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विविधा - 28

28-भारत के हस्त-शिल्प 

 प्राचीन काल से ही भारत वर्प में जन समुदाय, अपने मनोरंजन, आजीविका तथा लोक हित हेतु विभिन्न प्रकार की लोक कलाओं तथा हस्त-शिल्पों को अपने में समाये हुए है। एकता की डोर में बंधी ये कलाएं तथा हस्त-शिल्प हमारे जन-जीवन में बहुत गहरे तक बैठी हुई हैं, और समय के अदुपयोग तथा रोजगार का एक महत्वपूर्ण माध्यम बनी हुइ्र है। ये हमारी ांज्ञकृति, परम्परा, जन जीवन की एक महत्वपूर्ण इकाई के रुप में जीवित है। कभी कदा आधुनिक वैज्ञानिक तथा औद्योगिक उन्नति के कारण ऐसा लग सकता है कि हस्त-शिल्प समाप्त हो रहे हैं, मगर शीघ्र ही यह धारणा गलत सिद्ध हो जाती है और हमारे हस्तशिल्प नया आकार एवं आकृति लेकर पुनः दृप्टिगोचर होने लगते है। पिछले 25-30 वर्पो में हमारे हस्त शिल्पियों ने पूरी दुनिया में अपनी धाक जमा ली है, उनकी बनायी हुई वस्तुओं की दुनिया के बाजारों में अच्छी मांग है। हमारे घर, बाजार, उत्सव, त्यौहार, रस्म, पूजापाठ, धार्मिक स्थलों सभी जगहों पर हमारे हस्त-शिल्पों का महत्व है, और संतोप की बात ये है कि लगातार इनकी मांग बढ़ रही है। अब कलाकार तथा हस्त-शिल्पी सीधा बाजार से जुड़ा हुआ है। हमारे बर्तन, मिट्टी के शिल्प, परिधान, सभी जगहों में हमारे लोक जीवन, लोक कलाओं की छाप है। 

 सच पूछा जाय तो हस्त शिल्प वे वस्तुएं है जो मानव हाथों की कुशलता की कारीगरी के नमूने हैं,ये बहुत साधारण मिट्टी के बर्तन हो सकते हैं और बहुत ही मंहगे आभूपण। वस्तुओं का आकार-प्रकार, मूल्य नहीं उसके साथ जुड़ी सैंकड़ों वर्पो की परम्परा, संस्कृति और तहजीब का महत्व है। हस्त-शिल्प हर घर में हर आदमी के अनुकूल होते हैं। अमीर-गरीब सभी के घर में एक से अधिक हस्त-श्ल्पि बने रहते हैं। 

