एक था ठुनठुनिया - 10 Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

श्रेणी
शेयर करे

एक था ठुनठुनिया - 10

10

स्कूल में दाखिला

ठुनठुनिया का नाम तो चारों ओर फैल रहा था, पर उसकी शरारतें और नटखटपन भी बढ़ता जा रहा था। ठुनठुनिया की माँ गोमती कभी-कभी सोचती, ‘क्या मेरा बेटा अनपढ़ ही रह जाएगा? तब तो जिंदगी-भर ढंग का खाने-पहनने को भी मोहताज रहेगा। एक ही मेरा बेटा है। थोड़ा पढ़-लिखकर कोई ठीक-ठाक काम पा जाए, तो मुझे चैन पड़े। कम से कम तब गुजर-बसर की तो मुश्किल न होगी।’

आखिर एक दिन ठुनठुनिया की माँ उसे लेकर गुलजारपुर के विद्यादेवी स्कूल में गई। स्कूल के हैडमास्टर थे सदाशिव लाल। ठुनठुनिया की माँ ने उनके पास जाकर कहा, “एक ही मेरा बेटा है मास्टर जी। जरा शरारती है, पर दिमाग का तेज है। आप उसका नाम अपने स्कूल में लिख लें, तो मुझे बड़ा चैन पड़ेगा। पढ़-लिखकर जरा ढंग का आदमी बन जाएगा।”

सदाशिव लाल थे तो भले, पर जरा सख्त स्वभाव के थे। उन्होंने कठोर निगाहों से ठुनठुनिया की ओर देखते हुए कहा, “क्यों रे ठुनठुनिया, थोड़ी गिनती-विनती जानता है क्या?”

इस पर ठुनठुनिया ने झट अपना बड़ा सा गोल-मटोल सिर हिला दिया, “नहीं!”

“और अ-आ, इ-ई...यानी वर्णमाला?” हैडमास्टर साहब ने जानना चाहा।

ठुनठुनिया ने फिर ‘न’ में सिर हिलाया। उसका ध्यान सामने अलमारी में उछल-कूद करते एक बड़े ही चंचल चूहे की तरफ था। चूहा था भी बहुत बड़ा...और अच्छा-खासा कलाकार। ‘हाई जंप’, ‘लॉन्ग जंप’ सबकी उसकी खासी अच्छी प्रैक्टिस थी। लिहाजा वह शरारती चूहा कभी चॉक के डिब्बे पर उछलता तो कभी मजे में डस्टर पर आ बैठता। फिर उछलता हुआ पास ही मोड़कर रखे गए हैडमास्टर जी के चार्ट और नक्शों के बीच घुस जाता और धमाचौकड़ी मचाने लगता।...ठुनठुनिया उसी को देख-देखकर मगन हो रहा था।

उधर हैडमास्टर साहब की कठोर मुद्रा देखी तो गोमती विनम्रता से प्रार्थना करती हुई बोली, “मुझ गरीब का तो यही सहारा है मास्टर जी। लड़का बुद्धि का तेज है, पर घर में कोई पढ़ाने वाला नहीं है, तो भला पाठ कैसे याद करता? अब आपके स्कूल में रहकर सब सीख जाएगा। बड़ा मेहनती लड़का है मास्टर जी। बड़ा सीधा भी है!”

“अच्छा, ठीक है...!” कहकर हैडमास्टर साहब ने एक फार्म निकाला। उसे भरते हुए पूछने लगे, “लड़के का पूरा नाम क्या है?”

“ठुनठुनिया...! बस यही नाम लिख लीजिए मास्टर जी!” गोमती बोली।

“और लड़के के पिता का नाम...?” हैडमास्टर साहब ने पेन को हाथ में लेकर पूछा।

“श्री दिलावर सिंह!” ठुनठुनिया ने कहा और एकाएक बड़ी तेजी से उछला, ‘धम्म्...मss!’

“बाप रे...!” कमरे में जैसे तूफान आ गया हो!

ठुनठुनिया को मेढक की तरह इतनी तेजी से उछलते देखकर हैडमास्टर सदाशिव लाल ही नहीं, गोमती भी चकरा गई थी।

पर अगले ही क्षण “आ गए न बच्चू, पकड़ में!...बच के कहाँ जाओगे?” कहकर मगन मन हँसता ठुनठुनिया दिखाई पड़ा। उसके हाथ में एक बड़े-से चूहे की पूँछ थी और नीचे लटकता लाचार चूहा, तेजी से इधर-उधर हिलता छूटने की भरपूर कोशिश कर रहा था। मगर ठुनठुनिया के हाथ की मजबूत पकड़ से बेचारा छूट नहीं पा रहा था।

और उसी समय न जाने किस जादू या चमत्कार से काले रंग की एक ‘पूसी कैट’ भी वहाँ आ गई थी। शायद हैडमास्टर साहब के पीछे टँगे चार्ट से निकलकर—और मजे से जीभ लपलपा रही थी।...

