एक था ठुनठुनिया - 3 Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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एक था ठुनठुनिया - 3

3

आहा रे, मालपूए!

एक बार ठुनठुनिया पड़ोस के गाँव केकापुर में अपने दोस्त गंगू से मिलने गया। गंगू ठुनठुनिया को देखकर उछल पड़ा। माँ से बोला, “माँ-माँ, देखो तो, ठुनठुनिया आया है, ठुनठुनिया!”

गंगू की माँ भी ठुनठुनिया को देखकर बहुत खुश हुई। वह मालपूए बना रही थी। बोली, “दोनों दोस्त मिलकर खाओ।...अभी गरमागरम हैं, झटपट खा लो, देर न करो।”

ठुनठुनिया ने पहले कभी मालपूए न खाए थे। उसने घी में तर मीठे-मीठे मालपूए खाए, तो उसे इतने अच्छे लगे कि एक-एक कर पाँच मालपूए खा गया। गंगू बोला, “तू कहे तो अंदर अम्माँ से और लेकर आऊँ?”

ठुनठुनिया का जी तो नहीं भरा था। उसका मन हो रहा था कि अभी दो-तीन मालपूए और खा लेता तो मजा आता। पर संकोच के मारे बोला, “नहीं-नहीं गंगू, और खाऊँगा तो पेट तन जाएगा।...बस, अब रहने दे।”

उसके बाद दोनों दोस्त नदी किनारे घूमने-टहलने निकल गए। नदी की रेत में उन्होंने खूब सारी छोटी-छोटी सीपियाँ बटोर लीं और उन्हें रूमाल में बाँध लिया। थोड़ी दौड़-भाग की। नाच-नाचकर गाने गए। फिर अपने-अपने खजाने लेकर गप्पें लड़ाते हुए वे वापस चल दिए।

पर ठुनठुनिया का मन अभी मालपूओं में ही अटका था। लौटकर उसने गंगू की माँ से कहा, “चाची, मालपूए बहुत अच्छे बने थे। मेरा तो मन करता है, बस मालपूए ही खाऊँ। दुनिया की कोई मिठाई इसके आगे टिकेगी ही नहीं।...”

कुंतो चाची हँसकर बोली, “बेटा, तू रोज आ जाया कर। मैं रोज तेरे लिए मालपूए बना दूँगी।”

ठुनठुनिया शरमा गया। बोला, “नहीं चाची, मैं तो बस तारीफ कर रहा था।”

ठुनठुनिया की सिधाई पर कुंतो की बड़े जोर की हँसी छूट गई। बोली, “क्यों, गोमती नहीं बनाती तेरे लिए मालपूए?”

“नहीं चाची, कभी नहीं बनाकर खिलाए! आज जाकर माँ से कहूँगा...।” ठुनठुनिया नाराजगी में एकदम गोलगप्पे जैसा मुँह बनाकर बोला।

“पर नाम न भूल जाना।” कुंतो हँसी, “मालपूआ बोलना, मालपूआ!”

“ठीक है चाची!” कहकर कुंतो चाची और प्यारे दोस्त गंगू से विदा लेकर ठुनठुनिया घर की ओर चल पड़ा।

रास्ते में भी ठुनठुनिया के मन में मालपूए ही चक्कर काट रहे थे। सोच रहा था, “आज घर जाते ही माँ से मालपूए बनवाऊँगा। और एक-दो नहीं, पूरे दर्जन भर खाऊँगा। तब मेरा जी भरेगा।”

पर तभी ठुनठुनिया के मन मे आया, अगर मैं मालपूए का नाम भूल गया तो? उसने सोचा, कविता की तर्ज पर मैं रास्ते भर गाता-गुनगुनाता चलूँगा, ‘आह रे! मालपूआ, वाह रे, मालपूआ...पूआ ने पुआ, मालपूआ!’ तब तो भूलने का कोई सवाल ही नहीं।

ठुनठुनिया इसी तरह अपनी धुन में ‘आह रे मालपूआ, वाह रे मालपूआ’ गाता-गुनगुनाता जा रहा था। तभी उसे एक घर के चबूतरे पर बैठी छोटी-सी, चंचल लड़की दिखाई दी। गौरी उसका नाम था। उसके हाथ में पिंजरा था, पिंजरे में तोता। वह उस तोते से खेल रही थी और लगातार बातें कर रही थी।

बातें करते-करते वह तोते को सिखा रही थी, “मिट्ठू, बोल राम-राम!...मेरे प्यारे रे सुआ, बोल दे न राम-राम!”

जब उस लड़की ने ठुनठुनिया को ‘पूआ-पूआ, मालपूआ’ चिल्लाते देखा, तो उसे बड़ा गुस्सा आया। नाक चढ़ाकर बोली, “अरे, तुम कैसे बुद्धू हो जी! यह तो सुआ है, सुआ, कोई तुम्हारा पूआ नहीं।...मगर तुम खामखा ‘पूआ-पूआ’ चिल्लाते जा रहे हो। मेरी तरह ‘सुआ रे सुआ’ नहीं बोल सकते?”

