एक था ठुनठुनिया - 8 Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

एक था ठुनठुनिया - 8

8

निम्मा गिलहरी से दोस्ती

गुलजारपुर में तालाब के किनारे एक बड़ा-सा बरगद का पेड़ था। ठुनठुनिया को वह अच्छा लगता था। उसी के नीचे बैठकर वह देर तक बाँसुरी बजाया करता था। बाँसुरी बजाते हुए ठुनठुनिया अपनी सुध-बुध खो देता था। उसकी आँखें बंद हो जातीं और दिल में रस और आनंद का झरना फूट पड़ता। बाँसुरी बजाते-बजाते कितनी देर हो गई, खुद उसे पता नहीं चलता था।

चमकीली आँखों वाली एक निक्कू सी गिलहरी बड़े ध्यान से ठुनठुनिया की बाँसुरी सुना करती थी। वह उसके पास आकर बैठ जाती और गोल-गोल कंचे जैसी चमकती आँखों से अपनी खुशी जाहिर करती। कभी-कभी ठुनठुनिया बुलाता तो धीरे-धीरे चलती, ठुमकती हुई उसकी गोद में आ जाती।

एक दिन केकापुर से ठुनठुनिया का दोस्त गंगू आया हुआ था। दोनों बरगद के पेड़ के नीचे बैठ, खूब सारी बातें कर रहे थे। न जाने कौन-कौन सी दुनिया-जहान की बातें! तभी उछलती-कूदती आ गई वही निक्कू सी गिलहरी। गंगू को बहुत अच्छा लगा। ठुनठुनिया की भी हँसी छूट गई। उसने पूछा, “तेरा नाम क्या है री गिलहरी?”

“निम्मा...! निम्मा गिलहरी!” गिलहरी ने सकुचाते हुए कहा।

“वाह! नाम तो तेरा निराला है, मेरी ही तरह!” कहकर ठुनठुनिया जी भरकर हँसा। फिर बोला, “अच्छा बताओ, निम्मा! क्या तुम्हें मेरी बाँसुरी अच्छी लगती है?”

“अच्छी! बहुत अच्छी।” निम्मा गिलहरी बोली, “पूरे जंगल में तुम्हारी संगीत की तरंगें भर जाती हैं। लगता है, संगीत की वर्षा हो रही है। मेरा मन करता है, तुम बजाते रहो और मैं सुनती रहूँ...बस, सुनती रहूँ। जंगल में हर कोई तुम्हारी तारीफ करता है। हिरन हो या भालू, सब सिर हिला-हिलाकर सुनते हैं और खुश होते हैं। कभी-कभी लगता है, काश! मैं भी तुम्हारी तरह बाँसुरी बजा पाती!”

“चाहो तो तुम भी सीख ले। कोई मुश्किल थोड़े ही है।” ठुनठुनिया बोला। फिर उसने पूछा, “तुम यहाँ कब से रह रही हो...?”

“यहाँ, इस बरगद के पेड़ पर?...पिछली सर्दियों से तो हूँ ही, पर लगता है, अब यह आसरा छूट जाएगा।” कहते हुए गिलहरी की आवाज में गहरा दर्द उभर आया था।

“क्यों?” ठुनठुनिया ने पूछा।

“इसलिए कि कुछ लोग हत्यारे हैं। वे सिर्फ थोड़े-से पैसों के लिए पेड़ों की हत्या करते हैं। वे नहीं जानते कि वे कितना बड़ा पाप कर रहे हैं।” दुखी स्वर में निम्मा ने बताया। फिर कहा, “ठुनठुनिया, तुम जरा एक तरफ छिप जाओ। वे दुष्ट लोग फिर इधर आ रहे हैं, जो इस पेड़ को काटकर बेच देना चाहते हैं। तुम छिपकर सुनना उनकी बातें!”

सुनकर ठुनठुनिया और गंगू दोनों को बहुत बुरा लगा। वे झटपट भागकर एक झाड़ी के पीछे छिप गए। वहीं से जब उन्होंने कुछ लोगों को वहाँ आते देखा और उनकी बातें सुनीं, तो उन्हें यकीन हो गया कि गुलजारपुर के इस पुराने, सुंदर पेड़ को काटने की पूरी तैयारियाँ हो चुकी हैं।

*

ठुनठुनिया के लिए वह पेड़ सिर्फ एक पेड़ नहीं, बल्कि दादा-परदादा की तरह था, जिसका आशीर्वाद पूरे गाँव पर बरसा रहता था। लेकिन कुछ लोगों के लिए तो वह महज आमदनी का एक जरिया ही था, जिसके लिए वे कुछ भी कर सकते थे।...कितना ही नीचे गिर सकते थे!

