एक था ठुनठुनिया - 6 Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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एक था ठुनठुनिया - 6

6

चाँदनी रात में नाच

जाने कितने दिनों तक गुलजारपुर में उस जंगली भालू की चर्चा चलती रही, जो लपकते-झपकते हुए गाँव की चौपाल पर आया था और वहाँ से रामदीन चाचा के घर की ओर गया। आखिर में सबकी सिट्टी-पिट्टी गुम करता हुआ, वह गायब हो गया।

“गायब होने से पहले उसने बड़ा जबरदस्त नाच दिखाया था। और हाँ, उसके पैरों में चाँदी के बड़े-बड़े और खूबसूरत छल्ले भी थे, जो बिजली की तरह चम-चम-चम चमक रहे थे! अजीब-सी डरावनी छन-छन-छन और टंकार हो रही थी...!” गाँव के मुखिया ने कसम खाकर यह बात कही थी।

यों किसी-किसी का यह भी कहना था कि वह भालू नहीं, कोई राक्षस था जो जादू से भालू की शक्ल धारण करके आया था। किसी को उसमें भगवान् राम और हनुमान के बूढ़े मित्र जाम्बवान की छाया दिखाई दी। जबकि गंगी ताई का कहना था, “यह रावण था, रावण जो कलियुग में रूप बदलकर आया है। बड़ा भीषण संकट आ गया गुलजारपुर गाँव पर तो...!”

किसी को लगा कि वह भालू नहीं, सिर्फ भालू की डरावनी छाया थी। जरूर पड़ोसी गाँव के लोगों ने गुलजारपुर गाँव के लोगों को डराने के लिए कोई जादू-मंतर किया है!

किसी-किसी को इसके पीछे गाँव के मोटेराम पंडित जी का भी हाथ लगा, जो नाटक करने में बड़े उस्ताद थे। इसी नाटक के बल पर रात को दिन, दिन को रात साबित कर सकते थे। कभी उनकी पूरी नाटक मंडली थी। इधर कड़की के दिनों में नाटक मंडली तो नहीं रही, मगर दिल में नाटक की ख्वाहिश बची थी। तो हो सकता है कि उन्होंने ही...?

एक-दो ने कहा, “नहीं भाई, हमें तो लगता है, यह वही भालू है जो कुछ महीने पहले पड़ोसी गाँव के दो बच्चों को उठाकर ले गया। यहाँ भी आया तो इसी इरादे से था, पर अच्छा हुआ कि राम जी की कृपा से जगार हो गई।...तो एक बड़ी दुर्घटना होते-होते टल गई, वरना तो गाँव में किसी-न-किसी पर आफत आनी ही थी!”

ठुनठुनिया गौर से सबकी बातें सुनता और कभी इसकी, कभी उसकी बात पर हाँ-हूँ कर देता। असली बात बताकर क्या उसे लोगों से मार खानी थी!

*

मगर...आखिर एक दिन उस भालू-कांड की पोल खुल ही गई और उसे किसी और न नहीं, खुद ठुनठुनिया ने ही खोला। यह भी बड़ा अजीब किस्सा है।...बड़ा मजेदार!

असल में गुलजारपुर में हर साल सर्दियों में चाँदनी रात में गाने-बजाने का प्रोग्राम होता था। उसमें गाँव के जमींदार गजराज बाबू भी आते थे, साथ ही शहर के बड़े-बड़े लोग भी आते थे। इनमें अफसर, वकील, लेखक, कलाकार, प्रोफेसर, पत्रकार, नेता सभी होते थे। अच्छी रौनक लगती थी। तरह-तरह के मजेदार कार्यक्रम होते।

कोई गाने-बजाने का कार्यक्रम पेश करता तो कोई अनोखा नाच नाचकर दिखाता। पुराने लोकगीत और राग-रागिनियाँ गाई जातीं। नए-नए गीत भी खुद बनाकर पेश किए जाते। छोटे-छोटे मजेदार नाटक भी होते थे। कोई बाँसुरी, कोई ढोल, कोई तुरही बजाकर अपनी कला पेश करता। सबसे बढ़िया प्रोग्राम दिखाने वाले को इनाम भी दिया जाता।

