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विविधा - 29

29-कठपुतलियों का संसार

कठपुतलियों को देश और विदेश में लोकप्रियता और प्रसिद्धि दिलाने हेतु स्व. देवीलाल सामर ने बहुत काम किया। उदयपुर का भारतीय लोककला मण्डल परम्परागत और नवीन कठपुतलियों तथा उनके समाजशास्त्रीय अध्ययन पर काफी काम कर रहा है। 

 पुतलियां चाहे पुरातन हों अथवा नवीन, सैद्धान्तिक दृप्टि से एक ही नियमों में बंधी हैं, और किन्हीं वास्तविक प्राणियों की नकल नहीं हो सकती। न्यूनतम अंग भंगिमाओं से अधिकतम भंगिमाओं का भ्रम उत्पन्न करना पारंपरिक एवं आधुनिक पुतलियों का परम धर्म है। 

 पुतली सिद्धान्त की दृप्टि से पुरातन पुतलियां जितनी आधुनिक है।, उतनी आधुनिक पुतलियां नहीं। चित्रकला की तरह भारतीय पुतलियां अनुकृति मूलकता से हट कर आभासिक रही है। 

 आन्ध्र, राजस्थान एवं उड़ीसा की पुतलियां भी इसी क्रम में हैं। 

 आधुनिक पुतलियां पारम्परिक पुतलियों का ही परिप्कृत रुप है। इन पुतलियों को पारम्परिक पुतली सिद्धान्त से ही जोड़ा जा सकता है। पारम्परिक पुतलियां अपने नियमों से बंधी होने के कारण विकास नहीं पा सकी। राजस्थान के पारम्परिक अमरसिंह राठौर या राणा प्रताप के खेल से नहीं बढ़ना चाहते। उड़ीसा के पुतलीकार कन्हाई या गोपी कृप्ण के कथानक को नहीं छोड़ते। आन्ध्र के छाया कठपुतलीकार रामायण एवं महाभारत के ही खेल करते हैं। यही कारण है कि वह परम्परा अब मृत प्रायः सी हो चुकी है। लेकिन पुतली कला अब शिक्षा, मनोरंजन, समाज की विसंगतियों आदि के लिए महत्वपूर्ण हो रही हैं। बसीला नामक कठपुतली नाटक ने भारत व सोवियत समाज को नजदीक लाने में मदद की।

 भारत को कठपुतलियों का जन्मस्थल नहीं माना जाता है, लेकिन एशिया अवश्य ही कठपुतलियों का ज्न्मस्थल है। चीन, जापान, इन्डोनेशिया, मलेशिया, बर्मा आदि देशों में कठपुतलियों का विवरण प्राचीन साहित्य में मिलता है। 

पुतली नाट्य 

 पुतलियां अपने विकास के समय से ही मानवीय नाटक से जुड़ गयीं। विश्व के पुतली विशेपज्ञ इस बात पर एक मतह ैं कि मानवीय नाटक के रंगमंचीय अवतरण से पूर्व ही पुतलियां विकास पर थीं। पुतलियां मूल रुप से मनुप्य की धार्मिक भावनाओं को ही विकसित करती रहीं। 

 यही कारण है कि पुतलियां समाज से जुड़ गई हैं और धार्मिक व पारम्परिक प्रसंगों को पुतलियों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाने लगा। पुतली नाट्य लोकशैली का ही एक नाटक था जो लोक नाट्यों के रुप में विकसित हुआ। पुरातन शैली में प्रस्तुत करने वाले अधिकांश पात्र आज भी मुखौटा लगाते हैं। अफ्रीका,जावा, लंका, बर्मा आदि में ऐसे नाट्य आज भी बहुत प्रचलित हैं। भारत में भी यही स्थिति है। मेवाड़ का गबरी, दक्षिण का यक्ष नाट्य आदि में मुखौटों का बड़ा महत्व है। 

 दक्षिण भारत के प्रायः सभी लोक नाट्य अपनी अंग भंगिमाओं, वेशभूपाओं में पुतलियों की तरह ही व्यवहार करते हैं। 

पुतली परम्परा

 यूरापीय देशों में पुतली परम्परा को 300 वर्पो का माना गया है। भारत में यह आदि मानव के समय से ही जुड़ी हुई है। 

 सांस्कृतिक कार्यो में पुतली का प्रयोग और प्रतीकों का महत्व सर्वविदित है। यूनान, मिश्र आदि देशों में पुरातन समाधियों को खुदाई में अनेक ऐसे पुतले मिले हैं, जो मृतात्माओं की शांन्ती के लिये गाड़े जाते थे। भारत में भी इसके प्रमाण उपलब्ध है कि पुतलियों से ही नाटकों की उत्पत्ति हुइ्र है। 