  प््राचीन काल से ही भारत के निर्मित हस्त शिल्प वस्तुओं की विदेशों में अच्छी मांग रही है। मुगल शासकों ने इन कलाओं को आगे बढ़ाया और इस दौर में हस्तशिल्प ललित कला की तरह फला-फूला । अंग्रेजों के शासन काल में हस्त-शिल्प के काम में कमी आई। फिर औद्योगिक क्रांति के कारण भी पूरे संसार में हाथ की बनी वस्तुओं से लोगों का ध्यान हट गया। हस्त-शिल्पियों के लिए ये बड़े दुख के दिन थे। राज्याश्रय छिन गया था। वे बेचारे इधर-उधर गांवों में बिखरने लगे। गांधी जी ने स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ-साथ कुटीर उद्योगों, दस्त कलाओं तथा हस्त शिल्पियों के महत्व को समझाा और 1952 में श्री मती कमला देवी चटोपाध्याय की अध्यक्षता में अखिल भारतीय हस्त-शिल्प मण्डल की स्थापना भारत सरकार द्वारा की गयी। मण्डल ने देश में बिखरे हस्त श्ल्पिियों को आधार दिया। अपनी संस्कृति विरासत को संझोये रखा और धीरे-धीरे पूरे देश में एक बार पुनः हस्तशिल्प का बाजार बना। अब निर्यात के अवसर भी खुल गये हैं। करोड़ो रुपये मूल्य के हस्त शिल्प विदेशी बाजारों में निर्यात किये जा रहे हैं, हजारों हस्त श्ल्पिियों की आर्थिक स्थिति में भी बड़ा सुधार हुआ है और केन्द्र तथा राज्य सरकारों से निरन्तर प्रोत्साहन पाकर हस्त-शिल्प भारत की पहचान बन गये हैं। अब केन्द्र व राज्य साकारें प्रति वर्प हस्त शिल्पियों को पुरस्कृत भी करती है। हमारे देश के हस्त शिल्पों में मिट्टी के बर्तन, लकड़ी की कारीगरी, धातु के शिल्प, आभूपण, पत्थर की मूर्तियां, हाथी दांत के बने शिल्प, चटाईयां, टोररियां, दरी, गलीचे, चर्मकारी वस्त्र तथा इसी प्रकार के अन्य शिल्प पंमुख है। लगभग सभी हस्त शिल्प हमारे पर्वो, त्यौहारों आदि से जुडे़ हुए है और घरों पर इन त्यौहारों के अवसर पर इस प्रकार के हस्तशिल्पों को अक्सर देखा जा सकता है। भित्ति चित्र हो या अल्पना, सांझी हो या अन्य सभी हमारी लोक कलाओं तथा हस्त शिल्पों के अद्भुत उदाहरण है। आइये अब हस्त शिल्पों की कुछ विस्तार से जानकारी लें। 

वस्त्रों से संबंधित हस्त शिल्प

 कपड़ों की बुनाई, रंगाई, छप्पाई तथा वस्त्र निर्माण अत्यन्त प्राचीन परम्परा है, क्योंकि मनुप्य ने सर्वप्रथम अपने तन को ढकने के ही प्रयास शुरु किये थे। भौगोलिक, सांस्कृतिक तथा लोक परम्पराओं में विविधता के कारण भारत का वस्त्र शिल्प भी बहुविध रहा है। रेगिस्तान के वस्त्रों में रंगों की चटखता है तो मैदानी भागों में वस्त्रों के रंग हल्के हैं, बंगाल में सफेदी है तो दक्षिण में रंग ज्यादा गहरे हें। रंगों के अलावा डिजाईन तथा सामग्री के चयन में भी अद्भुत विविधता है। सूति वस्त्रों का प्रयोग होता था। सूति वस्त्रों, रेशमी कपड़े और कमख्वाव, हाथ छपाई के वस्त्र, लोक कशीदाकारी, शाल, उनी कपड़े तथा जन जातियों के कपड़े। पूरे भारत में वस्त्रों के लिहाज से साड़ी को एक उदाहरण के रुप में लिया जा सकता है। भारत में साड़ी की हजारों डिजाईनें है और बांधने का तरीका भी अलग-अलग है। इसी प्रकार उनी वस्त्रों, रेशमी वस्त्रों की डिजाईनें भी बहुत अलग-अलग हैं। रंगों के अलावा कसीदा, कांच के टुकड़े, सोने, चांदी आदि का प्रयोग भी होता था। एक एक साडी़ 10 हजार तक की मिल सकती है। अन्य वस्त्रों में पुरुपों के वस्त्रों पर भी काफी ध्यान दिया गया है। छपाई का काम राजस्थान में बगरु, सांगानेर, जयपुर का प्रसिद्ध है। 

गलीचे 

 घरों में फर्श पर बैठना एक परम्परा रहा है, और इस परम्परा हेतु सूती दरियां, गलिचें तथा कालिनों का प्रयोग होता था। दरी को सूती धागों से बुना जाता है। गलीचें और कालीन उनी धागों से बुने जाते थे। जयपुर, बनारस आदि आज भी अपनी कालीनों के लिए जाने जाते हैं। कालीन बनाने की परम्परा ईरान से आई है। कालीन बनाने में भारत में कश्मीर, अमृतसर भी प्रसिद्ध रहे हैं। नमदे राजस्थान में मालपुरा में बनते है। 