“लो भाई, पूरे एक हजार रुपए! सँभाल लो। सौदा पक्का रहा।...रात में हम काटने आएँगे। जमींदार को पता ही नहीं चलेगा। वैसे भी वह तो शहर में है, हम चुपचाप काटकर चले जाएँगे। लोग सोचेंगे, पुराना पेड़ है, अपने आप गिर-गिरा गया। मुखिया जी को तो हमने पैसे देकर अपने साथ मिला ही लिया है।” उनमें से एक घुटी-घुटी आवाज में कह रहा था और बाकी सिर हिला रहे थे।

जिसे पैसे मिले थे, वह गाँव का ही एक धूर्त व्यापारी चमनलाल था। उसने चुपके-से रुपए गिने और अपनी जेब में डाल लिए।

रुपए देने वाले मोटे, थुलथुल आदमी ने कहा, “आज ही रात में हम आएँगे। देखना, कोई टंटा न हो।”

“नहीं होगा, भाई बिल्कुल नहीं होगा। ठाट से काटो, जिम्मा मेरा...!” हलकी मूँछों और चिकने चेहरे वाले चमनलाल ने कहा तो सब एक साथ हँसे, “यह हुई न बात!” फिर वे वहाँ से चले गए।

चमनलाल और दूसरे लोगों की बात सुनकर ठुनठुनिया सन्न रह गया।

‘ओह! मेरा यह प्यारा पेड़ कट जाएगा, जिससे तालाब की इतनी सुंदरता है तथा पूरे गाँव को छाया मिलती है?’ ठुनठुनिया सोचने लगा, ‘इस बरगद की शीतल छाया के कारण ही तो चिलचिलाती धूप और गरमी में भी यहाँ आकर बैठने का मन होता है। इसी के कारण तो मेरी बाँसुरी में इतना रस घुल गया है। इसने पूरे गाँव को जीवन दिया है। यहाँ होली, दीवाली और वसंत में जो मेला-ठेला जुड़ता है, उससे गाँव में कितनी रौनक रहती है! सिर्फ थोड़े से रुपयों की खातिर इस पेड़ की हत्या...?’

“नहीं निम्मा बहन, नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूँगा!” ठुनठुनिया ने प्यार से गिलहरी की पीठ पर हाथ फेरते हुए उसे दिलासा दिया और गंगू के साथ एकाएक तेजी से दौड़ पड़ा। पीछे से उसे निम्मा गिलहरी की चटकीली आवाज सुनाई दी, “हाँ-हाँ, ठीक है ठुन-ठुनिया...हाँ-हाँ, चिक-चिक-चिक...!”

दौड़ते-दौड़ते दोनों गुलजारपुर से पाँच कोस दूर रायगढ़ पहुँच गए। अब तक अँधेरा हो चुका था। जमींदार गजराज बाबू अपनी हवेली के सामने बैठे हुक्का गुडग़ुड़ाते कुछ दोस्तों से बात कर रहे थे।

ठुनठुनिया को यों अचानक आया देखकर वे हक्के-बक्के रह गए। पूछा, “क्यों रे ठुनठुनिया, क्या बात है?...सब खैरियत तो है न!”

ठुनठुनिया ने हाँफते हुए सारी बात बता दी। फिर कहा, “बाबू साहब, वह पेड़ जरूर बचा लीजिए। वह पेड़ तो गुलजारपुर गाँव की शोभा और शान है। कितने ही लोग उसकी शीतल छाया में मिल-जुलकर बैठते हैं। उससे सभी को शांति मिलती है। उसे कटने मत दीजिए। इसीलिए मैं गंगू के साथ...!”

“चिंता न कर ठुनठुनिया, उसे कोई नहीं काट पाएगा।” गजराज बाबू ने बुलंद आवाज में कहा। वे सारा माजरा समझ गए थे।

फिर वे उठे तो साथ ही उनके दोस्त भी उठ खड़े हुए। सभी मोटर में बैठे, साथ ही गंगू और ठुनठुनिया भी थे। रास्ते में थाने के आगे मोटर रोककर उन्होंने थानेदार से बात की और पुलिस के दो सिपाहियों को भी साथ ले लिया। उनकी मोटर अब तेजी से गुलजारपुर को ओर चल पड़ी थी।

अभी उस पेड़ को काटने का इरादा करके आए लोगों ने बस दो-चार कुल्हाड़ियाँ ही मारी होंगी कि इतनी ही देर में गजराज बाबू की मोटर वहाँ पहुँच गई। देखकर वे सब हक्के-बक्के रह गए। कुल्हाड़ियों की किरकिराती आवाज एकाएक रुक गई—थम्मss...!