भारतीय पुतलियों का इतिहास 

 पौराणिक ग्रन्थों में पुतलियों का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। रामायण, महाभारत, पंचतंत्र आदि में भी इनका उल्लेख है। इन ग्रन्थों में पुतलियों से सन्देशवाहक का काम लिया जाता है। महाभारत में अर्जुन द्वारा वृहन्नला को पुतलियां सिखलाने का उल्लेख है। इसी प्रकार चमड़े, कागज और कपड़ेकी पुतलियों का भी वर्णन है। 

 सातवी ष्शताब्दी में नीलकंठ के भाप्य में छाया पुतलियों का वर्णन है। कथा सरितसागर में एक दस्तकार का उल्लेख है जो बच्चों के मनोरंजन के लिए पुतलियां बनाता है। पंचतंत्र में कठपुतलियों का वर्णन है। विक्रमादित्य की सिंहासन बत्तीसी में पुतलियों के करतबों का वर्णन है। 

 आज भी रामायण के पुतली नट अन्य भाट, राव, भोपों-भोपी, बलाई एवं रेबारी जाति में पाये जाते हैं। जयपुर, उदयपुर व पश्चिमी राजस्थान में ये जातियां पाई जाती है। जयपुर में सैकड़ों परिवार कठपुतलियां बनाते हैं, बेचते हैं और नाटयों का प्रदर्शन करते हैं। 

 इसी प्रकार पंजाब, उत्तर प्रदेश, गुजरात में भी भाट व नट जातियां कठपुतलियों के खेल करती हैं। राजस्थान के भवाई, भोपे, मंगलिये, कांवड़िये खरगड़े तेजोर आदि भी प्रदर्शन का कार्य करते हैं। 

 जयपुर के कठपुतलियां बनाने वालों ने अपनी एक कालोनी भी बनाई है, जहां पर कठपुतलियों के निर्माण, रंगाई, पुताई आदि का काम होता है। यहां से कठपुतलियां दुकानों, एम्पोरियमों, विदेशों में भेजी जाती हैं। 

 ये लोग होटलों, स्कूलों आदि में कठपुतलियों के खेलों यथा अमरसिंह राठौर का, महाराणा प्रताप का प्रदर्शन करते हैं। एक प्रदर्शन के सौ रुपये भी ले लेते है। 

 लकड़ी की विभिन्न प्रकार की कठपुतलियां बनाकर बेचते है। एक कलाकार हरभजन ने बताया कि एक कठपुतलि के निर्माण में पांच-सात रुपयों का खर्च आता है, और दस रुपयों में दुकानदार लेता है। कई दुकानदार इसे काफी उंचे दामों में बेचते हैं। एक कलाकार औसतन पच्चीस से तीस रुपये कमा लेता है। घर की महिलाएं भी काम करती है। प्रदर्शन के समय कठपुतलियों में सारंगी वाला, अनारकली, तबले वाला, सजना ‘नर्तक’ जोगी और बिपलीशाह होता है। इसके अलावा साथ में गाना हारमोनियम भी चलता है। सामान्यतया धागों से कठपुतलियों को चलाया जाता है। 

 स्व. देवी लाल सामर ने कठपुतलियों के क्षेत्र में कला के उत्थान के लिए बहुत कुछ किया। उन्होंने पारम्परिक खेलों के अलावा नवीन कथा कृतियां, नाटकों, कहानियों को कठपुतलियों के मार्फत प्रस्तुत किया। 

 कठपुतलियों से शिक्षा देने की भी एक बृहत् योजना पूरी की गयी है। 

 कठपुतलियों के निम्न प्रकार हैं- 

1. दस्ताना कठपुतलि-इन कठपुतलियों को हाथ में पहन कर चलाया जाता है। 

2. छड़ पुतली-छड़ों से चलायी जाती है। 

3. सूत्र संचालित या धागों से चलती है। 

4. छाया पुतली-चमड़ा, गत्ता, कार्डबोर्ड आदि से बनती है। 

5. लकड़ी, लोहे, गत्ते व कागजों से भी कठपुतलियां बनाई जाती हैं। सामान्यतया लकड़ी की कठपुतली ज्यादा प्रयुक्त होती हैं। 

ष्शैक्षणिक कठपुतलियों से बच्चों को विभिन्न प्रकार की शिक्षा दी जाती है। इस प्रकार के प्रयोग भारत व विदेशों में कफी लोकप्रिय हो रहे हैं। 

 विदेशों में भी कठपुतलियों पर काफी काम हो रहा है। कठपुतलियों के संसार से बाहर आते समय मेरे दिमाग में एक ही बात थी, क्या हम सभी नियति के हाथों की कठपुतलियां नहीं हैं ? 

 

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