ठुनठुनिया के मन में आया, ‘मुझे भी इस बरस कुछ न कुछ करना चाहिए।’ वह माँ के पास आकर बोला, “माँ-माँ, मैं भी इस बार चाँदनी रात वाले मेले में भाग लूँगा।”

“ठीक है बेटा।” गोमती ने कहा, “जिसमें तुझे खुशी मिले, वह कर।”

पर ठुनठुनिया कुछ ज्यादा ही उत्साह में था। बोला, “सिर्फ ठीक कहने से काम नहीं चलेगा माँ! आशीर्वाद दे कि इस साल मुझे ही पहला इनाम मिले।”

इस पर ठुनठुनिया की माँ ने हैरान होकर कहा, “अरे, चाँदनी मेले का पहला इनाम तुझे कैसे मिल सकता है बेटे?...तुझे तो इतना अच्छा नाच-गाना आता नहीं है। वहाँ तो एक से बढ़कर एक नचैया और धुरंधर कलाकार आएँगे। एक-से-एक अच्छे कार्यक्रम होंगे। लोगों के पास बहुत पैसा, बहुत साधन हैं, जबकि तेरे पास तो एक ढंग की पोशाक तक नहीं है, तो फिर...?”

“चिंता न कर माँ, मैं इस बार ऐसा नाच दिखाऊँगा और ऐसी बढ़िया पोशाक पहनकर दिखाऊँगा कि तू खुद चकरा जाएगी। हो सकता है, तू मुझे पहचान भी न पाए।” ठुनठुनिया ने हँसते हुए कहा।

“अच्छा, चल-चल, ज्यादा बातें न बना। भला ऐसा भी हो सकता है कि माँ अपने बेटे को ही न पहचान पाए!” गोमती ने हँसते हुए कहा।

“हो सकता है माँ, हो सकता है!” कहकर ठुनठुनिया नाचा। खूब मस्ती में नाचा और देर तक नाचता ही रहा। माँ हैरानी से उसे देख रही थी।

*

शाम के समय ठुनठुनिया घर से बाहर आकर खुले मैदान में टहलने लगा। फिर टहलते-टहलते उसके कदम गाँव के तालाब की ओर बढ़ गए। अचानक उसका ध्यान बरगद के उस पेड़ की ओर गया जिसमें ऊपर की घनी डालियों के बीच उसने भालू का मुखौटा छिपाकर रखा था।

“देखूँ, कहीं कोई उसे ले तो नहीं गया?” कहकर ठुनठुनिया एक मैले कपड़े में लिपटे उस मुखौटे को तलाशने लगा। एक पल, दो पल, तीन...और आश्चर्य कि वह वहाँ था! सचमुच बरगद की ऊँची डाली पर वह ज्यों-का-त्यों लिपटा पड़ा था।

ठुनठुनिया को अचंभा हुआ, ‘क्या गजब है, भला किसी का ध्यान इधर गया ही नहीं! पर चलो, अब यही मेरे काम आएगा। समझो कि मेरा पहला इनाम पक्का!’

ठुनठुनिया ने उसी समय वह मुखौटा बगल में दबाया और अपने दोस्त मीतू के घर की ओर चल पड़ा। मीतू से उसे काली पोशाक और काले जूते लेने थे, वरना उसके बगैर खेल में पूरा मजा कैसे आता! भालू वाला काला मुखौटा भी ले जाकर उसने मीतू के पास रख दिया।

मीतू का बंगलानुमा बड़ा-सा तिमंजिला घर था। खुद मीतू का अपना कमरा भी बहुत बड़ा था। वहाँ से तैयार होकर आसानी से मेले में पहुँचा जा सकता था।