गजराज बाबू ने सिपाहियों से कहा, “इन बदमाशों को पकड़कर थाने में बंद कर दो।”

उनमें से कुछ लोगों ने भागने की कोशिश की, पर आखिरकार वे भी पकड़ में आ गए। ठुनठुनिया और गंगू ने भी उन्हें पकड़ने में मदद की।

थोड़ी देर बाद मुखिया आया तो गजराज बाबू ने उसे भी खूब डाँटा। कहा, “अपने होश की दवा कीजिए बुलाकीराम जी। नहीं तो क्या पता, अगली बार आप भी जेलखाने में होंगे। कितनी हैरानी की बात है कि जिस गाँव में ठुनठुनिया जैसा समझदार बच्चा है, उसी में आप जैसा लालची आदमी भी है, जिसे गाँव वालों ने पता नहीं क्या सोचकर मुखिया बनाया। मुझे तो शर्म आ रही है आप पर...!”

मुखिया बुलाकीराम इस समय एक दयनीय प्राणी बना हुआ था। उसने गिड़गिड़ाकर किसी तरह हाथ-पैर जोड़कर माफी माँगी।

तभी चमनलाल को भी बुलाया गया। धूर्त व्यापारी चमनलाल की मूँछें भी झुक गई थीं। सारी चतुराई नौ दो ग्यारह। सामने गजराज बाबू और पुलिस वालों को देखकर वह बुरी तरह काँप रहा था।

ठुनठुनिया इस बीच गौर से बरगद के उस बूढ़े पेड़ की ओर निहार रहा था। उसे लगा कि जैसे बरगद के पेड़ ने उसे चुपचाप आशीर्वाद दे दिया है, ‘जीते रहो ठुनठुनिया, जीते रहो। ऐसे ही नेक काम करोगे तो एक दिन दुनिया में तुम्हारा नाम होगा...!’

गजराज बाबू अब वापस शहर चलने को तैयार हुए। मोटर में बैठने से पहले उन्होंने गंगू और ठुनठुनिया की खूब जोरों से पीठ थपथपाई। बोले, “आज तुम लोग न होते, तो सचमुच गुलजारपुर गाँव ही यह पुरानी निशानी खत्म हो जाती।...खत्म हो जाती गाँव ही यह आत्मा! पेड़ काटने वालों ने यह भी न सोचा कि यह बरगद तो गाँव के पुरखे की तरह है, जिसका आशीर्वाद सभी को मिलता है।”

गजराज बाबू यह कह रहे थे, तो निम्मा गिलहरी ठुमक-ठुमककर कभी गंगू, कभी ठुनठुनिया और कभी गजराज बाबू के चारों ओर चक्कर काट रही थी। ठुनठुनिया बोला, “बाबू साहब, धन्यवाद मुझे नहीं, इस निम्मा गिलहरी को दीजिए। मैं तो गंगू के साथ बातें करने और बाँसुरी बजाने में ही खोया हुआ था। इसी ने बताया कि कुछ लोग इस पेड़ को काटकर बेचने की साजिश कर रहे हैं और वे रात में इसे काटने आएँगे। इसका घर इसी पेड़ पर है, तो यह बुरी तरह परेशान थी।...बस, इसकी करुण पुकार सुनाई पड़ी। फिर मेरे प्यारे दोस्त गंगू का सहारा तो था ही, मैं दौड़ पड़ा!”

निम्मा गिलहरी ने जब ठुनठुनिया के मुँह से अपना नाम सुना, तो जोश में आकर वह ठुनठुनिया के ऊपर चढ़ती चली गई। मजे में उसके कंधे पर बैठकर हाथ हिलाती हुई बोली, “धन्यवाद ठुनठुनिया...धन्यवाद बाबू साहब! आप सबकी वजह से मेरा आसरा, मेरा घर खत्म होने से बच गया! मेरा तो पक्का यकीन है, इसी तरह हम एक-दूसरे की सुनें तो बड़ी-से-बड़ी आपदाओं से लड़ सकते हैं।”

कहकर गिलहरी झट से नीचे उतरी और फिर उछलती-कूदती पेड़ पर चढ़ गई।

गंगू और ठुनठुनिया के सिर पर फिर प्यार से हाथ फेरकर गजराज बाबू गाड़ी में बैठे और शहर की ओर चल पड़े। सिपाही एक अलग गाड़ी में हथकड़ियाँ पहने उन बदमाशों को जेल ले जा रहे थे।

उस दिन गंगू और ठुनठुनिया बुरी तरह थके हुए थे। पर पूरी रात वे सोए नहीं, बातें करते रहे। कभी गुलजारपुर के प्यारे बरगद, कभी निम्मा गिलहरी, कभी गजराज बाबू की बातें।...बातों में से और-और बातें निकलती जातीं!

गोमती ने प्यार से डाँटा, तब वे सोए।