विविधा - 18 Yashvant Kothari द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

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विविधा - 18

18-फाग का अमर कवि : ईसुरी 

 ळोली का मौसम हो। फाग गाने का मन हो और बुन्देलखण्ड के कवि ईसुरी की याद न आये, यह कैसे संभव है ? जनकवि और बुन्देलखण्ड के ‘कबीर’ ईसुरी के फागों से पूरा, बुन्देलखण्ड आधीरात को खिलने वाले बेले की तरह अनुप्रेरित है। 

 ईसुरी का पूरा नाम ईश्वरी प्रसाद था। उनका जन्म 1841 में झांसी जिले के मउरानीपुर के पास के मेढ़की गांव में हुआ। 

 वास्तव में ईसुरी मस्तमौला और रसिक मिजाज के आदमी थे। पढ़े कम गुने ज्यादा यह वह समय था जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की तैयारियां जोरों पर थीं तथा उन्मुक्त श्रृंगार का वातावरण था। लेकिन ईसुरी ने जीवन से जुडे़ हर प्रसगं पर फागों की रचना की उन्होंने तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा अन्य पहलुओं पर ध्यान देते हुए फागों की रचना की और बच्चे बच्चे की जुबान पर चढ़े हुए हैं। ईसुरी जवानी में ही रजजो राजा के प्रेम में पड़ गये थे। यही फागों की नायिका रजउ बनती है। लोकप्रियता के कारण ही ईसुरी को महाराजा छतरपुर के दरबार में राजकवि का ओहदा दिया जाता है। मगर ईसुरी यह ओहदा अस्वीकार करके जनकवि ही नहीं जननायक बन जाते हैं। 

 ईसुरी की माता का स्वर्गवास बचपन में ही हो गया था, मामा पं. जानकी प्रसाद ने ईसुरी को पढ़ाने की बार बार कोशिश की, मगर ईसुरी का मन पढ़ने में नहीं लगा। वे खेतों की रखवाली का काम करने लगे। प्रकृति में उन्मुक्त विचरण करने लगे। अब वे फागों के निर्माण में जुट गये। वे खेत की मुण्डेर से आने जाने वाले राहगीरों को फागें सुनाने लग। धोरा गांव के धीरे पण्डा उनके शिप्य बन गये। ईसुरी का विवाह स्यामबाई के साथ हुआ। वे पत्नी प्यार में सब कुछ भूल गये। वृद्ध मामा की आधी जायदाद लेने से अस्वीकार करने वाले ईसुरी ने एक जमींदार के यहां नौकरी करली। रज्जबबली ईसुरी को पांच रुपया महीना भी देते थे। इस परिवार से ईसुरी को मोह हो गया तथा अपने आश्रयदाता को काफी फागों में उन्होंने उकेरा है। 

 ईसुरी के तीन पुत्रियां हुई। सात आठ साल के दाम्पत्य के बाद स्यामा देवी का देहान्त हो गया। ईसुरी अकेले रह गये। वे गांव बचोरा में रहने लगे। नौ गांव के पास बिजारी ग्राम में एक रंगरेजन रजउ रहती थी, उसने ईसुरी के फाग गा गाकर राजमहल तक पहुंचा दिये। राजा ने फाग सुनकर ईसुरी को बुलाया और इनाम दिया। बाद में ईसुरी और रजउ का प्रेम लौकिक अर्थे में भी प्रस्फुटित हुआ। ईसुरी की फागों में रजउ इसी रंगरेजिन के लिए प्रयुक्त हुआ है। ईसुरी तीन वर्पो से अधिक समय तक बघोरा गांव में रहे। अंतिम निदो में वे धंवार गांव में रहे। उन्हें बघोरा और वहां की रमणियों से गहरी आसक्ति थी, एक फाग में वे कहते हैं कि मेरी मुत्यु यदि गंगा किनारे हो तो भी मुझे बघोरा में ही जलाया जाये। मार्ग ष्शीर्प सुदी सप्तमी संवत्1966 ‘1909’ को उनका देहान्त हुआ। उनकी तेरहीं पर उनके पटुशिप्य धीरे पाण्डा ने निम्न फाग सुनाया-