 आगरा, ग्वालियर के गलीचे और कालीनों को अत्यन्त उन्नत किस्म का माना जाता है। राजस्थान की जेलों में भी दरी बुनाई होती है और बहुत अच्छी और जटिल डिजाइनें इन जेलों में बनती हैं। दरियों के उपयोग घरों में होते हैं, जबकि कालिन, गलीचे आदि उत्सवों व सामाजिक समारोहों की शान होते हैं। 

मिट्टी के बर्तन 

 मिट्टी शायद पहली वस्तु है, जिस पर मनुप्य ने अपनी कला प्रतिभा का प्रयोग किया और उसने मिट्टी के ऐसे शिल्प बनाये िकवे धातु, चर्म, लकड़ी का मुकाबला करने लगे। मोलेला‘राज्स्थान’ के मिट्टी के शिल्प अब विश्व प्रसिद्ध है। 

 मिट्टी के बर्तनों की तीन प्रमुख किस्में हैं:- 

1. पतले बर्तन

2. रोगन किये हुए बर्तन

3. रोगन किये हुए उत्कीर्ण बर्तन। 

हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, महाराप्ट, हरियाणा के बर्तनों की अलग-अलग शैलियां हैं। मिट्टी के बर्तन जलकलश के रुप में प्रमुखता से काम आते हैं। दिल्ली, जयपुर के नीले रंग के बर्तन काफी प्रसिद्ध हैं। 

मिट्टी के बर्तनों के अलावा मिट्टी की मूर्तियां भी काफी बनती हैं और पूरे देश के ग्रामीण अंचलों में मिट्टी की मूर्तियों को बनाने की अपनी-अपनी परम्पराएं हैं। स्त्रियां और कुम्हार दोनों ही मिट्टी की मूर्तियां बनाते थे तमिलनाडु में भी मूर्ति बनाने की विशिप्ट परम्परा है। 

लकड़ी का काम

 लकड़ी का काम एक प्रमुख हस्त शिल्प है। पुराणों में भी लकड़ी के हस्त शिल्पों का वर्णन है। 

 जहां पर जंगल काफी हैं और लकड़ी सस्ती है वहां पर लकड़ी का फर्नीचर, दरवाजे, खिड़कियॉ ंतो बनती ही हैं, इसके अलावा लकड़ी की सजावटी वस्तुएं भी काफी बनती हैं। नक्काशी किए हुए लकड़ी के साजों सामान की आज भी काफी ज्यादा मांग है। लकड़ी की मूर्तियां, बच्चों के खिलौने तथा घरों में काम आने के उपकरण भी काफी बनते हैं। उदयपुर ‘राजस्थान’ लकड़ी के खिलौने तथा मूर्तियां बनाने का एक प्रमुख केन्द्र है। गणगौर व तीज माता की मूर्ति लकड़ी की ही बनती हैं। 

धातु का काम

 लगभग पांच हजार वर्पो से भक्ति में धातु शिल्प का काम हो रहा है। बर्तन, मूर्तियां आदि लम्बे समय से बन रहे हैं। धातु के काम लुहार करते हैं। धातु की चद्दरें, धातु की ढलाई का काम और धातु शिल्प का अंलकरण ये सभी धातु के कार्यो के प्रमुख अंग हैं। जयपुर, दिल्ली, मुरादाबाद में धातु शिल्प का सौन्दर्य देखते ही बनता है। धातुओं के आभूपण बनाने की भी बड़ी समृद्ध परम्परा रही है। इन धातु के आभूपणों में हीरा, पन्ना, मोती, माणक, पुखराज आदि लगाकर इनमें मूल्य व सौन्दर्य में चार चांद लगा दिये जाते हैं। आभूपण हमारेहस्त शिल्पियों, सुनारों की परम्परा है और स्त्रियों के आभूपणों की एक लंबी सूची है, इसी प्रकार पुरुपों के आभूपण भी बनते थे। आभूपण बनवाना बहुत ही महत्वपूण हस्तशिल्प है। अले-अलग प्रदेशों में गहनों के आकार, आकृति बनाने की विधियां भी अलग-अलग हैं। 