ठुनठुनिया ने सोचा, ‘अरे, यह तो बड़ी गलती हो गई!’ उसने उसी समय अपनी जीभ काट के कान पकड़े। अपने बोल बदल दिए और ‘सुआ रे सुआ, वाह रे सुआ’ कहता हुआ आगे चल दिया।

आगे एक बुढ़िया चरखा कात रही थी। उसके धागे का तार टूट गया था। वह उसे जोड़ने की कोशिश में पसीने-पसीने हो रही थी। ठुनठुनिया को ‘सुआ रे सुआ’ गाते देखा तो गुस्से में तमककर बोली, “अरे, बड़ा अभागा है तू! क्या सुआ-सुआ लगा रहा है? जैसे तूने कभी चरखा देखा ही नहीं!...अरे बेटा, न यह सुआ है, न सूई। यह तो चरखा है, चरखा। चरखा चर्रक-चूँ...! समझ गए न?”

ठुनठुनिया ने बड़ी समझदारी से सिर हिलाया। कान पकड़े कि आगे से वह गलती नहीं करेगा। और उसी समय “चरखा चर्रक-चूँ, चर्रक-चूँ...!” कहता आगे चल दिया।

आगे कुछ बच्चे लाइन लगाकर पीछे से एक-दूसरे को पकड़कर ‘रेलगाड़ी...रेलगाड़ी’ खेल रहे थे। खेलते-खेलते वे बोलते भी जा रहे थे, “चल्लम चल, चल्लम-चल...गाड़ी चल, चल्लम-चल, चल्लम...चल, गाड़ी चल!”

ठुनठुनिया को यह खेल इतना मजेदार लगा कि बड़ी देर तक वह बच्चों को छुक-छुक रेलगाड़ी खेलते ही देखता रहा। फिर आगे चला तो उसके होंठों पर खुद-ब-खुद बच्चों का ही यह गीत आ गया, “चल्लम चल, गाड़ी चल...हल्लम-हल, गाड़ी हल...!”

कुछ आगे ही ठुनठुनिया का घर था। घर पहुँचते ही ठुनठुनिया ‘माँ...माँ’ कहता गोमती से जा चिपका। बोला, “माँ, माँ, आज तो तुझे ‘चल्लम-चल, हल्लम-हल’ बनाकर खिलाना पड़ेगा। मैंने गंगू के यहाँ चल्लम-चल खाए तो इतने मजेदार लगे, इतने मजेदार कि क्या कहूँ!”

माँ हैरान होकर बोली, “पर बेटा, चल्लम-चल तो कोई चीज नहीं होती। मैं तेरे लिए बनाऊँ क्या?...”

“नहीं माँ, बनाना पड़ेगा। तू कभी मेरे लिए चल्लम-चल बनाती ही नहीं।” कहकर ठुनठुनिया रूठ गया।

गोमती पसोपेश में पड़ गई। बोली, “बेटा, तू खीर कहे तो बना दूँ। लड्डू-पेड़ा कहे तो बना दूँ। पूआ-मालपूआ कहे तो बना दूँ, पर यह निगोड़ी चल्लम-चल तो मुझे बनानी ही नहीं आती। मैंने तो इसका नाम ही...!”

गोमती आगे कुछ कहे, इससे पहले ही ठुनठुनिया उछलकर बोला, “अरे ओ माँ, याद आ गया—पूआ...पूआ, मालपूआ! बस, तू तो मालपूआ बना दे मेरे लिए, खूब घी में तर मीठे-मीठे मालपूए। चल्लम-चल को मार गोली!”

गोमती हँसती हुई बोली, “पर अभी तो तू चल्लम-चल बनाने के लिए कह रहा था रे ठुनठुनिया?”

“वह तो मैं भूल गया था माँ!” ठुनठुनिया शरमाकर बोला, “बस, अब तू देर न कर। जल्दी-जल्दी अच्छे-अच्छे मालपूए बना।”

माँ ने मालपूए बनाए तो ठुनठुनिया ने खूब छककर खाए। फिर जब वह अलसाकर खाट पर लेटा तो माँ ने पूछा, “अब बता, तेरे चल्लम-चल का किस्सा क्या है...?”

इस पर ठुनठुनिया ने रास्ते में जो-जो चीजें देखी थीं, सब बता डालीं। बोला, “माँ, मैं तो ठीक-ठीक गाना गाता हुआ आ रहा था। मगर...रास्ते में जो लोग मिले, उन्होंने भरमा दिया। मालपूआ उड़न-छू हो गया। उसकी जगह चल्लम-चल आ गया।”

सुनते ही गोमती हँसते-हँसते दोहरी हो गई।

उसकी हँसी की आवाज सुनकर पड़ोस की शीला चाची आ गई। बोली, “क्या बात है गोमती, आज तेरी हँसी रुकने में ही नहीं आती! और हाँ, मालपूए और चल्लम-चल का क्या किस्सा है? मुझे थोड़ा-थोड़ा तो सुनाई दिया, लेकिन पूरी बात समझ में नहीं आई...!”

इस पर गोमती ने शीला चाची को ‘चल्लम चल’ का पूरा किस्सा सुनाया, तो शीला चाची का भी हँसते-हँसते बुरा हाल हो गया।

होते-होते शाम तक यह चल्लम-चल आँधी-तूफान की तरह पूरे गाँव में फैल चुका था। अब ठुनठुनिया जिधर भी निकलता, अड़ोस-पड़ोस की चाची-ताइयाँ उसे बुलाकर कहतीं, “आ रे ठुनठुनिया, तुझे चल्लम-चल बनाकर खिलाऊँ!” और ठुनठुनिया शरमाकर भाग खड़ा होता।