 ईसुरी तजके गये सरीरा, हलीन एक अपीरा,

 अगन सुदी सातें ली उदना, बार सनीचर सीरा, 

 संवत उन्निससोछयासठ में, उड़ गयो मुलक भमीरा, 

धांवर गांव में ईसुरी की एक समाधि है, जो जीर्ण शीर्ण अवस्था में है। 

 ईसुरी वास्तव में लोक कवि हैं, वे कबीर के समकक्ष ठहरते हैं। उनकी रचनाएं लिखित रुप में उपलब्ध नहीं हैं, उन्हें संकलित किया गया है। मूलतः ईसुरी श्रृंगार, रीतिकाल के रससिद्ध कवि हैं। देहाती वेशभूना, मधुर कंठ के स्वामी थे, वे फाग गा गाकर सुनाते थे, जीवन के बाद के वपो्र में उन्होंने लौकिकता और पारलौकिकता से जोडकर फाग गाये ।इन फागों में 16 और 12 मात्राओं पर विश्राम होकर पूरी 28 मात्राएं होती हैं। 

 उनकी रचनाओं में श्रृंगार के अलावा, नीति, अध्यात्म, अनुभव, राजनीति, समाज आदि का वर्णन भी मिलता है। ईसुरी कबीर की तरह ही समाज की रुढ़ियों पर प्रहर करते हैं। मानव की लोक मंगलकारी श्रृंगारिक समझ तथा नैतिकता को वे बहुत ष्शालीन तरीके से फागों में गूंथते हैं। ईसुरी ने अपनी फागों में बसन्त का भी बहुत सुन्दर वर्णन किया है। वे कहते हैं-

 अब रितु आई बसंत बहारन, पान फूल फल डारन, 

 हारन हद्द पहारन पारन, धाम धवल जल धारन, 

 कपटि कुटिल केदरन छाई, गई बैराग बिगारन, 

 चाहत हतीं पीत प्यारे की, हा हा करत हजारन,

 जिनके कंत अंत घर में हैं, तिन देत दुख दारुन,

 ‘ईसुरी’ मोर झोर के उपर, लगें भोंर गुंजारन। 

इसी प्रकार एक अन्य फाग में वे कहते हैं- 

 राते परदेसी संग सोई, छोड़ गयो निर्मोई,

 ईसुरी पर सेज के उपर, हिलक हिलक के रोई। 

इसी प्रकार ईसुरी को इस फाग का आनन्द तो और भी बढ़कर है- 

 लख तव नेनव की अरुनाई, रहे सरोज छिपाई,

 मृग शिशु निज अलि भय खां तज के, बसे दूर बन जाई,

 चंचल अधिक मीन खंजन से, उनके न उपमा आई, 

 ‘ईसुरी’ इनकी कानों बरनों, नयनन सुंदरताई, 

 जो कोउ जिये सो खेले होरी, खेल कूद लेओ गोरी, 

 नइयां आड़ आज के दिन की, संग सहेली थोरी,

 कर लो भेंट गरे मिल मिल के, कजा ऐनइयां जोरी, 

 आगें मिलें, मिलें ना ‘ईसुरी’ रामराम लो मेरी।

अपनी मृत्यूु के लिए भी ईसुरी ने एक फाग में लिखा है- 

 यारों इतना जस ले लीजो, चिताअंत न की जो, 

 चलत सिरम को बहत पसीना, भत्तम को अंतत भींजो। 

 निगतन खुदे चेटका लातन, उन लातन मन रीओ,

 वे सुसती ना होय रात दिन, जिनके उपर सीजो,

 गंगाजू लो मरें ईसुरी, दाग बगोरा दीजा। 

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