 समाज के निम्न वर्ग में हल्की धातुओं के अभूपण आज भी लोक प्रिय हैं। सबसे बढ़िया डिजाईन नाक के आभमपणें की होती है क्योंकि यही देखने वाले का सबसे पहले ध्यान खींचती है। 

पत्थर की मूतियां

 पत्थरों पर नक्काशी, देवताओं की मूर्तियां बनाना भी हस्तशिल्प है। जयपुर में बनी देवताओं की मूर्तियां पूरे विश्व के मन्दिरों में प्रतिप्ठित है। जैसलमेर में हवेलियों पर जो पत्थर की नक्काशी है उसे देखने प्रतिवर्प लोखों र्प्यटक जैसलमेर जाते हैं। राजस्थान पत्थर की नक्काशी का प्रमुख केन्द्र है। इसी प्रकार गुजरात में पत्थरों का काम होता हे। ताजमहल पत्थर की नक्काशी का अनुपम उदाहरण है जो राजस्थान के मकराना के संगमरमर से बना हे। एक ही पत्थर से विशालकाय मूर्ति का निर्माण करना भी एक बहुत कठिन तपस्या है। टोकरियां, चटाइयां आदि बनाने की हस्त कलाओं का भी एक प्राचिन इतिहास रहा हे। ये टोकरियां, बांस, बैत, जंगली बरसाती घास आदि से बनाई जाती है। इन टोकरियों के निर्माण में आज भी हजारों लोग लगे हुए है, जो अपनी आजीविका इसी प्रकार के कामों से कमा रहे हैं। हस्त शिल्प से ही टोकरियां आज कलात्मक बन गयी है। 

 हाथी दांत, हड्डी, सींग की नक्काशी का काम भी भारत में काफी होता हे। हाथी दांत पर चित्रकारी, राजस्थान में चित्रकार काफी करते है। हड्डी व सींग के टुकडों़ से लकड़ी पर नक्काशी पूरे भारत में कफी ज्यादा की जाती है। इस प्रकार की बनी वस्तुओं की विदेशों में भी काफी मांग है। नाथद्वारा की चांदी की नक्काशी, मीनाकारी भी प्रसिद्ध है। पूरे भारत में चित्रकला की एक समृद्ध परम्परा है। जो अलग-अलग शैलियों में विकसित हुई है। चन्दन की लकड़ी पर नक्काशी भी दक्षिण में होती है और काफी प्रसिद्ध है। काफ्ट का काम, व्लू जोटरी, लाख का काम, टैराकोटा, उंट के कुप्पें, कांच का काम आदि भी प्रसिद्ध रहे हैं। चमड़े पर नक्काशी, सोने का काम बीकानेर का बड़ा प्रसिद्ध रहा है। राजस्थान में जयपुर का रत्न हस्त शिल्प एक बहुत बड़े व्यवसाय के रुप में सामने आया है। उपर हम कुछ महत्वपूर्ण हस्त शिल्पों का भी बहुत संक्षेप में ही वर्णन कर पाये हैं, इन हस्त शिल्पों के अलावा भी गांवों में महिलाओं द्वारा कई प्रकार के हस्त शिल्प के काम किये जाते हैं। हस्त शिल्प के ये काम रोजगार से सीधे जुड़े हुए हैं, अतः इनका महत्व आजीविका के रुप में भी है। इसी कारण ष्शायद ये हस्त शिल्प जीवित है, सरकारी संरक्षण तथा निर्यात से हस्त शिल्पियों की माली हालत में सुधार हुआ है। कई हस्त शिल्पी अपने-अपने क्षेत्र में नये प्रयोग करते हैं और नवीन रचना करते हैं जो ललित कला के रुप में प्रसिद्धि पाती है।

 भारतीय हस्त शिल्प कलाओं का एक उज्जवल और संनिश्चत भविप्य है।  

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