हैडमास्टर साहब का कमरा पूरा अजायबघर बन चुका था।...काली बिल्ली की आँखों में किसी शिकारी जैसा चौकन्नापन था, मगर साथ ही खुद को बचाने की होशियारी भी। चूहे की आँखों में किसी न किसी तह बच निकलने और बिल्ली को धता बताने के वलवले थे।...बिना तीर-तलवार के घमासान लड़ाई चल रही थी और खतरा था कि कहीं जंगल से शेर, भालू, हिरन, कुत्ता, खरगोश सबके सब वहाँ न आ जाएँ।

ठुनठुनिया और अपने कमरे का यह विचित्र रूप देखकर हैडमास्टर साहब इस कदर सन्न रह गए कि सोच नहीं पा रहे थे, क्या करें क्या न करें? पर इतने में ही दो-तीन अध्यापक किसी काम से वहाँ आए और ठुनठुनिया का यह गजब का नाटक देखकर इतने जोरों से तालियाँ बजाकर और ठिल-ठिल करके हँसे कि सबके साथ-साथ हैडमास्टर साहब को भी मजबूरन हँसना पड़ा।

“बड़ी देर से उछल-कूद कर रहा था। देखिए हैडमास्टर साहब, मैंने पकड़ लिया न!” ठुनठुनिया ने बड़े गर्व से चूहे की ओर देखते हुए कहा। उसकी आँखों में खुशी की चमक थी।

चूहा अब भी उसी तरह नीचे की ओर लटका बुरी तरह उछल-कूद कर रहा था, लेकिन अपनी पूँछ ठुनठुनिया से छुड़ा नहीं पा रहा था। ठुनठुनिया की पकड़ ऐसी थी कि जैसे हाथ न हों, लोहे की सड़सी हो!

हैडमास्टर साहब किसी तरह अपने गुस्से को जज्ब करके बोले, “ठीक है ठुनठुनिया! अब इसे बाहर ले जाओ और मैदान की दूसरी तरफ ले जाकर छोड़ दो, ताकि यहाँ वापस न आ सके।...समझे? समझ गए न!”

ठुनठुनिया मैदान में चूहे को छोड़कर वापस आया, तो उसका दाखिले का फार्म भरा जा चुका था। हैडमास्टर साहब ने झटपट अपने दस्तख्त कर दिए और गोमती ने फीस के पूरे साढ़े पाँच रुपए जमा कर दिए।

हैडमास्टर साहब ने ठुनठुनिया से कहा, “आज ही किताबें-कॉपियाँ और बस्ता खरीद लो। कल से तुम्हारी पढ़ाई चालू...! और हाँ, स्कूल में शरारतें जरा कम करना, वरना बहुत पिटाई होगी।”

इस पर ठुनठुनिया ने गंभीर रहने की बहुत कोशिश की, फिर भी उसकी हँसी छूट ही गई, “ठी...ठी...ठी...!”

उसी दिन गोमती ने उसके लिए नई किताबें, कॉपियाँ, बस्ता खरीद दिया। जिसने भी सुना कि ठुनठुनिया स्कूल जाएगा, उसी ने हैरानी प्रकट की। पर ठुनठुनिया ने गर्व से कहा, “अजी, हैडमास्टर साहब मेरा दाखिला कर कहाँ रहे थे!...पर जब मैंने उन्हें एक बार में ही लपककर इत्ता बड़ा चूहा पकड़कर दिखाया, तो मान गए कि मैं लायक हूँ। बस, झट से मुझे दाखिल कर लिया।”

“ओहो, तो इसका मतलब यह है कि तुम्हें चूहे पकड़ने के लिए स्कूल में दाखिल किया गया है!” ठुनठुनिया के दोस्त मीतू ने कहा, तो ठुनठुनिया ने कुछ शरमाकर कहा, “ना जी ना, हमारा कोई यह मतलब थोड़े ही था!”

और फिर उसने दोस्तों को बिल्ली वाला अजीबोगरीब किस्सा भी सुनाया, “क्या नाम है, भाइयो, हमारे हाथा में था चूहा...बल्कि चूहे की पूँछ! बेचारा काँप रहा था।...और इधर आ गई पूसी कैट। जीभ लपलपा रही थी—आँखों में चमक! बड़ी मुश्किल से मामला टला, वरना तो हैडमास्टर साहब के कमरे में पूरा सर्कस...!”