और सचमुच उस रात ठुनठुनिया ने जब भालू का मुखौटा, काले कपड़े और काले जूते पहनकर अपनी कला दिखाई तो वह कोई छोटा-मोटा नहीं, पूरा विशालकाय जंगली भालू ही लग रहा था।

पहले तो मीतू के कमरे में ही ठुनठुनिया दोस्तों के बीच अपनी नृत्य-कला का प्रदर्शन करता रहा। फिर दोस्तों के साथ ही अजब अंदाज में नाचता-कूदता, उछलता और किलकारियाँ भरता मेले में पहुँचा। सभी यह अनोखा भालू देखकर सहम गए और एक ओर छिटक गए।

इसके बाद ठुनठुनिया ने मंच पर अपना अनोखा नाच दिखाना शुरू किया। वह इतनी मस्ती से नाच रहा था कि सचमुच का भालू ही लगता था। उसका पैर उठाने, मटकने, गरदन हिलाने का अंदाज, सबमें ऐसी प्यारी कला थी कि लगता था, जंगल से अभी-अभी आकर कोई सचमुच का भालू अपना रंग बिखरा रहा है। उसकी हर अदा पर देखने वाले झूम-झूम उठते थे। गजराज बाबू और उनके दोस्त तो बार-बार ‘वाह! वाह!’ कर रहे थे।

मोटेराम पंडित जी कोई अनोखा नाटक करने की सोच रहे थे, पर ऐसे गजब के भालू-नाच के आगे तो उनकी हिम्मत भी जवाब दे गई।

ठुनठुनिया समझ गया कि उसका नाच जम गया है। अब तो उसने ठुमके लगा-लगाकर यह अनोखा गाना भी सुनाना शुरू कर दिया—

भालू रे भालू!

अम्माँ, मैं तेरा भालू!

अभी-अभी चलकर जंगल से आया भालू,

ला खिला दे, ला खिला दे, दो-चार आलू!

अम्माँ, मैं नहीं टालू,

अम्माँ, मैं नहीं कालू,

अम्माँ, मैं तेरा भालू...!

जब ठुनठुनिया का नाच बंद हुआ तो देर तक चारों तरफ तालियाँ बजती रहीं। इसके बाद पूरी की पूरी भीड़ ने बिल्कुल ठुनठुनिया के भालू वाले अंदाज में ही नाचना और थिरकना शुरू कर दिया। सब मिलाकर गा रहे थे—

“भालू रे भालू! अम्माँ, मैं तेरा भालू!/ अभी-अभी चलकर जंगल से आया भालू,/ ला खिला दे, ला खिला दे दो-चार आलू!/ अम्माँ, मैं नहीं टालू,/ अम्माँ, मैं नहीं कालू,/ अम्माँ, मैं तेरा भालू...!” बड़ी देर तक सभा में यही नाच-रंग चला। आयोजकों की बहुत प्रार्थना के बाद लोग थमे।

इसके बाद और भी कार्यक्रम हुए। कई लोग तरह-तरह के रंग-बिरंगे कपड़े और गहने पहनकर नाच दिखाने आए। अजीबोगरीब मुखौटों वाले नाच हुए। हँसी-मजाक से भरपूर नाटक भी हुए। पर ठुनठुनिया ने भालू बनकर जो मजा बाँध दिया था, उसका मुकाबला कोई और नहीं कर पाया।

और सचमुच भालू बनकर ठुनठुनिया इतना बदल गया था कि और तो और, खुद गोमती भी उसे नहीं पहचान पाई थी। पर बाद में जब ठुनठुनिया का नाम लेकर इनाम की घोषणा हुई और खुद गजराज बाबू ने अपने हाथ से उसे चाँदी की थाली और एक मैडल इनाम में दिया, तो गोमती ने पहचाना—अरे, तो यह ठुनठुनिया ही था, जो भालू बना हुआ था!

