं। आंखमिचोनी खेलने की है मम्मी-पापा से बाल-सुलभ बातें करने की हैं। लेकिन गीता सर्दी-बरसात या गर्मी की परवाह किये बिना जिन्दगी की गर्म हवाओं में सांस लेने की अभ्यासी बन गयी है।
आपका या मेरा बच्चा अगर जुकाम से पीड़ित हो जाता है तो घर भर की नींद हराम हो जाती है।
सोने से पहले अगर बच्चे ने दूध पूरा नहीं पिया तो मम्मी कल डाक्टर को फोन करने की तैयारी करती है। बाबा वैद्य-हकीम की तरफ दौड़ते हैं लेकिन उन बच्चों की ओर भी कभी देख कर सोचिये, जिनकी मुसकान जमाने ने हमेशा के लिए छीन ली है।
संजय या गीता हत्याकांड पर पूरा देश शोकमग्न हो गया, लेकिन तिल तिल कर मरने वाले असंख्य अन्य बच्चों की ओर क्या कभी किसी का ध्यान जा पायेगा।
नहीं, आप में से किसी के पास इतना वक्त नहीं कि गीता, या अकबर या महमूद की बात सुने या जिंदगी की हकीकत से अवगत करायें।
रेल-बस में आपने छोटे और मासूम बच्चों की टॉफी बिस्कूट बेचते देखा होगा। अक्सर आप इन बच्चों से अपने बच्चों के लिए टॉफी खरीद कर आगे बढ़ जाते होगे। लेकिन तनिक रुकिये और गौर कीजिये, इस बेचने वाले बच्चे और आपके बच्चेकी उम्र में कितना फर्क है, मुश्किल से 2-3 साल का, क्या कभी आपने टॉफी का एक टुकड़ा इस बच्चे के मुंह में भी पहुंचाने की कोशिश की। नहीं, क्योंकि वह आपका बच्चा नहीं है।
मेरा 3 वर्प का बच्चा सड़क पर छोटे बच्चों को भीख मांगते देखकर प्रश्न करता है ये अपनी मम्मी से रोटी क्यों नहीं मांगते ?
क्या जवाब दूं, उसे, समझ में नहीं आता, प्यार करके उसे सुला देता हूं।
कभी सोचिये झुलसे हुए चेहरे क्या कहते हैं। पतंग, बिस्किट, टॉफी, पालिशवाला, संगीत गाने वाले ये लावारिस बच्चे, आजादि के 51 वर्पो के बाद बचपन को ढूंढ़ रहे है बचपन को बेच रहे हैं लेकिन बचपन को जी नहीं पा रहे हैं।
आपके घर पर सर्दी गर्मी और भयंकर बारिश में दूध, डबलरोटी अखबार देने वाला बच्चा क्या भर पेट भोजन, लाड़-प्यार, खिलौनों या स्कूल का हकदार नहीं है।
आईये, इन बिना बचपन बालकों के अन्दर झांकने की कोशिश करें।
दिल्ली शहर में किये गये ताजा सर्वेक्षण के अनुसार इस शहर में 2 लाख से ज्यादा बच्चे होटलों बीड़ी बनाने के कारखानों, लुहारी- चर्मकारी, मिट्टी के बर्तनों की दुकानों, साइकिलों, ढाबों और घरों पर जानवर से भी बदतर जिन्दगी गुजार रहे हैं। बाल मजदूरों की स्थिति पर किये गये सर्वेक्षण से पता चलता है कि 1991 में भारत में कुल बाल मजदूर 3 करोड़ थे।
एक सर्वेक्षण के अनुसार अधिकांश बाल मजदूर उम्र में कम होते हैं लेकिन उनकी उम्र बढ़ा चढ़ा कर लिखी जाती है ताकि कोई सरकारी एतराज नहीं हो।
होटलों में काम करने वाले बच्चों की हालत सबसे दयनीय है। इन बच्चों को वेतन के नाम पर नाममात्र की रकम दी जाती है। क्राकरी टूट जाने पर वेतन में से पैसा कट जाता है। बच्चों को सूर्योदय से पूर्व ही होटल में पहुंच जाना होता है। मालिक उन्हेंरात की बची खाद्य सामग्री नाश्ते के रुप में देता है। दोपहर के भोजन के नाम पर एक घंटे की छुट्टी मिलती है तथा उसके बाद रात को 12 बजे तक या होटल बंद होने तक उन्हें काम करना पड़ता है।
देश के कुल बाल मजदूरों का 93 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में है और 78 प्रतिशत बाल मजदूर कृपि से संबंधित है। लेकिन शहरी सभ्यता और शहरी आकर्पणों ने बाल मजदूरों को भी तेजी से अपनी ओर आकर्पित किया है। अधिकांश बच्चों को उनके मां-बाप या रिश्तेदार शहरों में छोड़ जाते हैं ताकि वे कुछ कमा सकें। अधिकांश बच्चे लम्बे समय तक सीखने के नाम पर मुफ्त में काम करते हैं। इन्हें वेतन, छुट्टी आदि की कोई सुविधा नहीं दी जाती है। प्लेट फार्म, बस स्टैंड पर छोटे छोटे बच्चों को तेजी से काम करता हुआ देखा जा सकता है। कुछ जेब काटना सीख रहे हैं। कुछ समान ढो रहे हैं और कुछ भीख भी मांग रहे हैं। ये बच्चे किसी न किसी दादा या वयस्क व्यक्ति के इशारे पर यह सारा काम करते है। अपनी कमाई का अधिकांश हिस्सा ये लोग इन दादाओं को दे देते हैं और बच्चे हुए में अपने परिवार का भरण पोपण करते हैं।
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