ठुनठुनिया को जो मैडल दिया गया, वह भी चाँदी का था। उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था, ‘गुलजारपुर का रत्न’। उस मैडल को एक सुंदर-से काले धागे में पिरोया गया था। गजराज बाबू के कहने पर ठुनठुनिया ने उस मैडल को गले में हार की तरह पहना, तो खूब जोर से तालियाँ बजी।

फिर ठुनठुनिया से गजराज बाबू ने कहा, “भई, ठुनठुनिया, तुम भी कुछ कहो!”

इस पर ठुनठुनिया ने कहा, “आप बड़े-बड़े लोगों के आगे मैं क्या कहूँ? समझ में नहीं आ रहा। हाँ, पुरस्कार पाकर मैं खुश हूँ। पर...मुझसे बढ़कर खुशी मेरी माँ को होगी। मैंने कल उससे कहा तो उसे यकीन नहीं हो रहा था। माँ का कहना था, ‘रे ठुनठुनिया, तेरे पास तो ढंग की पोशाक तक नहीं है! तू भला कैसे इनाम जीतेगा?’ पर अब उसने देख लिया होगा कि उसके बेटे की जो पोशाक है, उसका मुकाबला तो बेशकीमती रंग-बिरंगी पोशाकें भी नहीं कर सकतीं।...”

लोग हैरानी से ठुनठुनिया की बातें सुन रहे थे।

इसके बाद ठुनठुनिया ने कहा, “अगली बार अपनी कला और निखार सकूँ, आप सब इसका आशीर्वाद दीजिए।...हाँ, अपने एक अपराध की क्षमा आप सब लोगों से माँगता हूँ। अभी कुछ रोज पहले गाँव की चौपाल पर जो भालू आया था और जिसने गाँव के बहुत से लोगों के साथ-साथ चाचा रामदीन को भी डरा दिया था, वह सचमुच का भालू नहीं, मैं ही था। और मैंने यही पोशाक पहनी थी, जिसे देखकर सभी को भालू नजर आने लगा।...

“मगर यह पोशाक मुझे मिली कहाँ से, इसका भी एक किस्सा है।...यह पोशाक मुझे जंगल में एक पेड़ के नीचे मिली थी और मैंने सोचा, जरा देखूँ, इसे पहनकर मैं कैसा लगता हूँ? आप सबको मेरे कारण परेशानी हुई, इसके लिए माफी चाहता हूँ। पर सच तो यह है कि उसी दिन मेरे मन में आया कि अगर इस मुखौटे को पहनकर मैं ‘भालू-नाच’ नाचूँ तो इनाम जीत सकता हूँ। और आज सचमुच मेरा सपना पूरा हो गया...”

“हाँ, और एक बात गजराज बाबू जी से भी कहनी है। उनके हाथों से इनाम पाकर मुझे अच्छा लगा, पर उनसे पहली दफा मुझे यह इनाम नहीं मिला है।...कई बरस पहले होली मेले में उन्होंने मुझे दस रुपए का एक खरखरा नोट इनाम में दिया था, जिससे मैंने में खूब सारी चीजें ली थीं और पहली बार चरखी वाले झूले पर झूला था।...वह इनाम मुझे गजराज बाबू ने क्यों दिया, इसकी याद नहीं दिलाऊँगा, क्योंकि आप में से बहुत से लोग जानते ही हैं। गजराज बाबू को भी अब याद आ गया होगा कि मजाक-मजाक में उनका नाम ‘हाथी बाबू’ कैसे पड़ गया! अगर उन्हें बुरा लगा हो, तो उनसे भी मैं माफी माँगता हूँ।...”

ठुनठुनिया जब बोलकर मंच से उतरा तो देर तक पंडाल में तालियाँ बजती रहीं। गजराज बाबू ने आगे बढ़कर उसे गले से लगा लिया और खूब जोरों से पीठ थपथपाई।

इतने में गोमती भी वहाँ आ गई। ठुनठुनिया ने आगे बढ़कर माँ के पैर छुए तो मारे खुशी के उसकी आँखों में आँसू छलछला आए।